शुक्रवार, 8 नवंबर 2013
शनिवार, 14 सितंबर 2013
शुक्रवार, 13 सितंबर 2013
दो कविताएँ : रास्ता और कविता
रास्ता
मैंने ……
उस रास्ते को चुना
जिस पर
जाने से लोग
कतराते थे ।
जूझता रहा
मुश्किलों से
बनाता रहा रास्ता
और लोग
आगे निकल गये ।
उनको मिली
वाह … वाह …
और मैं
काँटों से
छलनी हुए
बदन को
तसल्ली के
मरहम से
सहलाकर
फिर से बढ़ गया
नया रास्ता बनाने ।
कविता
मैं कविता में नहीं
कविता आकर
बसती है मुझमे
रचती है स्वांग
गीतों में भरती है
उन्मुक्त उल्लास
उद्वेलित मन को
बार - बार कराती है
यह आभाष
कि मैं …
तुम में बसती हूँ
तुम्हारे मन के
भावों को
पढ़ती हूँ ।
खामोशी …
कोई हल नहीं
कंही …
नियति ने
ढाया है जुर्म
तो कंही
उन्माद ने
इंसान …
हो रहे हैं दफन
और … मुर्दे …
चुरा रहे हैं कफ़न ।
@२०१३ विजय मधुर
शुक्रवार, 21 जून 2013
प्रकृति का प्रकोप
वही कलम
जो प्रकृति के ....
सौन्दर्य को देख
दौड़ने लगती थी
कभी .......
लम्बी थकान के बाद
उस मिट्टी का
स्पर्श पाते ही ,
चरणों में उसके
चढ़ने वाले
पुष्प की भांति ।
आज ....
शब्दहीन
संवेदनाहीन ....
बैठी है खामोश
उनकी तरह
जो अपनों की
लाशों के बीच
भूख .... प्यास .....
शर्द ..... दर्द .... की ...
शून्यता में
कर रहे हैं इन्तजार
मौत का ..... ।
@२०१३ विजय मधुर
जो प्रकृति के ....
सौन्दर्य को देख
दौड़ने लगती थी
कभी .......
लम्बी थकान के बाद
उस मिट्टी का
स्पर्श पाते ही ,
चरणों में उसके
चढ़ने वाले
पुष्प की भांति ।
आज ....
शब्दहीन
संवेदनाहीन ....
बैठी है खामोश
उनकी तरह
जो अपनों की
लाशों के बीच
भूख .... प्यास .....
शर्द ..... दर्द .... की ...
शून्यता में
कर रहे हैं इन्तजार
मौत का ..... ।
@२०१३ विजय मधुर
मंगलवार, 28 मई 2013
British Army Medal-1914
मेरी माँ जी ने अपने पिता अर्थात हमारे नाना जी को मिले इस मैडल को अभी तक बतौर निशानी
संभाल कर रखा है । इन दिनों मैं अपने पिताजी स्व . झब्बन लाल विध्यावाचस्पति के ब्यक्तित्व एवं कृतित्व को एक पुस्तक की शक्ल देने का प्रयास कर रहा हूँ । तब माँ से अक्सर बातें करके रोज ही नयी - नयी जानकारियां मिलती रहती हैं । ऐसी ही एक जानकारी माँ ने इस मैडल के रूप में उपलब्ध करायी । ६० वर्षों से भी अधिक किसी ऐतिहासिक दस्तावेज को सहेज कर रखना कोई उनसे सीखे । जबकि नाना जी के मृत्यु सन १९४७ के आस - पास हो गयी थी उस समय माँ गायत्री देवी की उम्र लगभग दस - ग्यारह साल और उनके छोटे भाई धर्मपाल की दो साल रही होगी । माँ को सिर्फ इतना याद है कि उनके पिता फौज में हवालदार थे । ज्यादा जानकारी उनको भी नहीं मालूम । नाना जी को गाँव धरासू में सुंदर मणी (सौन्द्री ) नाम से जाना जाता था ।
@२०१३ विजय मधुर
शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013
कविता : रक्षक
तपती धूप में
पसीने से सींचा
देह ऊर्जा
संचरित कर
पाला - पोसा
संचरित कर
पाला - पोसा
बढ़ा किया
यौवन की
दहलीज़ पर
खड़े बाग़ के
जिन पेड़ों को ।
आज वही
अपनी शीतलता से
रंग बिरंगे फूलों से
हर्षा रहे हैं ...
स्वादिष्ट फलों से
सुख समृधी
बरशा रहे हैं ।
बरशा रहे हैं ।
दूर देश से
आकर पंछी
बनाते .....
सुन्दर नीढ़
और .....
कलरव से
अपने ....
अपने ....
वातावरण को
संगीतमय ।
सुनाते
मधुर कंठ से
मन मुग्ध
करने वाले गीत
क्यों न ऐसे
रक्षक तुमसे
होगी ......
हम सबकी प्रीत ।
@२०१३ विजय मधुर
@२०१३ विजय मधुर
गुरुवार, 28 मार्च 2013
गीत : खेलेंगे मिल होली
आओ रे आओ रे
खेलें सब मिल होली ।
आया बसंत
झूमें सब तरुवर
पंछी बोलें मीठी बोली
आओ तुम भी
आयें हम भी
खेलेंगे मिल होली ।
आओ रे आओ रे
खेलें सब मिल होली ।
उड़े गुलाल और
मार पिचकारी
गूंजे खुशियों की किलकारी
हम तुम हैं हमजोली
खेलेंगे मिल होली ।
आओ रे आओ रे
खेलें सब मिल होली ।
मजनू मिंया भी
खेलन चले हैं
अपनी लैला संग होली ....
काहे पिया तुम
चुप बैठी हो
मन ही मन
सोच रही हो
आये हमार घर डोली ।
आओ रे आओ रे
खेलें सब मिल होली ।
सारी खुशियाँ
तुझ पे लुटा दूं
रंग बसन्ती
चुनरी उढ़ा लूं
अब बनो ना
ज्यादा भोली
खेलो हम संग होली ।
आओ रे आओ रे
खेलें सब मिल होली ।
@२०१३(1987) विजय मधुर
बुधवार, 27 मार्च 2013
विश्व रंग मंच दिवस
आज विश्व रंग मंच दिवस है । इसी दिवस पर मैं आज भाई विजय गौड द्वारा उनके ब्लॉग में स्व. अवधेश कुमार जी की कविता पर अपने कमेंट को विस्तृत रूप में इसलिए प्रकाशित कर रहा हूँ क्योंकि कमेन्ट की एक सीमा होती है और सभी रंगकर्मियों एवं पाठकों तक बात पंहुचाना भी रंगकर्मी के नाते अपना कर्तब्य समझता हूँ ।
कारवाँ देहरादून द्वारा आयोजित पांच दिवसीय अखिल भारतीय नाट्य समारोह १६ सितम्बर से २० सितम्बर 1९९२ में स्वर्गीय अवधेश कुमार जी के साथ कार्य करने का मौका मिला । इस नाट्य समारोह में उन्ही के द्वारा लिखित दो नाटकों का मंचन किया गया । पहला ' कोयला भई ना राख ' जिसे 'वातायन' की ओर से श्री राम प्रसाद अनुज द्वारा निर्देशित किया गया । उन्ही के द्वारा लिखित दूसरी प्रस्तुति ' वन गाथा ' आयोजक संस्था 'कारवाँ ' द्वारा अवधेश कुमार जी के निर्देशन में ही मंचित की गयी । इस सामारोह के दौरान उनके साथ समय बिताने का सौभाग्य प्राप्त हुआ क्योंकि एक तो इस आयोजन में प्रकाशित होने वाली स्मारिका के सम्पादन की जिम्मेदारी मुझ पर थी । कला पक्ष के क्षेत्र में उस समय स्व अवधेश कुमार के अतिरिक्त कोई नाम याद ही नहीं था । इसलिए इस स्मारिका में कला पक्ष उन्ही का था । साथ ही पर्यावरण संरक्षण पर आधारित नाटक ' वन गाथा ' में ' इंद्र ' की भूमिका निभाने का मौका भी उनके निर्देशन में मिला । स्व . अवधेश कुमार जी का जन्म ७ जून १९५१ में हुआ और निधन १४ जनवरी ' १९९९ . उनका प्रमुख साहित्य नाटक 'कोयला भई ना राख ' , ' वन गाथा ' , ' सूखी धरती प्यासा मन ' , कथा संग्रह 'उसकी भूमिका ' काव्य संग्रह ' जिप्सी लड़की ' और उनके बनाये पोस्टर , चित्र आदि हैं । मरणोपरांत स्व. अवधेश कुमार जी को ' कारवाँ ' संस्था द्वारा विश्व रंगमंच दिवस २७ मार्च ' २००१ पर " रंग भूषण " सम्मान से सम्मानित किया गया । इस दौरान कारवां की कार्यकारिणी में संयोजक - उदय शंकर भट्ट , अध्यक्ष - अलोक मालासी , उपाध्यक्ष - प्रमोद शाह , कोषाध्यक्ष - वि . राजकुमार , सचिव - विजय कुमार मधुर (स्वयं ), सह सचिव - दिनेश धस्माना , सांस्कृतिक सचिव - राजीव शुक्ला , प्रचार सचिव - अजय वशिस्ठ और कार्यकारिणी सदस्य थे - चंद्रकांता मालासी , रूपेश कुमार , अनुज कुमार , पी .आर . कश्यप और रातुल बिजल्वाण ।"रंग भूषण " नाट्योत्सव एवं सम्मान समारोह - २००१ में प्रकाशित स्मारिका का संपादन किया था भाई सुरेन्द्र भंडारी ने । साथ ही दून रंगमंच के सशक्त हस्ताक्षर दादा अशोक चक्रवर्ती और राहुल वर्मन को भी इसी समारोह में " रंग भूषण " सम्मान से सम्मानित किया गया ।
@ २०१३ विजय मधुर
कारवाँ देहरादून द्वारा आयोजित पांच दिवसीय अखिल भारतीय नाट्य समारोह १६ सितम्बर से २० सितम्बर 1९९२ में स्वर्गीय अवधेश कुमार जी के साथ कार्य करने का मौका मिला । इस नाट्य समारोह में उन्ही के द्वारा लिखित दो नाटकों का मंचन किया गया । पहला ' कोयला भई ना राख ' जिसे 'वातायन' की ओर से श्री राम प्रसाद अनुज द्वारा निर्देशित किया गया । उन्ही के द्वारा लिखित दूसरी प्रस्तुति ' वन गाथा ' आयोजक संस्था 'कारवाँ ' द्वारा अवधेश कुमार जी के निर्देशन में ही मंचित की गयी । इस सामारोह के दौरान उनके साथ समय बिताने का सौभाग्य प्राप्त हुआ क्योंकि एक तो इस आयोजन में प्रकाशित होने वाली स्मारिका के सम्पादन की जिम्मेदारी मुझ पर थी । कला पक्ष के क्षेत्र में उस समय स्व अवधेश कुमार के अतिरिक्त कोई नाम याद ही नहीं था । इसलिए इस स्मारिका में कला पक्ष उन्ही का था । साथ ही पर्यावरण संरक्षण पर आधारित नाटक ' वन गाथा ' में ' इंद्र ' की भूमिका निभाने का मौका भी उनके निर्देशन में मिला । स्व . अवधेश कुमार जी का जन्म ७ जून १९५१ में हुआ और निधन १४ जनवरी ' १९९९ . उनका प्रमुख साहित्य नाटक 'कोयला भई ना राख ' , ' वन गाथा ' , ' सूखी धरती प्यासा मन ' , कथा संग्रह 'उसकी भूमिका ' काव्य संग्रह ' जिप्सी लड़की ' और उनके बनाये पोस्टर , चित्र आदि हैं । मरणोपरांत स्व. अवधेश कुमार जी को ' कारवाँ ' संस्था द्वारा विश्व रंगमंच दिवस २७ मार्च ' २००१ पर " रंग भूषण " सम्मान से सम्मानित किया गया । इस दौरान कारवां की कार्यकारिणी में संयोजक - उदय शंकर भट्ट , अध्यक्ष - अलोक मालासी , उपाध्यक्ष - प्रमोद शाह , कोषाध्यक्ष - वि . राजकुमार , सचिव - विजय कुमार मधुर (स्वयं ), सह सचिव - दिनेश धस्माना , सांस्कृतिक सचिव - राजीव शुक्ला , प्रचार सचिव - अजय वशिस्ठ और कार्यकारिणी सदस्य थे - चंद्रकांता मालासी , रूपेश कुमार , अनुज कुमार , पी .आर . कश्यप और रातुल बिजल्वाण ।"रंग भूषण " नाट्योत्सव एवं सम्मान समारोह - २००१ में प्रकाशित स्मारिका का संपादन किया था भाई सुरेन्द्र भंडारी ने । साथ ही दून रंगमंच के सशक्त हस्ताक्षर दादा अशोक चक्रवर्ती और राहुल वर्मन को भी इसी समारोह में " रंग भूषण " सम्मान से सम्मानित किया गया ।
@ २०१३ विजय मधुर
होली का त्यौहार

बसंत आया
तरुओं ने ली अंगड़ाई
फूलों से लकदक डालियों में
देखो कैसे बहार है आयी ।
खुशियों संग गुलाल के
छाये हैं नभ में मेघ
ढोलक की थाप में नाचें सभी
एक दूजे को देख ।
पकवानों की थाल में
गुजिया का क्या कहना
रंग बिरंगे परिधानों में
गुलाल बना है गहना ।
मस्ती भरा दिन है
बरसे रंगों की बौछार
मनाएं सब रंज भूलकर
होली का पावन त्यौहार ।
@२०१३ विजय मधुर
शनिवार, 23 फ़रवरी 2013
कहानी : वह दादी
भाग १
पूरे पांच वर्ष बाद गाँव जाने का मौका मिला कब से सोच रहा था । हर बार कुछ न कुछ समस्याएँ सामने खड़ी हो जाती । कभी बच्चों के एड्मिसन .... कभी परीक्षाएं .....ससुराल में शादी ......आफिस से छुट्टी नहीं । आखिर इस बार साहस जुटा ही लिया परिवार सहित गाँव जाने का । यूं समझो कि देवता ने अपनी पुजाई में बुलाया । पिताजी ने स्पष्ट शब्दों में पत्र में लिखा था- बेटा तुम घर आने के हर बार नए - नए बहाने बनाते रहते हो । मैं मान भी जाता हूँ । इस बार कोई बहाना न बनाना । जरुर बच्चों सहित पुजाई में शामिल होना । यही उसकी इच्छा है और ..मेरी आज्ञां । तुम्हारे बढे भाई को भी मैंने फौज में टेलीग्राम कर दिया है .... मदर सीरियस कम सून ..... छुट्टी जल्दी मिल जायेगी ।
पत्र पढने के बाद घर में बच्चों से विचार बिमर्श , ऑफिस से छुट्टी , पैसों का इंतजाम के पश्चात् आखिर गाँव जाने का कार्यक्रम तय हो गया । इस बार बच्चों की तरफ से ज्यादा प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली । दो सप्ताह पूर्व से ही गाँव जाने की तैयारियां शुरू हो गयी । भले ही पांच साल पहले और आज की तैयारियों में फर्क था । पहले खरीददारी होती थी दो एक किलो अच्छे चने सफेद रंग की मीठी मीठी लैचियों के साथ । एक ग्राम देवता के नाम की भेली तो एक आस - पास बांटने के लिए । बड़ा गाँव होने की वजह से ग्राम देवता के नाम की भेली का एक छोटा सा टुकड़ा प्रसाद स्वरूप ही हर परिवार तक पंहुचता था । फिर इतने सारे गाँव के बच्चे उनके लिए भी तो अलग से । माँ और भाभी के लिए कम से कम एक एक धोती , पिताजी के लिए खादी का कुर्ता पाजामा । भाइयों के लिए तिब्बती बाज़ार से जींस की पैंट , टी शर्ट । बहिन के लिए बड़ा तो भतीजी के लिए छोटा सूट । साबुन .... चायपत्ती ... चीनी .... मशाले .... और भी चीजें जिनसे बड़े भाई द्वारा दिया गया टीन का बक्सा भर जाता । भाई वह बक्सा फौज से लाया था । काले रंग के उस बक्से पर उसका नाम , नंबर ... रैंक ... सफेद रंग के पेंट से लिखा था । स्वयं फौज वाला तो था नहीं इसलिए सारे बक्से पर दुबारा काला पेंट करवा दिया लेकिन तब भी सफेद अक्षर साफ चमक जाते । इस बार बच्चों ने उस बक्से को ले जाने से मना कर दिया । वेसे भी अब इसकी जरूरत कंहा । तैयारियों का स्वरूप जो बदल गया था ।
जरूरी सामान जैसे खुद के , पत्नी के , दोनों बच्चों के दो - दो जोड़ी कपड़े । एक जोड़ी जाते समय पहनने के लिए तो एक जोड़ी आते हुए । दो -दो जोड़ी घर पर पहनने के कपड़े , जूते , चप्पल , किताबें , दवाईयां , मेकअप बाक्स , बच्चों के अपने खिलोने , रास्ते के लिए बिस्कुट , फ्रूट और घर के लिए दो किलो मिठाई का डब्बा । एक ब्रीफ़केस और दो बैग लेकर सभी सुबह सुबह गाँव के लिए तैयार हो गए । मकान मालिक को रात को ही कह दिया था । घर का ध्यान रखना एक हफ्ते बाद लौटेंगे । मोहल्ले के समीप से ही कोटद्वार के लिए छ्ह बजे बस लिकलती थी इसलिए साढ़े पांच बजे सड़क के किनारे खड़े हो गए । शादी ब्याह का सीजन था नहीं इसलिए उम्मीद थी कि बस में जगह मिल ही जायेगी । एसा ही हुआ ठीक सवा छः बजे बस में बैठ गए । शर्दियों का मौसम सबने कपड़े भी खूब पहन रखे थे लेकिन बस की जिस सीट में बैठे थे उसका कांच बार - बार खट्टर खट्टर करता खिसक जाता और जो हवा का झोंखा आता उससे आस पास की सीटों में बैठी सवारियां भी ठिठक जाती पिछली सीटों पर बैठने की भी सोची लेकिन उनका तो और भी बुरा हाल । वंहा तो खिडकियों के शीशे भी नदारद । पूरे रस्ते शीशे को थामे आखिर कोटद्वार बस अड्डा आ गया । उस बस से उतरते ही बच्चों ने कहा " पापा अब भी हमें रोडवेज वाली ऐसी ही बस मिलेगी तो ...? नहीं ... नहीं अब एसा नहीं होगा । कोटद्वार पूरे गढ़वाल क्षेत्र का मुख्य द्वार है । यंहा से पूरे गढ़वाल क्षेत्र के लिए ज्यादातर गढ़वाल मोटर्स ओनर्स यूनियन की बसे चलती हैं । जिनकी कंडीसन अच्छी होती है । चिंता मत करो .... बच्चों को समझाते हुए कह रहा था तभी हाथ से पर्स कंधे पर लटकाती पत्नी बोली " बेटा देखते जाओ इस बस में तो केवल हवा ही आ रही थी कम से कम बीडी के धुंवे से दम तो नहीं घुट रहा था । एक के ऊपर एक तो नहीं .... । चलो - चलो जल्दी चलो वह रही हमारे यंहा की गाडी । सामान कंडक्टर ने छत पर लाद दिया और सभी गाडी में बैठ गए । लगभग आठ - दस किलोमीटर सीधी सड़क के बाद गाडी ने पहाड़ चढ़ना शुरू कर दिया । ड्राईवर ने गढ़वाली गीतों की कैसेट लगा दी " चली भै मोटर चली .... सर्रा ...रर्रा ....प्वां ...प्वां ......" गाडी चलाते - चलाते ड्राईवर कभी बीड़ी सुलगाता तो कभी कैसेट बदलता । यह देख सुमती की जान सूख जाती वह बच्चों को अपने दोनों हाथों से जकड़ लेती । पिछली सीट पर गाँव के ही गम्लू भाई बैठे थे जिनकी गाँव के निकटतम बाज़ार में अपनी दुकान थी । दुकान के सामान के लिए ही कोटद्वार आये थे । सोचा उन्ही के साथ बैठा जाय । गाँव के ताज़ा समाचार भी मिल जायेंगे । बच्चों ने कई बार कहा कि लोगों को बीड़ी न पीने के लिए कहूं लेकिन खुद ही उनकी बात अनसुनी यह कह कर दी कि यंहा लोग टोकने से बुरा मानते हैं । कुछ देर नाक बंद करने के बाद बच्चे हर मोड़ के बाद नया नज़ारा देख रोमांचित होने लगे । उन्हें कभी बर्फ से ढका हिमालय दिखता तो कभी दूध जैसी बहती नदी । कभी सिर पर घास तो कभी लकड़ियों की गठरी ले जाती महिलाएं । कभी स्कूल से घर जाते लड़के लड़कियां तो कभी गाय, बाछियों , भेड , बकरियों के पीछे दौड़ते बच्चे , जो गाडी देख उनको सड़क से किनारे कर रहे थे ।
क्रमशः
भाग २
शाम होने से पहले ही बस गाँव के नजदीकी कस्बे में पंहुच गयी । वंहा पर उतरने वाली सवारियों में उनके के अलावा गाँव का दुकानदार गम्लू था । जिसकी दुकान उसी कस्बे में थी । बस से उतरते ही सभी गम्लू की दूकान पर चले गए जो सड़क से लगती हुई थी यूं समझो बस की छत से कंडक्टर ने सामान सीधे दुकान पर ही उतारा। गम्लू के पंहुचते ही उसका बेटा गद्दी से उठ गया और गम्लू गद्दी पर बेटे को यह कहते बैठ गया
- बेटा यह जम्नू चाचा है और यह इनके बच्चे । जल्दी से उनको पानी दे और सैन सिंह भाई को बोल पिताजी ने चार चाय मंगाई है साथ में कुछ गर्म - गर्म पकोड़ी ।
नहीं भाई साहब चाय रहने दो । खाली पानी ... गाँव पंहुचते - पंहुचते रात हो जायेगी ।
- अरे ! ऐसा कैसे हो सकता है । रात हो जायेगी तो होने दो । हम दोनों बाप बेटे भी तो तुम्हारे साथ चल रहे हैं ।
कहता हुआ वह सामान संभालने लगा जो दुकान के लिए लाया था । बच्चे दुकान के बाहर दीवार पर हाथ मुंह धोने लगे । चाय पकोड़ी खाने के बाद गम्लू ने दुकान के चारों फोल्डिंग पल्लों को एक -एक करके बंद किया और ताला लगा दिया । गम्लू ने एक हाथ में छडी पकड़ी और दुसरे हाथ में एक झोला जिसे वह कोटद्वार से अपने साथ लाया था । जरूर उसमे घर के लिए साग - सब्जी , फल फ्रूट , मिठाई वगैरह रही होगी । याद आया जब पिताजी भी कोटद्वार , लंसिड़ोन , पौड़ी से आते थे तो ऐसे ही थैला भर लाते थे । वह थैला रास्ते में किसी को नहीं पकडाते थे । सीधे घर जाकर माँ को देते । माँ के पास थैला आते ही हम सब कुछ छोड़ माँ के पीछे - पीछे चल देते थे । गम्लू भाई ने अपने बेटे बिटू को ब्रीफ़केस पकड़ा दिया । कस्बे से निकल कुछ दूर आगे गए ही थे कि कंठी दादा के खच्चरों की घांडीयों की आवाज उन्हें सुनाई दी । कंठी दादा इतने वर्षों में भी नहीं बदला था पंद्रह साल पहले जैसे थे आज भी वेसे ही । गाँव में सस्ते गले की दूकान के राशन के अलावा सबका सामान कस्बे से गाँव पंहुचाना उनका नित्यकर्म था । रोज जैसे ही उनके खच्चरों की घंडिया बजनी शुरू हुई समझो आठ बज गए । लोग उनके घर से निकलने पर अपनी बंद पड़ी घड़ी को मिलाते थे । आज भी वह उसी पहनावे में कोट के कॉलर पर हुक वाली लाठी टांक खच्चरों के पीछे - पीछे चल रह थे । दोनों खच्चरों पर सामान लदा था । गम्लू भाई ने वंही से आवाज लगाई । - काका राम - राम । कंठी दादा ने पीछे मुढ़कर देखा और रुक गए । सब से दुआ सलाम हुई । मौके का फायदा उठाते हुए इसी दौरान खच्चर खेत के भीड़े पर घंडीयों की लय के साथ घास चरने लगे । आभास तो उन्हें पहले ही हो गया था कि अब उनके ऊपर अतिरिक्त बोझ पड़ने वाला है । वही हुआ एक के ऊपर ब्रीफ़केस तो एक के ऊपर दोनों बैग और लद गए । कुछ देर सभी साथ चलने लगे । तभी सुमती ने कुछ देर सुस्ताने का इशारा किया । गम्लू भाई समझ गए ।
- ठीक है भुला हम काका के साथ चलते हैं । तुम लोग आराम - आराम से आ जाना । प्लेन्स में रहने वाले बच्चे हैं । हम समझते हैं । तुम्हारा सामान बिटू तुम्हारे घर में पंहुचा देगा । आराम से आना । ध्यान रखना किसी को ठोकर - वोकर न लगे । हम भी आराम - आराम से तुम्हारे आगे आगे चल रहे हैं ।
खच्चरों की घंटियों और टापों की आवाज धीरे - धीरे कम होती हुई धार के पार बिलीन हो गयी । रास्ते के ऊपर कुछ खेतों के बाद बांज के जंगल पर सूरज की आखरी किरणे उसकी कोमल पतियों की सरसराती ठंडी बयार से बतियाते हुए पहाडी के उस पार ओझल हो गयी । उस द्रश्य को देख एक पुरानी घटना की याद आ गयी । बदन के रोंगटें खड़े हो गए । जल्दी से बच्चों को बोला
- चलो बहुत हो गया आराम जल्दी चलो वरना .......।
- अभी तो हम लोग बैठे ही थे .....सुमती ने खीजते हुए बोला ।
- ऐसे ही बैठते रहोगे तो पंहुच गए घर ।
- तुम्हारे मूड का भी ..... भगवान् ही जाने .... चलो .....।
सब मुंह फुला आगे - आगे चलने लगे । मैं बार - बार पीछे मुड़कर - मुड़कर चल रहा था । याद आया वह दिन जब इसी समय अकेले घर जा रहा था । उस दिन स्कूल आते समय गेंहू का किट भी साथ लाकर चक्की पर पिसवाने रख दिया था । माँ ने सुबह ही कह दिया था । " आज तेरी बहिन को देखने के लिए कुछ लोग आ रहे हैं । घर में आटा नहीं हैं । जरूर पिसवा कर लाना । " चक्की ने भी उसी दिन ख़राब होना था । ठीक होते होते शाम हो गयी । लेकिन संतोष की बात यह थी कि आटा मिल गया । उस दिन कंठी दादा भी जल्दी घर चले गए थे । उनका कस्बे से घर जाना निर्भर करता था । खच्चरों के लिए बोझा मिलना । कभी कभी तो उन्हें खाली भी घर लौटना पड़ता । लेकिन अक्सर वह घर लौटते थे हमेशा आखिरी गाड़ी देखकर ही । उस दिन उन्हें देखा था रमती की शादी का सामान लादते । ठीक इसी जगह किट ऊपर भीड़े में रखा और उसी पत्थर पर बैठा था जिस पर अभी सुमती बैठी थी । ऊपर वाले खेत के किनारे कुछ सरसराहट सी सी सुनकर कान खड़े हो गए । जो देखा उससे तो पैरों तले की ज़मीन खिसक गयी । एक बाघ उसी तरफ आ रहा है । पहली बार किसी बाघ को इतने करीब देख एकदम ठंडा पड़ गया यूं समझो कि काटो तो खून नहीं । निर्जीव सा बाघ की तरफ देखे जा रहा था । बाघ भी शायद मुझे देख असमंजस में पड़ गया । तन्द्रा तब टूटी जब बाघ ऊपर वाले खेत से छलांग लगाकर रास्ते के नीचे खेत को पार करता हुआ न जाने कंहा गायब हो गया । हाथ पैर सुन हो चुके थे । कुछ भी तो न सूझ रहा था । तनिक मन में आया शोर मचाता हुआ भाग जाऊं । लेकिन आवाज ने तो साथ ही नहीं दिया । … नहीं ..... क्षण भर के लिए माँ की बात याद आयी मेहमानों वाली । जो किट पहले बड़ी मुश्किल से दीवार पर रखा था । अब वह फूल की तरह कब कंधे पर आ गया पता ही नहीं । कब ... कैसे .... घर तक पंहुचा अभी तक याद नहीं । अपने घर में होने का पता तब चला जब गाँव के ही जगरी ताऊ ने जोर से कंडाली की झपाग लगाई और यह कहते हुए उन्हॆ सुना कि इस पर गदेरा का भूत लग गया । अच्छा तो यह हुआ कि उस बक्त तक मेहमान न आये थे । फिर सारी बातें बिस्तार से बताई कि आज मेरे साथ क्या हुआ । माँ ने बहुत डांटा ' क्या हो जाता जो आज आटा नहीं आता ... मैं किसी से पैन्छा ले लेती ..... छोड़ देता चक्की पर ...... आ जाता घर ..... छोड़ देता वंही रास्ते में ...... आज तुझे कुछ हो जाता तो ..... ' कहते - वह रोने लगी । बड़ी मुश्किल से चुप कराया था उसे । आज भी यदि किसी ने माँ के सामने वह बात याद दिला दी तो वह रो पड़ती है ।
हमारे आने की खबर अब गाँव तक पंहुच चुकी थी । इसलिए अबिलम्ब भाई , बहिन और गाँव के पांच - छः बच्चे आधे रास्ते में हमें लेने पंहुच गए । उनमे कुछ बच्चे ऐसे भी थे जिनको पहली बार देखा । बीरू ने ही उनसे परिचय कराया यह मंगतू दादा का बेटा है तो यह संग्तु काका का । उन्हें देख अपने भी पुराने दिन याद गए थे । कैसे हम सारे दोस्त भी किसी परदेश से आने वाले के स्वागत के लिये आते थे । सबसे आगे - आगे नमस्ते करने की होड़ होती । चाचा नमस्ते ...... मामा नमस्ते ...... ब्वाडा नमस्ते ....... । यदि किसी ने नमस्ते करते - करते गोद में उठा लिया तो समझो हम सातवें आसमान में उड़ने लगते । बदले में कुछ न कुछ खाने को मिल जाता था । समय कितना बदल गया । मैं बदल गया । लेकिन अभी गाँव नहीं बदला । मैं तो यह भी भूल गया कि इन बच्चों के लिए कुछ ...... । हमारे हाथों में जो छोटा - मोटा सामान था वह भी उन्होंने ले लिया । वह सब अपनी टूटी - फूटी हिन्दी में हमारे बच्चों से बाते कर रहे थे लेकिन दोनों बच्चे आपस में अपने ही इशारों से मानो उनसे पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रहे थे । जिसे वह नादान बच्चे समझ नहीं पा रहे थे । तब भी वह हमारे बच्चों को गाँव का सम्पूर्ण परिद्रश्य अपने - अपने अंदाज़ में बयां करने पर लगे थे ।
- वह सामने धार पर हमारा स्कूल है ...... वंहा हम लोग लकड़िया लेने जाते हैं ...... वंहा डंगर चुघाने ..... वंहा नदी में ग्ड्याल पकड़ने ...... वगैरह ... वगैरह ... । बीरू अपनी भाभी के साथ बातें करता ..... तो बहिन मेरे साथ बातें करते हम लोग अपने घर पंहुच गए । घर में हमारे आने से पहले ही मिलने वालों की भीड़ ऐसे कट्ठी हो चुकी थी मानो कोई भूत पूर्व अब भावी नेता गाँव में आ गया हो अपने चेले चान्ठो के साथ मांगने । जो चुनाव के बाद पुनः ईद का चाँद हो जायेगा ।
घर पर पंहुचते ही माँ ने सबसे पहले एक - एक कर हम सब के ऊपर चांवल परोखे सबकी भुक्की पी । नाती के तो भुक्की पी - पी कर गाल ही लाल कर दिए ।
- मेरा छोटा जम्नू ....... बिल्कुल अपने बाप की शकल का । तेरा बाप भी बचपन में बिलकुल तेरी तरह था । उससे तो तू अच्छा है ...... ये तो खुक्की दूर ..... किसी को अपने गाल भी नहीं छोने देता था ....... । अब तू मेरे साथ रसोई में चल । सबके लिए चाय बनाते हैं ।
उसके बाद नाते अनुसार सबसे मिलने का सिलसिला शुरू हुआ । किसी को हाथ जोड़कर तो किसी के पैर छूकर ।
घर के आँगन के किनारे - किनारे दीवार पर हमारे पंहुचने से पहले दरियां बिछा दी गयी थी । गाँव के बड़े , बूढ़े, बच्चे सब हमें घेर कर बैठ गए । एक का प्रश्न खत्म होता तो दूसरा शुरू हो जाता । ताई जी कहती
- तुम्हे आते हुए मेरा लाटा मिला ... कैसे हैं उसके बाल - बच्चे ..... अब तो उसने यंहा आना ही छोड़ दिया ..... यह भी नहीं सोचता कैसे होंगे मेरे माँ बाप ......क्यों मिलना था उसने ..... वो मिलना भी चाहता तो उसकी .... वो हैं न घरवाली ..... मिलने देती तब न ..... पता नहीं किस जनम का बैर ले रही है .......। कहती - कहती मायूस हो जाती । ताई जी को कुछ समझाता उससे पहले ही नरु काका शुरू हो गए
- मैं भी तो गया था जेठ के महीने .... आँख का आपरेशन कराया ..... (आँख दिखाते हुए )..... इस आँख का .....पर क्या करूँ ...... तब से इस आँख से पानी ही आता रहता है ...... पता नहीं कैसे आँख बनाई उस डाक्टर ने ..... अन्दर लैंस भी फिट कर रखा है ..... । आँखें पोंछने के बाद कुछ कहते । कमली फूफू शुरू हो गयी । दरशल कमली फूफू की शादी गाँव में ही हो रखी थी । उनके पति को हम चाचा बोलते तो उसे फूफू । मेरे एकदम पास आयी । सिर पर हाथ फेरते बोली ।
- सब उस कुल देवता की कृपा है । बड़ा आदमी बन गया मेरा भाई ।
तभी एक प्रश्न और आया दूसरी तरफ से । बेटा कितनी छुट्टियाँ हैं ......।
- एक हफ्ते की ताऊ जी ।
- बेटा ! इस बार मेरे नाती को भी ले जाना अपने साथ ..... पहले तो अपने साथ कंही ओफीस में .... नहीं तो कंही भी चिपका देना ...... बड़ी मेहरबानी होगी तेरी ..... यंहा तो गाँव में जिन्दगी ख़राब हो रही उस बेचारे की ...। तेरे गुण मरते दम तक नहीं भूलूंगा ।
तब तक माँ और बहिन थाली में गिलासों को रख चाय ले आयी । मौका देख सोचा मै भी कपड़े बदल लूं । सुमती से ब्रीफ़केस की चावी माँगी और कपड़े बदलने लगा । कुछ ही देर में पिताजी भी अन्दर आ गए तब तक मै ब्रीफ़केस बंद कर चुका था ।
- बेटा जम्नू बाहर इतने सारे लोग बैठे हैं ...... कुछ लाया .....अपनी माँ को दे दे .... थोड़ा थोड़ा .... सबको दे देगी .... आज कितनी खुशी का दिन है .... मेरा पोता…. ....पोती .... बहू .. सब सुखसंती घर आ गए .....
- लेकिन पिताजी मै तो यह मिठाई । दुबारा ब्रीफ़केस खोलकर उसमे से मिठाई का डिबा निकालकर पिताजी को दे दिया ।
- यही है .....बस ....
-हाँ ... दरशल ......मुझे ...... समय ......
- कोई बात नहीं ......
तब तक माँ भी वंहा आ गयी । यही सोचकर कि लोगों को कुछ दे दूं ..... पिताजी ने माँ के हाथों डिब्बा देकर कहा
- जितना हो सकता है इसी में से सबको दे दो ..... एक - एक टुकड़ी .....
- लेकिन इससे तो .....
- जितना बोला उतना कर ..... अब पिताजी के स्वर में कुछ आक्रोश था । जिसे समझ मुझे बड़ी ग्लानी हुई कि कितनी जल्दी मैं भी अपने संस्कार भूल गया । माँ ने बर्फी के डिब्बे से चार टुकड़े देवता के नाम निकाल कर सबको बाँट दिया । परिवार में किसी के लिए कुछ नहीं बचा ।
बच्चों को मिठाई का दुकड़ा मिलते ही सारे अपने - अपने घर चले गए । अँधेरा भी हो गया था जिसके कारण ठण्ड और बढ़ गयी थी । चाय पीते ही भाई बीरू अंगीठी में किन्गोड़े के जलुड़े सुलगा लाया । अंगीठी देखते ही दूर दूर बैठे सभी लोग पास - पास आ गए । अंगीठी में हाथ तपाते ताऊ जी ने बीरू को पुकारा .....
- बीरू जा एसा कर हमारे घर से हुक्का और तम्बाकू लेकर आ जा .... इन बीडियों से हमारा काम नहीं चलता .... कब से कह रहा हूँ तेरे पिताजी को घर में हुक्का - तम्बाकू रख लो ..... खुद नहीं पीते तो क्या हुआ ।
बीरू चला गया । पिताजी ने कहा
- ठीक है भाई जी वैसे भी अब दो चार दिन तो जरुरत पड़ेगी ही .... मैं लेकर आ जाऊँगा ।
- लाना क्या है उसी को रख लेना .... बस एक पिंदी तम्बाकू ले आना । इस बार मैंने बनाया भी था । लेकिन कम पड़ गया । आधी तम्बाकू की पौध तो उस मोहनु ने ख़राब कर दी थी । मकान बनाते समय ।
बीरू तम्बाकू भर ले आया । बारी - बारी सभी बातें करते - करते हुक्का गुद्गुड़ाने लगे । सुमती , भाभी के साथ रसोई में खाना बनाने लगी और दोनों बच्चे दादी के साथ रजाई में बैठ अपने दोस्तों ... और स्कूल की बातें कर रहे थे । अंगीठी में अब सारी लकडियाँ जल चुकी थी । लाल - लाल अंगारे बच गयी । धुंवा भी ख़त्म हो गया । सारे लोग धीरे - धीरे अपने - अपने घर यह कहकर चले गए कि कल सुबह आयेंगे । पिताजी अंगीठी उठा कर बैठक में ले आये । थोड़ी देर पिताजी से बातें होती रही दो - तीन दिन चलने वाली पूजा के बारे में । तभी बहिन आ गयी ।
- भाई खाना ला रही हूँ ..... हाथ धो लो ...... ।
जब तक पिताजी .... मैं ..... बच्चे ..... माँ .... धोकर आये तब तक बीरू ने दीवार से दरी लाकर बैठक में बिछा दी ..... । भाभी और सुमती रोटिंया बना रही थी और बहिन हम सबको खाना परोसने लगी । आज पूरे पांच वर्ष बाद माँ .... पिताजी और परिवार के साथ जमीन पर बैठ कर खाने में जो स्वाद आया उसका क्या कहना । कंहा शहर में चार फुल्के खाने भी भारी पड़ जाते तो गाँव गाँव में चार रोटियों का भी पता न चला । माँ अलग से मेरे लिए लय्या का साग लेकर आयी थी । उसे आज भी मेरी एक - एक पसंद अच्छी तरह याद थी । रसोई खाना बनाने से पहले ही भाभी को बोल दिया था । सारी दाल ...भात ..... रोटी ..... लय्या की भुज्जी और भूड़े पकाने के लिए । खाते ... खाते ही माँ बोली .
- कल मेरा सिपाही भी आ जाएगा ..... चौंड़ा की शिलोंणी से तुम्हारे लिए कंडली भुजी अर अलमोडु लाऊंगी ।
- कंडली खिलावोगी उनको .... कल वैसे भी और भी तो लोग ... दूसरे दिन ले आना पिताजी ने माँ को टोकते हुए कहा ।
- क्या हुआ खाली अपने जम्नू , उसके बच्चों को और अपने सिपाही के लिए बनाउंगी बस ...... जम्नू के बच्चों को अच्छी लगेगी तो एक दिन और ले आउंगी । बच्चे तो पहली बार ही खायेंगे ना । पता नहीं उन्हें अच्छी लगेगी भी ?
- माँ तू झुन्ग्रयाल डाल कर अपने हाथ से बनायेगी और उनको अच्छी न लगे .... एसा हो ही नहीं सकता ....। मेरे तो अभी से मुंह में पानी आने लगा । लार सँभालते जम्नू ने कहा ।
- भाई । जब ले ही आयेगी तो एक कटोरी मेरे लिए भी बचा लेना । पिताजी ने भी अपनी लार संभालते हुए कहा ।
क्रमशः
भाग ५
दो दिन बाद चलने वाली पूजा की बात जो अधूरी रह गयी थी खाना खाने के बाद शुरू हो गयी । बढे भाई , जागरी जी और पुजरा जी ने भी कल आना है । उनके रहने की ब्यवस्था कैसे और कंहा होगी । वेसे तो घर काफी बड़ा था । चार कमरे ऊपर और चार कमरे नीचे । लेकिन गाँव की ब्यवस्था कुछ एसे होती है कि मकान के निचली मंजिल अर्थात भूतल जिनको ओबरा कहते हैं । केवल घर की मवेशियों और उनका घास पानी रखा जाता है । प्रथम तल पर रसोई , बैठक के अलावा सोने के तीन ही कमरे थे । एक में बड़े भाई का परिवार , एक में मेरा और एक में माँ , भाई बहिन भतीजी , पिताजी बैठक में ही सोते थे । जागरी जी के अलावा दीशा ध्याण, मामा कोट , पौड़ी से चाचा का परिवार और , और भी मेहमानों ने आना था । आपस में तय हुआ कि कौन किसके घर सोयेगा । गाँव में एसा ही होता है । कोई भी मेहमान चाहे किसी के घर भी क्यों न आये । होता है वह सारे गाँव का मेहमान ही । पुजाई के सामान की लिस्ट पिताजी पहले ही पुजारा जी से ले आये थे जो पास के ही गाँव में रहते थे । पिताजी ने अब आज्ञां दी सोने की ...
- जाओ अब तुम लोग सो जाओ ..... सुबह से सफर में हो .... थक गए होंगे ...... सुबह बहिन और .... छोटे भाई के साथ बाजार चले जाना लिस्ट लेकर ........ कंठी काका को मैंने बोल दिया है ..... अपने खच्चरों में ले आयेंगे सामान .... और हाँ भाई के साथ ही आना .... वो भी हमेशा डेढ़ बजे वाले गेट से आता है । आज रात को पंहुच गया होगा कोटद्वार । चिट्ठी आ गयी थी उसकी ...... जाओ सो जाओ .... और हाँ सुबह टाइम से उठ जाना । हम लोग सब सोने चले गए लेकिन अंगीठी के पास बैठे माँ .... पिताजी और भाभी की अभी बातें चल ही रही थी जो कुछ - कुछ उस कमरे में भी सुनाई दे रही थी जिसमे हम सोने गए । नींद इतनी जोर की आयी कि जब बहिन ने उठाया । भाई ..... भाई ...... उठो .....चाय पी लो । तब ही पता चला सुबह सुबह हो गयी ।
क्रमशः
भाग ६
कमरे का दरवाजा खुलते ही सामने पहाडी पर सूरज की पहली किरण धीरे - धीरे अपने पाँव पसार रही थी । ओंस की बूंदों पर पहली किरणे लगा जैसे एसा अदभुत द्रश्य पहली बार देख रहा हूँ । पहाड़ी का वह छोटा सा तुकडा जो दरवाजे से जैसे सटा हो और उस बिछे हों हीरे मोती । आँखे चौंधिया गयी । तभी बहिन ने पुनः बोला ...
- क्या देख रहे हो भाई वो पोड़ .... पहले कभी देखा नहीं क्या .? .... चाय पी लो ....पानी लाऊं पहले
- हाँ ...
बहिन जल्दी ही पानी लेकर आ गयी । बाहर नीमदारी में जाकर कउला करने के बाद .....बाहर ही चाय का गिलास लाकर पीने लगा । पहाड़ी पर देखा पहले पेड़ ज्यादा हो गए हैं । इस बारे में जब माँ से बात की तो माँ ने बताया
घर पंहुचते ही मिलने वालों का हुजूम घर पर लग गया । जिस दिन हम गए थे उस दिन तो इतने लोग न थे । कुछ - कुछ बड़े भाई को देख ईर्षा सी भी हुई । मन ही मन सोचने लगा मैं तो इससे पढ़ा लिखा भी ज्यादा हूँ । नौकरी भी अच्छी है । बच्चे भी अच्छी स्कूल में पढ़ रहे हैं । भाई के बच्चों को देखो यंही गाँव के स्कूल में । तब भी लोग मुझसे ज्यादा इसको ...? हमारे आने पर तो लोगों में इतना उत्साह न देखा मैंने । गाँव के जिन लोगों से मैं मिल भी न पाया था तो वह भी बढ़ चढ़ कर भाई से गले मिल रहे थे । लेकिन मुझसे बस महज एक औपचारिकता ।
- भुला तू कब आया ..... कैसे हैं तेरे बाल - बच्चे ..... ।
बस इतना ही । भाई का उत्साह देखने लायक था । एक तो आधे से ज्यादा रास्ते बेटे को कंधे पर लाया । उसके बाद भी घर में पंहुचते ही बढों के पैर छूना और छोटों के गले लगने में जरा सी भी कोताही नहीं कर रहा था । उतनी भीड़ में भाई सब से मिल रहा था । लेकिन एक बात देखकर मेरी ईर्ष्या खत्म हो गयी । अपने बिचारों को धिक्कारने लगा । कितना सब्र होता है फौजियों में । उतनी भीड़ में भी एक इंसान एसा था जिससें घंटों बीत जाने के बाद भी वह नहीं मिल पाया था । जबकि पूरे एक साल बाद घर आया था । वह थी भाभी । जो कमरे के भीतर से ही सबसे आँखे बचाकर उसको देख रही थी तथा जैसे दोनों की आँखे एक दूसरे से मिलती तब तक कोई न कोई बीच में आ जाता और एक दूसरे को बिन कुछ बोले आँखे दिशा बदल देती । सचमुच यह द्रश्य देख ह्रदय द्रवित हो उठा । भाई के साथ - साथ भाभी के त्याग के सामने नतमस्तक हो गया और खुद ही भाई से बोला -
- जा अन्दर जा कर कपडे तो बदल ले । न जाने कब से पहन रखे होंगे तूने बूट और ड्रेस .... ।
भाई जैसे इस बात के इंतजार में बैठा हो कि कोई उसे एसा कहे । माँ जी .. पिताजी .... घर के सभी जाने बाहर आँगन में ही बैठे थे । शर्दियों की गुनगुनी धूप गाँव , उसके सामने प्रहरी की तरह खड़ी बक्राकार पहाड़ी और दोनों के बीच शांत बहती नदी जिसमे लग रहा था पानी न हो , दूर से सिर्फ बड़े - बड़े पत्थर ही दिख रहे थे के सौन्दर्य में चार चाँद लगा रहे हों । जितनी देर में भाई कपडे बदल कर लौटा तक माँ ने सबको एक - एक मुठ्ठी चने .... एक एक टुकडा भेली का बाँट दिया । उस गुड और चनो के सामने खुद मुझको बर्फी बौनी लग रही थी ।
अभी सभी लोग बैठे ही थी माँ ने भाभी को आदेश दिया ।
- ऐसी ही खड़ी रहेगी ...... खाना नहीं खिलायेगी मेरे फौजी और जम्नू को ..... भूखे होंगे सुबह से ......।
- नहीं माँ अभी नहीं बे बक्त का खाना बस थोड़ी देर में खा लेंगे । दोनों एक साथ ही बोले ।
तभी गाँव के नीचे रास्ते से डौंर बजने की आवाज आ गयी जो संकेत था जागरी जी के पंहुचने का । बीरू उत्साह पूर्वक जोर से बोला ...
- पिताजी - पिताजी ..... जागरी जी और पुजारा जी आ गयी .... उनके साथ दो आदमी और हैं ..। वो देखो ।
सबकी नज़र आँगन से नीचे की तरफ पडी । देखा आँगन से सीढ़ी - नुमा आठ दस खेतों के बाद चारों आ रहे हैं ।
फिर एक भीड़ उनके स्वागत के लिए दौड़ पडी । रात को खाना - खाने तक पूरा जमघट घर में लगा रहा । खाना खाने के बाद चारों मेहमानों को मगनू ताऊ जी अपने घर ले गए । कहने को तो उनके चार बेटे हैं । घर भी बहुत बढ़ा लेकिन उस घर में रहने वाले थे तो बस वही दो प्राणी । चारों बेटों के बाल बच्चे उन्ही के साथ थे शहर में । इसलिए खवाळ में किसी के यंहा भी मेहमान आते वह अपने घर ले जाते । इससे उन का भी मन बहल जाता और मेहमान भी खुश अच्छा साफ सुथरा बिस्तर सोने को मिल जाता । बढ़ा बेटा तो बल्कि उनका बिदेश में रहता था । इस तरह सारे मेहमान जिनमे तीनों बुवायें , मामा लोग , भाभी के मायके वाले और भी बहुत सारे अपने आप गाँव में एक दुसरे के घर सोने चले गए । बड़े गाँव का क्या फायदा होता है पहली बार महसूस किया ।
क्रमशः
दुसरे दिन से लागातार दो दिन रात को देवी देवता का पूजन हुआ तीसरी रात देवी की रात थी और उसके अगले दिन पुजाई सम्पन्न हुई । पांच दिन घर में कैसे बीते कुछ पता ही नहीं चला लेकिन थकावट से पूरा बदन चूर हो गया था । सभी की विदाई के बाद सातवें दिन घर से हमारे आने का कार्यक्रम था लेकिन पुजारा जी ने हिदायत दे दी कि घर का कोई भी सदस्य पुजाई के बाद तीन दिन तक कंही बाहर नहीं जाएगा । इसलिए दो दिन और रुकने का कार्यक्रम बन गया । दूरभाष का कोई साधन था नहीं सोचा ऑफिस जाकर ही दो दिन की छुट्टी बढ़ा लूँगा ..... बच्चों के स्कूल वाले नहीं मानेगें तो मेडिकल दे देंगे । पुजाई ख़त्म होने के अगले दिन तो उठा ही नहीं गया केवल खाना खाने उठा और फिर सो गया । बच्चे चलने की जिद्द कर रहे थे ' हमें स्कूल में डांट पड़ेगी ..... हाफ इयरली एक्साम हैं ...... ' उनको सब समझा दिया अभी हम नहीं जा सकते । जब इंतना साथ दे दिया तो आखिर में ही .... जो होगा देखा जायेगा । कहकर सोचा आज गाँव का भ्रमण किया जाए । वेसे भी उस दिन से किसी के घर में नहीं जा पाया ।
माँ को बोला माँ मैं अभी आ रहा हूँ ।
- ठीक है पर जल्दी आना रोटी खाने ।
- अच्छा ...।
कहता हुआ मैं गाँव में चलते - चलते दो तीन परिवारों से मिलता हुआ आगे बढ़ रहा था । सभी चाय पीने की जिद्द कर रहे थे लेकिन मुंह चाय पी - पी कर खराब हो गया था । इसलिए सबको ही मना कर दिया । क्रमशः
- चलो बहुत हो गया आराम जल्दी चलो वरना .......।
- अभी तो हम लोग बैठे ही थे .....सुमती ने खीजते हुए बोला ।
- ऐसे ही बैठते रहोगे तो पंहुच गए घर ।
- तुम्हारे मूड का भी ..... भगवान् ही जाने .... चलो .....।
सब मुंह फुला आगे - आगे चलने लगे । मैं बार - बार पीछे मुड़कर - मुड़कर चल रहा था । याद आया वह दिन जब इसी समय अकेले घर जा रहा था । उस दिन स्कूल आते समय गेंहू का किट भी साथ लाकर चक्की पर पिसवाने रख दिया था । माँ ने सुबह ही कह दिया था । " आज तेरी बहिन को देखने के लिए कुछ लोग आ रहे हैं । घर में आटा नहीं हैं । जरूर पिसवा कर लाना । " चक्की ने भी उसी दिन ख़राब होना था । ठीक होते होते शाम हो गयी । लेकिन संतोष की बात यह थी कि आटा मिल गया । उस दिन कंठी दादा भी जल्दी घर चले गए थे । उनका कस्बे से घर जाना निर्भर करता था । खच्चरों के लिए बोझा मिलना । कभी कभी तो उन्हें खाली भी घर लौटना पड़ता । लेकिन अक्सर वह घर लौटते थे हमेशा आखिरी गाड़ी देखकर ही । उस दिन उन्हें देखा था रमती की शादी का सामान लादते । ठीक इसी जगह किट ऊपर भीड़े में रखा और उसी पत्थर पर बैठा था जिस पर अभी सुमती बैठी थी । ऊपर वाले खेत के किनारे कुछ सरसराहट सी सी सुनकर कान खड़े हो गए । जो देखा उससे तो पैरों तले की ज़मीन खिसक गयी । एक बाघ उसी तरफ आ रहा है । पहली बार किसी बाघ को इतने करीब देख एकदम ठंडा पड़ गया यूं समझो कि काटो तो खून नहीं । निर्जीव सा बाघ की तरफ देखे जा रहा था । बाघ भी शायद मुझे देख असमंजस में पड़ गया । तन्द्रा तब टूटी जब बाघ ऊपर वाले खेत से छलांग लगाकर रास्ते के नीचे खेत को पार करता हुआ न जाने कंहा गायब हो गया । हाथ पैर सुन हो चुके थे । कुछ भी तो न सूझ रहा था । तनिक मन में आया शोर मचाता हुआ भाग जाऊं । लेकिन आवाज ने तो साथ ही नहीं दिया । … नहीं ..... क्षण भर के लिए माँ की बात याद आयी मेहमानों वाली । जो किट पहले बड़ी मुश्किल से दीवार पर रखा था । अब वह फूल की तरह कब कंधे पर आ गया पता ही नहीं । कब ... कैसे .... घर तक पंहुचा अभी तक याद नहीं । अपने घर में होने का पता तब चला जब गाँव के ही जगरी ताऊ ने जोर से कंडाली की झपाग लगाई और यह कहते हुए उन्हॆ सुना कि इस पर गदेरा का भूत लग गया । अच्छा तो यह हुआ कि उस बक्त तक मेहमान न आये थे । फिर सारी बातें बिस्तार से बताई कि आज मेरे साथ क्या हुआ । माँ ने बहुत डांटा ' क्या हो जाता जो आज आटा नहीं आता ... मैं किसी से पैन्छा ले लेती ..... छोड़ देता चक्की पर ...... आ जाता घर ..... छोड़ देता वंही रास्ते में ...... आज तुझे कुछ हो जाता तो ..... ' कहते - वह रोने लगी । बड़ी मुश्किल से चुप कराया था उसे । आज भी यदि किसी ने माँ के सामने वह बात याद दिला दी तो वह रो पड़ती है ।
क्रमशः
भाग ३
हमारे आने की खबर अब गाँव तक पंहुच चुकी थी । इसलिए अबिलम्ब भाई , बहिन और गाँव के पांच - छः बच्चे आधे रास्ते में हमें लेने पंहुच गए । उनमे कुछ बच्चे ऐसे भी थे जिनको पहली बार देखा । बीरू ने ही उनसे परिचय कराया यह मंगतू दादा का बेटा है तो यह संग्तु काका का । उन्हें देख अपने भी पुराने दिन याद गए थे । कैसे हम सारे दोस्त भी किसी परदेश से आने वाले के स्वागत के लिये आते थे । सबसे आगे - आगे नमस्ते करने की होड़ होती । चाचा नमस्ते ...... मामा नमस्ते ...... ब्वाडा नमस्ते ....... । यदि किसी ने नमस्ते करते - करते गोद में उठा लिया तो समझो हम सातवें आसमान में उड़ने लगते । बदले में कुछ न कुछ खाने को मिल जाता था । समय कितना बदल गया । मैं बदल गया । लेकिन अभी गाँव नहीं बदला । मैं तो यह भी भूल गया कि इन बच्चों के लिए कुछ ...... । हमारे हाथों में जो छोटा - मोटा सामान था वह भी उन्होंने ले लिया । वह सब अपनी टूटी - फूटी हिन्दी में हमारे बच्चों से बाते कर रहे थे लेकिन दोनों बच्चे आपस में अपने ही इशारों से मानो उनसे पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रहे थे । जिसे वह नादान बच्चे समझ नहीं पा रहे थे । तब भी वह हमारे बच्चों को गाँव का सम्पूर्ण परिद्रश्य अपने - अपने अंदाज़ में बयां करने पर लगे थे ।
- वह सामने धार पर हमारा स्कूल है ...... वंहा हम लोग लकड़िया लेने जाते हैं ...... वंहा डंगर चुघाने ..... वंहा नदी में ग्ड्याल पकड़ने ...... वगैरह ... वगैरह ... । बीरू अपनी भाभी के साथ बातें करता ..... तो बहिन मेरे साथ बातें करते हम लोग अपने घर पंहुच गए । घर में हमारे आने से पहले ही मिलने वालों की भीड़ ऐसे कट्ठी हो चुकी थी मानो कोई भूत पूर्व अब भावी नेता गाँव में आ गया हो अपने चेले चान्ठो के साथ मांगने । जो चुनाव के बाद पुनः ईद का चाँद हो जायेगा ।
घर पर पंहुचते ही माँ ने सबसे पहले एक - एक कर हम सब के ऊपर चांवल परोखे सबकी भुक्की पी । नाती के तो भुक्की पी - पी कर गाल ही लाल कर दिए ।
- मेरा छोटा जम्नू ....... बिल्कुल अपने बाप की शकल का । तेरा बाप भी बचपन में बिलकुल तेरी तरह था । उससे तो तू अच्छा है ...... ये तो खुक्की दूर ..... किसी को अपने गाल भी नहीं छोने देता था ....... । अब तू मेरे साथ रसोई में चल । सबके लिए चाय बनाते हैं ।
उसके बाद नाते अनुसार सबसे मिलने का सिलसिला शुरू हुआ । किसी को हाथ जोड़कर तो किसी के पैर छूकर ।
क्रमशः
भाग ४
घर के आँगन के किनारे - किनारे दीवार पर हमारे पंहुचने से पहले दरियां बिछा दी गयी थी । गाँव के बड़े , बूढ़े, बच्चे सब हमें घेर कर बैठ गए । एक का प्रश्न खत्म होता तो दूसरा शुरू हो जाता । ताई जी कहती
- तुम्हे आते हुए मेरा लाटा मिला ... कैसे हैं उसके बाल - बच्चे ..... अब तो उसने यंहा आना ही छोड़ दिया ..... यह भी नहीं सोचता कैसे होंगे मेरे माँ बाप ......क्यों मिलना था उसने ..... वो मिलना भी चाहता तो उसकी .... वो हैं न घरवाली ..... मिलने देती तब न ..... पता नहीं किस जनम का बैर ले रही है .......। कहती - कहती मायूस हो जाती । ताई जी को कुछ समझाता उससे पहले ही नरु काका शुरू हो गए
- मैं भी तो गया था जेठ के महीने .... आँख का आपरेशन कराया ..... (आँख दिखाते हुए )..... इस आँख का .....पर क्या करूँ ...... तब से इस आँख से पानी ही आता रहता है ...... पता नहीं कैसे आँख बनाई उस डाक्टर ने ..... अन्दर लैंस भी फिट कर रखा है ..... । आँखें पोंछने के बाद कुछ कहते । कमली फूफू शुरू हो गयी । दरशल कमली फूफू की शादी गाँव में ही हो रखी थी । उनके पति को हम चाचा बोलते तो उसे फूफू । मेरे एकदम पास आयी । सिर पर हाथ फेरते बोली ।
- सब उस कुल देवता की कृपा है । बड़ा आदमी बन गया मेरा भाई ।
तभी एक प्रश्न और आया दूसरी तरफ से । बेटा कितनी छुट्टियाँ हैं ......।
- एक हफ्ते की ताऊ जी ।
- बेटा ! इस बार मेरे नाती को भी ले जाना अपने साथ ..... पहले तो अपने साथ कंही ओफीस में .... नहीं तो कंही भी चिपका देना ...... बड़ी मेहरबानी होगी तेरी ..... यंहा तो गाँव में जिन्दगी ख़राब हो रही उस बेचारे की ...। तेरे गुण मरते दम तक नहीं भूलूंगा ।
तब तक माँ और बहिन थाली में गिलासों को रख चाय ले आयी । मौका देख सोचा मै भी कपड़े बदल लूं । सुमती से ब्रीफ़केस की चावी माँगी और कपड़े बदलने लगा । कुछ ही देर में पिताजी भी अन्दर आ गए तब तक मै ब्रीफ़केस बंद कर चुका था ।
- बेटा जम्नू बाहर इतने सारे लोग बैठे हैं ...... कुछ लाया .....अपनी माँ को दे दे .... थोड़ा थोड़ा .... सबको दे देगी .... आज कितनी खुशी का दिन है .... मेरा पोता…. ....पोती .... बहू .. सब सुखसंती घर आ गए .....
- लेकिन पिताजी मै तो यह मिठाई । दुबारा ब्रीफ़केस खोलकर उसमे से मिठाई का डिबा निकालकर पिताजी को दे दिया ।
- यही है .....बस ....
-हाँ ... दरशल ......मुझे ...... समय ......
- कोई बात नहीं ......
तब तक माँ भी वंहा आ गयी । यही सोचकर कि लोगों को कुछ दे दूं ..... पिताजी ने माँ के हाथों डिब्बा देकर कहा
- जितना हो सकता है इसी में से सबको दे दो ..... एक - एक टुकड़ी .....
- लेकिन इससे तो .....
- जितना बोला उतना कर ..... अब पिताजी के स्वर में कुछ आक्रोश था । जिसे समझ मुझे बड़ी ग्लानी हुई कि कितनी जल्दी मैं भी अपने संस्कार भूल गया । माँ ने बर्फी के डिब्बे से चार टुकड़े देवता के नाम निकाल कर सबको बाँट दिया । परिवार में किसी के लिए कुछ नहीं बचा ।
क्रमशः
भाग ५
बच्चों को मिठाई का दुकड़ा मिलते ही सारे अपने - अपने घर चले गए । अँधेरा भी हो गया था जिसके कारण ठण्ड और बढ़ गयी थी । चाय पीते ही भाई बीरू अंगीठी में किन्गोड़े के जलुड़े सुलगा लाया । अंगीठी देखते ही दूर दूर बैठे सभी लोग पास - पास आ गए । अंगीठी में हाथ तपाते ताऊ जी ने बीरू को पुकारा .....
- बीरू जा एसा कर हमारे घर से हुक्का और तम्बाकू लेकर आ जा .... इन बीडियों से हमारा काम नहीं चलता .... कब से कह रहा हूँ तेरे पिताजी को घर में हुक्का - तम्बाकू रख लो ..... खुद नहीं पीते तो क्या हुआ ।
बीरू चला गया । पिताजी ने कहा
- ठीक है भाई जी वैसे भी अब दो चार दिन तो जरुरत पड़ेगी ही .... मैं लेकर आ जाऊँगा ।
- लाना क्या है उसी को रख लेना .... बस एक पिंदी तम्बाकू ले आना । इस बार मैंने बनाया भी था । लेकिन कम पड़ गया । आधी तम्बाकू की पौध तो उस मोहनु ने ख़राब कर दी थी । मकान बनाते समय ।
बीरू तम्बाकू भर ले आया । बारी - बारी सभी बातें करते - करते हुक्का गुद्गुड़ाने लगे । सुमती , भाभी के साथ रसोई में खाना बनाने लगी और दोनों बच्चे दादी के साथ रजाई में बैठ अपने दोस्तों ... और स्कूल की बातें कर रहे थे । अंगीठी में अब सारी लकडियाँ जल चुकी थी । लाल - लाल अंगारे बच गयी । धुंवा भी ख़त्म हो गया । सारे लोग धीरे - धीरे अपने - अपने घर यह कहकर चले गए कि कल सुबह आयेंगे । पिताजी अंगीठी उठा कर बैठक में ले आये । थोड़ी देर पिताजी से बातें होती रही दो - तीन दिन चलने वाली पूजा के बारे में । तभी बहिन आ गयी ।
- भाई खाना ला रही हूँ ..... हाथ धो लो ...... ।
जब तक पिताजी .... मैं ..... बच्चे ..... माँ .... धोकर आये तब तक बीरू ने दीवार से दरी लाकर बैठक में बिछा दी ..... । भाभी और सुमती रोटिंया बना रही थी और बहिन हम सबको खाना परोसने लगी । आज पूरे पांच वर्ष बाद माँ .... पिताजी और परिवार के साथ जमीन पर बैठ कर खाने में जो स्वाद आया उसका क्या कहना । कंहा शहर में चार फुल्के खाने भी भारी पड़ जाते तो गाँव गाँव में चार रोटियों का भी पता न चला । माँ अलग से मेरे लिए लय्या का साग लेकर आयी थी । उसे आज भी मेरी एक - एक पसंद अच्छी तरह याद थी । रसोई खाना बनाने से पहले ही भाभी को बोल दिया था । सारी दाल ...भात ..... रोटी ..... लय्या की भुज्जी और भूड़े पकाने के लिए । खाते ... खाते ही माँ बोली .
- कल मेरा सिपाही भी आ जाएगा ..... चौंड़ा की शिलोंणी से तुम्हारे लिए कंडली भुजी अर अलमोडु लाऊंगी ।
- कंडली खिलावोगी उनको .... कल वैसे भी और भी तो लोग ... दूसरे दिन ले आना पिताजी ने माँ को टोकते हुए कहा ।
- क्या हुआ खाली अपने जम्नू , उसके बच्चों को और अपने सिपाही के लिए बनाउंगी बस ...... जम्नू के बच्चों को अच्छी लगेगी तो एक दिन और ले आउंगी । बच्चे तो पहली बार ही खायेंगे ना । पता नहीं उन्हें अच्छी लगेगी भी ?
- माँ तू झुन्ग्रयाल डाल कर अपने हाथ से बनायेगी और उनको अच्छी न लगे .... एसा हो ही नहीं सकता ....। मेरे तो अभी से मुंह में पानी आने लगा । लार सँभालते जम्नू ने कहा ।
- भाई । जब ले ही आयेगी तो एक कटोरी मेरे लिए भी बचा लेना । पिताजी ने भी अपनी लार संभालते हुए कहा ।
क्रमशः
भाग ५
दो दिन बाद चलने वाली पूजा की बात जो अधूरी रह गयी थी खाना खाने के बाद शुरू हो गयी । बढे भाई , जागरी जी और पुजरा जी ने भी कल आना है । उनके रहने की ब्यवस्था कैसे और कंहा होगी । वेसे तो घर काफी बड़ा था । चार कमरे ऊपर और चार कमरे नीचे । लेकिन गाँव की ब्यवस्था कुछ एसे होती है कि मकान के निचली मंजिल अर्थात भूतल जिनको ओबरा कहते हैं । केवल घर की मवेशियों और उनका घास पानी रखा जाता है । प्रथम तल पर रसोई , बैठक के अलावा सोने के तीन ही कमरे थे । एक में बड़े भाई का परिवार , एक में मेरा और एक में माँ , भाई बहिन भतीजी , पिताजी बैठक में ही सोते थे । जागरी जी के अलावा दीशा ध्याण, मामा कोट , पौड़ी से चाचा का परिवार और , और भी मेहमानों ने आना था । आपस में तय हुआ कि कौन किसके घर सोयेगा । गाँव में एसा ही होता है । कोई भी मेहमान चाहे किसी के घर भी क्यों न आये । होता है वह सारे गाँव का मेहमान ही । पुजाई के सामान की लिस्ट पिताजी पहले ही पुजारा जी से ले आये थे जो पास के ही गाँव में रहते थे । पिताजी ने अब आज्ञां दी सोने की ...
- जाओ अब तुम लोग सो जाओ ..... सुबह से सफर में हो .... थक गए होंगे ...... सुबह बहिन और .... छोटे भाई के साथ बाजार चले जाना लिस्ट लेकर ........ कंठी काका को मैंने बोल दिया है ..... अपने खच्चरों में ले आयेंगे सामान .... और हाँ भाई के साथ ही आना .... वो भी हमेशा डेढ़ बजे वाले गेट से आता है । आज रात को पंहुच गया होगा कोटद्वार । चिट्ठी आ गयी थी उसकी ...... जाओ सो जाओ .... और हाँ सुबह टाइम से उठ जाना । हम लोग सब सोने चले गए लेकिन अंगीठी के पास बैठे माँ .... पिताजी और भाभी की अभी बातें चल ही रही थी जो कुछ - कुछ उस कमरे में भी सुनाई दे रही थी जिसमे हम सोने गए । नींद इतनी जोर की आयी कि जब बहिन ने उठाया । भाई ..... भाई ...... उठो .....चाय पी लो । तब ही पता चला सुबह सुबह हो गयी ।
क्रमशः
भाग ६
कमरे का दरवाजा खुलते ही सामने पहाडी पर सूरज की पहली किरण धीरे - धीरे अपने पाँव पसार रही थी । ओंस की बूंदों पर पहली किरणे लगा जैसे एसा अदभुत द्रश्य पहली बार देख रहा हूँ । पहाड़ी का वह छोटा सा तुकडा जो दरवाजे से जैसे सटा हो और उस बिछे हों हीरे मोती । आँखे चौंधिया गयी । तभी बहिन ने पुनः बोला ...
- क्या देख रहे हो भाई वो पोड़ .... पहले कभी देखा नहीं क्या .? .... चाय पी लो ....पानी लाऊं पहले
- हाँ ...
बहिन जल्दी ही पानी लेकर आ गयी । बाहर नीमदारी में जाकर कउला करने के बाद .....बाहर ही चाय का गिलास लाकर पीने लगा । पहाड़ी पर देखा पहले पेड़ ज्यादा हो गए हैं । इस बारे में जब माँ से बात की तो माँ ने बताया
- अब ज़माना बदल गया है ..... लोग पेड़ों की रखवाली अपने परिवार की तरह करने लगे हैं ..... कोई जल्दी से पेड़ नहीं काटता ..... साल में एक बार सारा गाँव जा कर केवल उन पेड़ों को टिंगारता है ..... जिससे वह और भी अच्छे हो जाते हैं .... और नए पेड़ों को उगने की जगह भी मिल जाती है । माँ ने कितनी सहजता से मेरे प्रश्न का जबाब दिया । सोचकर दंग रह गया । सोचा इस दुनिया में कैसे - कैसे लोग हैं । कई बार लगता है इस दुनिया की धुरी अटकी है तो ऐसे दया - धर्म के लोगों पर । जो पेड़ों को अपने परिवार का हिस्सा मानते हैं । यह सब सोच ही रहा था तब तक देखा पिताजी हाथ में लोटा लिए नीचे रास्ते से आ रहे हैं ..... उन्हें देख जल्दी ही लोटे की जरुरत पड़ गयी । पिताजी के पंहुचते ही उसी लोटे में पानी भर मैं भी चल दिया सुबह की वाक् पर ...।
सुबह के सभी आवश्यक कार्यों से निवर्त हो कर बाजार जाने की तैयारी शुरू हो गयी ..... हम भाई बहिन के अलावा बेटा भी जिद्द करने लगा हमारे साथ चलने की ..... । कितना मनाया दादा ने ..
- तू थक जाएगा .... सारे दिन इनके साथ ..... मेरे साथ रह घर में ..... | लेकिन वह नहीं माना और चला आया हमारे साथ बाज़ार । बाज़ार पंहुचते ही सबसे पहले पंचमु लाला यंहा पंहुच गए । सामान तोलने के बाद हिसाब लगाया और बाइस सौ पचास का बिल बना दिया । मेरे पास इतने पैसे तो थे नहीं ... । बिल जेब में रख यह कहकर आ गए कि हम अभी आते हैं .... कुछ और भी सामान देखना है अभी ...। बाज़ार में बहुत सारे जानने वाले मिल गए । एक - एक कर तीन बार चाय पी ली । अभी तीसरी तीसरी चाय पी कर उठे ही थे कि एक पुराना कोलेज का दोस्त मिल गया । उसके साथ भी बैठ कर एक चाय और पीनी पड़ी । देखते - देखते एक बज गए । जब तक मैं अपनी यारी - दोस्ती , नाते - रिश्तेदारी निभाता रहा तब तक बीरू और बहिन अपने भतीजे को सारे बाज़ार के साथ - साथ मेरा स्कूल भी घुमा लाये । कुछ ही देर में डेढ़ बजे वाली गाडी आ गयी । गाडी के रुकने से पहले ही हम सभी सड़क पर खड़े हो गए । गाडी रुकते ही खिड़की पर फौजी ड्रेस में भाई दिखाई दिया । मन गद - गद हो उठा । उनका सीट से बाहर उतरने का पल आज बहुत लंबा लग रहा था । जैसे ही वह बाहर उतरे हम सब एक - एक कर उन पर चिपक गए । ड्राईवर आराम से गाडी रोककर बैठा था । हमारे मिलने बाद कंडक्टर बस की छत पर गया और आराम - आराम से उनका सामान उतारने लगा । मैं देखकर हैरान था । यही गाडी यही ड्राईवर यही कंडक्टर उस दिन भी था और आज भी वही है । इनता बदलाव कैसे । उस दिन तो बड़ी जल्दी हो रही थी इस कंडक्टर को । लोगों को एसे बोल रहा था ..... जल्दी ....जल्दी उतरो ...। सामान उतारने के बाद बढे भाई को दोनों ने नमस्ते किया हाथ मिलाया और तब गाडी आगे बढाई । कंठी दादा अब अपने खच्चरों को लेकर आ गए । भाई ने उन्हें प्रणाम किया और वह सामान गिनने लगे । भाई का बक्सा मैंने बीरू के साथ उठाना चाहा लेकिन मुझसे से तो वो .... । भाई ने मुझे एक तरफ कर बीरू के साथ मिल झट से उसे उठाना चाहा तब तक आस - पास के दो नव युवक दुकानदार आ गए ।
- अरे ! सूबेदार साहब । हमारे होते हुए आप सामान उठाएंगे । दो ने बक्सा पकड़ा एक ने बैग और बीरू ने बिस्तरबंद और सामान पंहुच गया लाला जी की दूकान पर । लाला जी भी गद्दी छोड़ गले मिलने दौड़े चले आये । जब तक खच्चरों पर कंठी दादा सामान लादने लगे । एक बैग भाई ने बाहर ही रुकवा लिया । इसे रहने दो इसे हम खुद ले जायेंगे । अभी सामान लदा ही जा रहा था तब तक लाला जी ने हम सब के लिए चाय मंगा ली । बिस्कुट के दो पैकेट भी खोल दिए साथ में गरमा - गरम पकोड़ी भी । मेरी समझ में कुछ बात आयी नहीं । हम तो उतनी देर इसकी दूकान पर सामान तुलवाते रहे । हमें तो इसने पानी के लिए भी नहीं पूछा और भाई के आने पर .... । सारे कैसे घेर कर बैठे हैं उसे । सामान लद्ने के बाद जैसे ही हम घर चलने को हुए । भाई ने मै अभी आया वह सब भी भाई के पीछे - दूकान के भीतर चले गए । भाई ने बैग से निकाल कर उन्हें कुछ दिया । जो मुझे स्पस्ट दिखाई नहीं दिया और फटा - फट बाहर आ गया । चलते - चलते मैंने आखिर भाई से पूछ ही लिया ।
- भाई जब हम घर आते हैं तो हमें तो इस बाज़ार में कोई पूछता ही नहीं और आपके आगे पीछे तो सब ऐसे घूम रहे रहे थे जैसे .....।
- तुम नहीं समझोगे ......
तभी बीरू तपाक से बोला ।
-लेकिन मै समझ गया । मिल गयी होगी उनको फ्री की एक बोतल ....
- चुप कर ..... वह सब बाहर के थोड़े न हैं ..... दोस्त - यार हैं मेरे ...
- हाँ तो मेरे छोटे साहब कैसे लगा गाँव तुझे । बेटे को गोद में उठाते हुए ।
- अच्छा लगा ताऊ जी । ताऊ जी आप की ड्रेस बहुत अच्छी है । मुझे भी फौजी बनना है । आर्मी बहुत अच्छी लगती है ।
- सच में ..... ये हुई ना बात ...... आज तो तूने अपने ताऊ को खुश कर दिया ।
खुशी से भाई ने उसे अपने कन्धों पर उठा लिया । मना भी किया । चलने दो उसे इतना बड़ा हो गया । लेकिन वह कंहा मानने वाले । चलते - चलते उसे भी खाने को कुछ - कुछ देते रहे और हम सबको भी । गप्पें लगाते - लगाते गाँव के नजदीक पंहुच गए । वंहा वही बच्चों का झुण्ड । एक एक कर भाई को घेर कर बैठ गए । आज तो उन्हें वंही बैग से खूब खाने को मिल गया सभी बच्चे खुस होकर हल्ला मचाते हए .... कोई कहता सुबदार चाचा आ गये तो कोई सुबदार मामा .... भाई .....चाचा ..... सारे गाँव को खबर करते हम से पहले घर में पंहुच गए ।
क्रमशः
भाग ७ - अरे ! सूबेदार साहब । हमारे होते हुए आप सामान उठाएंगे । दो ने बक्सा पकड़ा एक ने बैग और बीरू ने बिस्तरबंद और सामान पंहुच गया लाला जी की दूकान पर । लाला जी भी गद्दी छोड़ गले मिलने दौड़े चले आये । जब तक खच्चरों पर कंठी दादा सामान लादने लगे । एक बैग भाई ने बाहर ही रुकवा लिया । इसे रहने दो इसे हम खुद ले जायेंगे । अभी सामान लदा ही जा रहा था तब तक लाला जी ने हम सब के लिए चाय मंगा ली । बिस्कुट के दो पैकेट भी खोल दिए साथ में गरमा - गरम पकोड़ी भी । मेरी समझ में कुछ बात आयी नहीं । हम तो उतनी देर इसकी दूकान पर सामान तुलवाते रहे । हमें तो इसने पानी के लिए भी नहीं पूछा और भाई के आने पर .... । सारे कैसे घेर कर बैठे हैं उसे । सामान लद्ने के बाद जैसे ही हम घर चलने को हुए । भाई ने मै अभी आया वह सब भी भाई के पीछे - दूकान के भीतर चले गए । भाई ने बैग से निकाल कर उन्हें कुछ दिया । जो मुझे स्पस्ट दिखाई नहीं दिया और फटा - फट बाहर आ गया । चलते - चलते मैंने आखिर भाई से पूछ ही लिया ।
- भाई जब हम घर आते हैं तो हमें तो इस बाज़ार में कोई पूछता ही नहीं और आपके आगे पीछे तो सब ऐसे घूम रहे रहे थे जैसे .....।
- तुम नहीं समझोगे ......
तभी बीरू तपाक से बोला ।
-लेकिन मै समझ गया । मिल गयी होगी उनको फ्री की एक बोतल ....
- चुप कर ..... वह सब बाहर के थोड़े न हैं ..... दोस्त - यार हैं मेरे ...
- हाँ तो मेरे छोटे साहब कैसे लगा गाँव तुझे । बेटे को गोद में उठाते हुए ।
- अच्छा लगा ताऊ जी । ताऊ जी आप की ड्रेस बहुत अच्छी है । मुझे भी फौजी बनना है । आर्मी बहुत अच्छी लगती है ।
- सच में ..... ये हुई ना बात ...... आज तो तूने अपने ताऊ को खुश कर दिया ।
खुशी से भाई ने उसे अपने कन्धों पर उठा लिया । मना भी किया । चलने दो उसे इतना बड़ा हो गया । लेकिन वह कंहा मानने वाले । चलते - चलते उसे भी खाने को कुछ - कुछ देते रहे और हम सबको भी । गप्पें लगाते - लगाते गाँव के नजदीक पंहुच गए । वंहा वही बच्चों का झुण्ड । एक एक कर भाई को घेर कर बैठ गए । आज तो उन्हें वंही बैग से खूब खाने को मिल गया सभी बच्चे खुस होकर हल्ला मचाते हए .... कोई कहता सुबदार चाचा आ गये तो कोई सुबदार मामा .... भाई .....चाचा ..... सारे गाँव को खबर करते हम से पहले घर में पंहुच गए ।
क्रमशः
घर पंहुचते ही मिलने वालों का हुजूम घर पर लग गया । जिस दिन हम गए थे उस दिन तो इतने लोग न थे । कुछ - कुछ बड़े भाई को देख ईर्षा सी भी हुई । मन ही मन सोचने लगा मैं तो इससे पढ़ा लिखा भी ज्यादा हूँ । नौकरी भी अच्छी है । बच्चे भी अच्छी स्कूल में पढ़ रहे हैं । भाई के बच्चों को देखो यंही गाँव के स्कूल में । तब भी लोग मुझसे ज्यादा इसको ...? हमारे आने पर तो लोगों में इतना उत्साह न देखा मैंने । गाँव के जिन लोगों से मैं मिल भी न पाया था तो वह भी बढ़ चढ़ कर भाई से गले मिल रहे थे । लेकिन मुझसे बस महज एक औपचारिकता ।
- भुला तू कब आया ..... कैसे हैं तेरे बाल - बच्चे ..... ।
बस इतना ही । भाई का उत्साह देखने लायक था । एक तो आधे से ज्यादा रास्ते बेटे को कंधे पर लाया । उसके बाद भी घर में पंहुचते ही बढों के पैर छूना और छोटों के गले लगने में जरा सी भी कोताही नहीं कर रहा था । उतनी भीड़ में भाई सब से मिल रहा था । लेकिन एक बात देखकर मेरी ईर्ष्या खत्म हो गयी । अपने बिचारों को धिक्कारने लगा । कितना सब्र होता है फौजियों में । उतनी भीड़ में भी एक इंसान एसा था जिससें घंटों बीत जाने के बाद भी वह नहीं मिल पाया था । जबकि पूरे एक साल बाद घर आया था । वह थी भाभी । जो कमरे के भीतर से ही सबसे आँखे बचाकर उसको देख रही थी तथा जैसे दोनों की आँखे एक दूसरे से मिलती तब तक कोई न कोई बीच में आ जाता और एक दूसरे को बिन कुछ बोले आँखे दिशा बदल देती । सचमुच यह द्रश्य देख ह्रदय द्रवित हो उठा । भाई के साथ - साथ भाभी के त्याग के सामने नतमस्तक हो गया और खुद ही भाई से बोला -
- जा अन्दर जा कर कपडे तो बदल ले । न जाने कब से पहन रखे होंगे तूने बूट और ड्रेस .... ।
भाई जैसे इस बात के इंतजार में बैठा हो कि कोई उसे एसा कहे । माँ जी .. पिताजी .... घर के सभी जाने बाहर आँगन में ही बैठे थे । शर्दियों की गुनगुनी धूप गाँव , उसके सामने प्रहरी की तरह खड़ी बक्राकार पहाड़ी और दोनों के बीच शांत बहती नदी जिसमे लग रहा था पानी न हो , दूर से सिर्फ बड़े - बड़े पत्थर ही दिख रहे थे के सौन्दर्य में चार चाँद लगा रहे हों । जितनी देर में भाई कपडे बदल कर लौटा तक माँ ने सबको एक - एक मुठ्ठी चने .... एक एक टुकडा भेली का बाँट दिया । उस गुड और चनो के सामने खुद मुझको बर्फी बौनी लग रही थी ।
अभी सभी लोग बैठे ही थी माँ ने भाभी को आदेश दिया ।
- ऐसी ही खड़ी रहेगी ...... खाना नहीं खिलायेगी मेरे फौजी और जम्नू को ..... भूखे होंगे सुबह से ......।
- नहीं माँ अभी नहीं बे बक्त का खाना बस थोड़ी देर में खा लेंगे । दोनों एक साथ ही बोले ।
तभी गाँव के नीचे रास्ते से डौंर बजने की आवाज आ गयी जो संकेत था जागरी जी के पंहुचने का । बीरू उत्साह पूर्वक जोर से बोला ...
- पिताजी - पिताजी ..... जागरी जी और पुजारा जी आ गयी .... उनके साथ दो आदमी और हैं ..। वो देखो ।
सबकी नज़र आँगन से नीचे की तरफ पडी । देखा आँगन से सीढ़ी - नुमा आठ दस खेतों के बाद चारों आ रहे हैं ।
फिर एक भीड़ उनके स्वागत के लिए दौड़ पडी । रात को खाना - खाने तक पूरा जमघट घर में लगा रहा । खाना खाने के बाद चारों मेहमानों को मगनू ताऊ जी अपने घर ले गए । कहने को तो उनके चार बेटे हैं । घर भी बहुत बढ़ा लेकिन उस घर में रहने वाले थे तो बस वही दो प्राणी । चारों बेटों के बाल बच्चे उन्ही के साथ थे शहर में । इसलिए खवाळ में किसी के यंहा भी मेहमान आते वह अपने घर ले जाते । इससे उन का भी मन बहल जाता और मेहमान भी खुश अच्छा साफ सुथरा बिस्तर सोने को मिल जाता । बढ़ा बेटा तो बल्कि उनका बिदेश में रहता था । इस तरह सारे मेहमान जिनमे तीनों बुवायें , मामा लोग , भाभी के मायके वाले और भी बहुत सारे अपने आप गाँव में एक दुसरे के घर सोने चले गए । बड़े गाँव का क्या फायदा होता है पहली बार महसूस किया ।
क्रमशः
दुसरे दिन से लागातार दो दिन रात को देवी देवता का पूजन हुआ तीसरी रात देवी की रात थी और उसके अगले दिन पुजाई सम्पन्न हुई । पांच दिन घर में कैसे बीते कुछ पता ही नहीं चला लेकिन थकावट से पूरा बदन चूर हो गया था । सभी की विदाई के बाद सातवें दिन घर से हमारे आने का कार्यक्रम था लेकिन पुजारा जी ने हिदायत दे दी कि घर का कोई भी सदस्य पुजाई के बाद तीन दिन तक कंही बाहर नहीं जाएगा । इसलिए दो दिन और रुकने का कार्यक्रम बन गया । दूरभाष का कोई साधन था नहीं सोचा ऑफिस जाकर ही दो दिन की छुट्टी बढ़ा लूँगा ..... बच्चों के स्कूल वाले नहीं मानेगें तो मेडिकल दे देंगे । पुजाई ख़त्म होने के अगले दिन तो उठा ही नहीं गया केवल खाना खाने उठा और फिर सो गया । बच्चे चलने की जिद्द कर रहे थे ' हमें स्कूल में डांट पड़ेगी ..... हाफ इयरली एक्साम हैं ...... ' उनको सब समझा दिया अभी हम नहीं जा सकते । जब इंतना साथ दे दिया तो आखिर में ही .... जो होगा देखा जायेगा । कहकर सोचा आज गाँव का भ्रमण किया जाए । वेसे भी उस दिन से किसी के घर में नहीं जा पाया ।
माँ को बोला माँ मैं अभी आ रहा हूँ ।
- ठीक है पर जल्दी आना रोटी खाने ।
- अच्छा ...।
कहता हुआ मैं गाँव में चलते - चलते दो तीन परिवारों से मिलता हुआ आगे बढ़ रहा था । सभी चाय पीने की जिद्द कर रहे थे लेकिन मुंह चाय पी - पी कर खराब हो गया था । इसलिए सबको ही मना कर दिया । क्रमशः
शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013
कविता : नींद हराम
सपनों के भंवर में
एसा उलझा
हो गयी
नींद हराम
मै क्या करूँ
मेरे राम ...... ।
बाल्यकाल के
स्वर्णिम पलों को
रखा है अभी
बड़े संजोकर
लगा न पाया
अब तक कोई
उन क्षणों के दाम
मै क्या करूँ
मेरे राम ......।
यौवन के देखे
अनेक रूप
चंचल चपला
पेट की भूख
तारतम्य के
दोनों में
हो गयी
सुबह से शाम
मै क्या करूँ
मेरे राम ......।
गाडी ...
बंगला ..
नौकर चाकर
तब भी अधूरा
सपना पाकर
अभिलाषा के
सागर में
हो गया
अब बदनाम
मै क्या करूँ
मेरे राम ...... ।
@2013 विजय मधुर
एसा उलझा
हो गयी
नींद हराम
मै क्या करूँ
मेरे राम ...... ।
बाल्यकाल के
स्वर्णिम पलों को
रखा है अभी
बड़े संजोकर
लगा न पाया
अब तक कोई
उन क्षणों के दाम
मै क्या करूँ
मेरे राम ......।
यौवन के देखे
अनेक रूप
चंचल चपला
पेट की भूख
तारतम्य के
दोनों में
हो गयी
सुबह से शाम
मै क्या करूँ
मेरे राम ......।
गाडी ...
बंगला ..
नौकर चाकर
तब भी अधूरा
सपना पाकर
अभिलाषा के
सागर में
हो गया
अब बदनाम
मै क्या करूँ
मेरे राम ...... ।
@2013 विजय मधुर
रविवार, 3 फ़रवरी 2013
कविता : जटिलता
मै गाँव का
सीधा सादा
आदमी
कविता की
भाषा .....
नहीं जानता
जो जुंवा पर
आता है
कह देता हूँ
जो सरल लगे
समझ
लेता हूँ ...
जटिलता
लगती है
मुझको ...

पहाड़
जिससे
उतरना तो
है आसान
चढ़ना
मुश्किल ।
उफनती नदी
जो अपने वेग में
बहा ले जाती है
सारे उर्वरक
छोड़ देती है
कठोर
शिलाएं ।
गाँव की
वह प्रसूता
जो .....
दाई के सहारे
प्रसव पीड़ा में
गुजार देती है
कई दिन
कई रातें ....।
सैनिक बिधवा
जिसके पास
पैसा है
मान सम्मान
बच्चों के लिए
शिक्षा नहीं ।
बिध्यार्थी
जिसके पास
गुरु है ....
ज्ञान है ....
लिकिन
साधन ......
मार्गदर्शन नहीं ।
बूढ़ी आँखें
जिनमे
अपनों के दिखाए
सपने है
लेकिन
रोशनी नहीं ।
राजपाट में
पला बढ़ा
राजा .....
जो गरीबों
के बजाय
बांटता है
रेवड़ियाँ
अपने ......
अपनों को ।
मै गाँव का
सीधा सादा
आदमी
कविता की
भाषा .....
नहीं जानता
जो जुंवा पर
आता है
कह देता हूँ
जो सरल लगे
समझ
लेता हूँ ...।
@2013 विजय मधुर
सीधा सादा
आदमी
कविता की
भाषा .....
नहीं जानता
जो जुंवा पर
आता है
कह देता हूँ
जो सरल लगे
समझ
लेता हूँ ...
जटिलता
लगती है
मुझको ...
पहाड़
जिससे
उतरना तो
है आसान
चढ़ना
मुश्किल ।
उफनती नदी
जो अपने वेग में
बहा ले जाती है
सारे उर्वरक
छोड़ देती है
कठोर
शिलाएं ।
गाँव की
वह प्रसूता
जो .....
दाई के सहारे
प्रसव पीड़ा में
गुजार देती है
कई दिन
कई रातें ....।
सैनिक बिधवा
जिसके पास
पैसा है
मान सम्मान
बच्चों के लिए
शिक्षा नहीं ।
बिध्यार्थी
जिसके पास
गुरु है ....
ज्ञान है ....
लिकिन
साधन ......
मार्गदर्शन नहीं ।
बूढ़ी आँखें
जिनमे
अपनों के दिखाए
सपने है
लेकिन
रोशनी नहीं ।
राजपाट में
पला बढ़ा
राजा .....
जो गरीबों
के बजाय
बांटता है
रेवड़ियाँ
अपने ......
अपनों को ।
मै गाँव का
सीधा सादा
आदमी
कविता की
भाषा .....
नहीं जानता
जो जुंवा पर
आता है
कह देता हूँ
जो सरल लगे
समझ
लेता हूँ ...।
@2013 विजय मधुर
सोमवार, 28 जनवरी 2013
कविता : माँ की ब्याकुलता
सीमा पर
जाते हुए
बेटों ने
माँ से कहा
माँ
हम तेरी
आन ....
बान ....
शान ....
के लिए
सर कटा सकते हैं
झुका नहीं सकते ।
माँ ने ......
अश्रुओं को
थाम
गर्व से
लगाया था
उनको छाती से
चूमा था
उनका भाल ।
माँ को दिया बचन
निभाया बेटों ने
दुश्मन की
हर कोशिश को
किया नाकाम
आज गर्व से
कहती है दुनिया
बेटे हों तो
ऐसे जावांज ।
पर उस माँ से
पूछो कोई
जिसके असंख्य
भालों में
अब भी है
हैं वो भाल
जिनको चूमे उसे
न जाने
बीत गए
कितने साल ।
ब्याकुलता से
मन ही मन
रोती है
फिर
देखती है
बाकी जनता को
जो चैन से
सोती है
और
चुनती है
अपने
दिशा निर्देशकों
नीति निर्धारकों को ।
@2013 विजय मधुर
रविवार, 27 जनवरी 2013
मंगलवार, 1 जनवरी 2013
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