शनिवार, 27 जुलाई 2019

लघु कथा-२ : सिहांसन

      आज ही तो राजन ने सपना देखा था भोर का । वह देवलोक में इंद्र के सिहांसन पर विराजमान है। दरबार सजा है । अप्सराएं घेरें खड़ी हैं । 
        पहले मां बाप को कोसने वाला 'नाम रख दिया राजन और खाक छान रहा हूँ गलियों की । भिखारी से कम नहीं ' । आज खुश था । खुशी के मारे दो-तीन बार मौका देख पत्नी ओमनी को भी सीने से लगा बैठा। ' "सोणी लाग रही हो तुम"।

ओमनी ने भी कसर नही छोड़ी--- झिड़क दिया |
" क्या हो गया ...मुंह से देशी की बास भी तो नहीं आ रही है । होश में तो आज तक कभी बोल्या नही। काम करण दे । किसी ने देख लिया तो ..।
इतने में ही आंगन के छोर से चिल्लाता पुत्तीन आ धमका । "कहाँ है राजन ! बाहर आ जल्दी। मिठाई खिला। इस बार चुनाव में असली पार्टी की ओर से जातीय और वोट बैंक समीकरण के आधार पर तेरी उम्मीदवारी पर मुहर लग चुकी है । जिताना पार्टी का काम है । सीधे शहर से आ रहा हूँ। जो इन कानों से सुना है  बता दिया । आज पंचायत में  ... कल छोटा मंत्री ... परसों अपना यार बड़ा मंत्री "। पुतीन ख़ुशी के मारे सौ रूपये का नोट राजन के सिर पर रख उसके चारों तरफ घूम-घूम कर नाचने लगा । राजन को लग रहा था जैसे वह भोर के अधूरे सपने को पंख लगते देख रहा है ।
@20१९ विजय मधुर

शनिवार, 13 जुलाई 2019

लघु कथा-१ : ठोकर


       ऑफिस बस से उतरकर जैसे ही घर की तरफ आगे बढ़ा ही था विकल्प कि अचानक ठोकर लग गयी | मुंह से अनायास ही निकल पड़ा | माँ ........| अच्छा हुआ इसी बहाने तो सही माँ की तो याद आयी ठोकर को भूलकर मन ही मन उसने कहा | अब उसके दृष्टिपटल पर वह दृश्य उभरने लगा जब वह छोटा था और एक दिन माँ के आगे–आगे चल रहा था | अचानक उसे एसे ही ठोकर लगी थी और वह गिरते–गिरते बचा | पहले तो माँ से खूब  डांट पड़ी | 
“देखकर नहीं चल सकता अभी कुछ हो जाता तो …. |” और उसके जूते मौजे निकालकर पैर की मालिस करने लगी | जबकि वह कह भी रहा था | ‘कुछ भी तो नहीं हुआ | माँ !  तू भी खाम-खां परेशान हो रही है |'
यही नहीं घर पंहुचते ही सबसे पहले गर्म पानी में नमक डाल कर उसके पैर की शिकाई करने बैठ गयी | 
अभी पिछले महीने ही गाँव के किसी व्यक्ति के मोबाइल फ़ोन से उसने फोन किया था | 
“बेटा ! अब हाथ-पैर-कमर ने जबाव दे दिया | कमरे से बाहर निकलना भी दूभर हो गया है | किसी तरह घिसटते हुए नित्यकर्म के लिए जा पा रही हूँ | दो-चार दिन के लिए बच्चों समेत गाँव आ जाता तो कितना अच्छा होता | मरने से पहले तुम सबको देख लेती | वेसे भी तुम लोगों को देखे छः-सात महीने बीत गए | हर बार की तरह इस बार भी कोई बहाना मत बना देना | 
इसी उधेड़बुन में क्या करूँ क्या न करूँ विकल्प घर में पहुँच गया | दरवाजे पर मुस्कराते हुए स्वागत करती पत्नी को खड़ी देख सारी उधेड़बुन छू मंतर हो गयी | बैठक में टेबल पर पानी, चाय-नाश्ता लगा हुआ था | माथा ठनक गया जरुर कोई बात है | विकल्प ने अभी चाय का एक ही घूँट पिया था कि पत्नी लक्ष्मी से नहीं रहा गया और बोलना आरम्भ कर दिया | 
“सुनो अगले हफ्ते मेरी माँ आ रही है बड़ी दीदी के साथ । मैं सोच रही हूँ कि उन दोनों के लिए हवाई जहाज की टिकट भेज दूं | आजकल हवाई जहाज के टिकट भारी डिस्काउंट में मिल रहे हैं | सेकंड ऐसी ट्रेन टिकट और उसमें मामूली फर्क है | बस छः हज़ार के आस-पास | वेसे भी उन लोगों ने कब हवाई जहाज में बैठना है | मैंने हवाई जहाज की दो टिकटों के लिए पड़ोस वाले टिंकू से बात कर ली है | कल उन लोगों को भेज देगा |” 
एक ही सांस में लक्ष्मी ने अपनी बात कह डाली | विकल्प के पास अब कोई विकल्प शेष न था और वह बिना कुछ कहे चुपचाप अपने कमरे में जा कर बेड पर पसर गया | जूते-मौजे निकालने और घुटने में ठोकर के कारण हो रहे दर्द को सहलाने की भी उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी | 
@२०१८ विजय मधुर 

रविवार, 7 जुलाई 2019

कविता : मेरा अक्स

जीवन दुखों का पहाड़ है
सुख ढूँढना काम है
कब तक चलना पड़े
पथरीले डगर पर
पैरों के छालों का
यहाँ क्या दाम है ?
 
दिखते हैं मकान ऊंचे
बाहर से ...
भीतर से
खिड़की दरवाजे बंद हैं
टकराती है जहरीली हवा
दीवारों से ....
पत्तियों की सरसराहट का  
यहाँ क्या काम है ?

आज कल करते-करते
जिंदगी निकल जाती है
जख्म नासूर् बन जाते हैं
ठेस मात्र से ही
पहुँच जाती है 
वेदना चरम पर ...
भला मरहम
कौन सी बला का नाम है ?

मेरा अक्स ढूड़ोंगे
उन कंदराओं
पगडंडियों में
जहाँ से पंछी भी कर चुके होंगे
पलायन ...
कर पाओंगे 
फर्क वहां
सुबह दोपहर या शाम है ?
@२०१९ विजय मधुर