गुरुवार, 11 नवंबर 2010

मौसम

खेल  का मौसम
आया  है भाई
आवो खेलें
पकड़म पकडाई |
 एक ही थाली के
चटे बटे हम
 चाहे हों ........
किसी भी पाले में
छुप सकते हैं बिल्डिंग के
किसी भी माले में |
 पूरे खेल का होगा
लाइव टेलीकास्ट
दुखड़ा अपना भूल
देखेंगे लोग
आंखे फाड़ फाड़ |
 कौन जीता 
 कौन हारा
किसने किसको मारा
सोचना काम नहीं हमारा |
 रणनीति के लिए
बीच बीच में
जो आयेंगे ब्रेक
उसमे हो सकते हैं
फिर से एक |
 खेल  का मौसम
आया  है भाई
आवो खेलें खेल
पकड़म पकडाई |
  Copyright © 2010 विजय मधुर

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

शुभ दीपावली

दीपावली - २०१०
विजय मधुर
दीप जलें
हर घर में
सितारों सी
जगमगाए धरती
मिले अनुकम्पा
माँ लक्ष्मी की
पूर्ण हो मुरादें 
हम सबकी |
                  

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

मोबाइल टावर

     एक बार शहर  के सबसे ऊंचे मोबाइल टावर में कौओं  का सेमीनार हुआ। मुद्दा था दिन व दिन विकट होती जा रही परिस्थितियों का कैसे सामना किया जाय । पहले काग देवता के नाम से हमें पूजा जाता था । रोज सुबह लोग अपनी छतों पर आदर के साथ खाने-पीने  को रख देते थे । जैसे हम काँव - कांव कर वंहा पंहुचते, चाव से खाते , हमें खाता देख वे अपने आप को धन्य मानते थे | काग देवता के दर्शन हो गए | अब तो लोंगों के पेट खुद ही इतने बड़े हो गए हैं कि उनका खुद का पेट ही नहीं भरता । जितना मिल जाय उतना ही कम । बचा खुचा कूड़ेदान में फेंकते भी हैं तो पोलीथीन के भीतर  । पोटली  खोलो तो पोलीथीन के अन्दर पोलीथीन ... रबर....प्लास्टिक ... और भी न जाने  क्या-क्या । अब तो उन पोटलियों को  छूने का भी मन नही करता । 

व्रत - त्यौहार तो लोग जैसे भूल ही गए । अच्छा खाना खीर..... घी...... पकोड़ी........ पूड़ी......... सब्जी.....। साफ सुथरे पत्तों में सजाकर .... हा ... हा ... मुंह  में पानी आ जाता है...। जाने कंहा  गए वे दिन | दिन प्रतिदिन हमारी भूख के मारे ...|  जिनकी जनसंख्या घटनी चाहिए उनकी तो दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है और हम बद्किस्मत्तों की घटती ही जा रही है | कंही एसा न हो एक दिन हम दुर्लभ प्राणियों में शामिल हो जायं | 

कई दिनों तक पानी भी नसीब नहीं होता । नहरों के ऊपर गाड़ियाँ दौड़ रही हैं । नालियाँ कबाड़ से पटी हैं । सरकारी नलों के सामने लम्बी कतारें ... एक बूँद पानी के लिए धरती  भी तरसती है । 

भूखे प्यासे पेड़ों के झुरमुट में दिल खोलकर कांव – कांव.. ...... भी नहीं कर सकते । रोज कट रहें हैं । मकान तोड़कर मंजिलें बन रही हैं । न अन्न न पानी न आबो हवा न आदर सत्कार..........जरा किसी के घर के आगे कांव – कांव..... करो तो  कुता कम वह ज्यादा खाने को दौड़ता है | 

सेमीनार का पहला चरण तो रोने धोने में ही बीत गया । बूढ़ी आँखों में निराशा ... आंसू ... उनसे थोड़ा कम उम्र वालों में उदासी ...चिंता ... नौजवानों में आक्रोश | चिंतामय वातावरण | असली मुद्दा ज्यों का त्यों | कैसे बिषम परिस्थितियों का सामना किया जाय |

मौके  के नजाकत को भांपते हुए चतुर कोवे ने प्रयोगात्मक विषय सबके सम्मुख प्रस्तुत किया | अपनी चतुराई से वह देश बिदेश के कई सेमिनारों में भागीदारी निभाकर वाहवाही लूट चुका था । बिषय पर आधारित एक साफ सुथरा घड़ा  सामने रखा गया, जिसके तले में कुछ पानी था । घड़े और पानी को देखकर सभी समझ गए | इंसानों तो अपने बच्चों को यह कहानी सुना सुनाकर हमें बेवकूफ तो बनाया ही है ... अब ये अपना भाई भी बनाने लगा है |  सभी से कहा गया पानी पीना है ...कैसे ........?

सबने कहा कौन नहीं जनता ... । विदेशी कोवों को बनाओ .. हमें नहीं | ठीक एक बार मेरा मन तो रख लो  | सभी एक साथ उड़ने को तैयार हो गए । देखो वह तो एक ही कौआ था इसलिए एक-एक कर पूरा करो । एक सयाना कौआ झटपट आगे आया... ये तो बड़ा आसान है....., मैं अभी पूरा करता हूँ इसे । ठीक है। उसने उड़ान भर ली । लेकिन काफी देर बाद वापस लौटा वह भी चोंच पर एक छोटा सा पत्थर लेकर । क्यों भई इतनी देर बाद क्यों लौटे। एसे तो तुम दस दिन में भी नहीं भर पावोगे इस घड़े को | दस दिन तक प्यासे ही रहोगे क्या ?  मैं क्या करता दूर-दूर तक कंही पत्थरों का नामो निशान ही नहीं | सूखी नदी में भी बजरी पत्थर कम ट्रेक्टर ... ट्राली .... बुलडोजर .... मजदूर ज्यादा | जहाँ देखो ईंटे  ही ईंटे .. बजरी भी छनी हुई । पसीना पोंछते वह जमीन पर बैठ गया |

 जमीन पर हताश बैठे कोवे को देख नौजवान कौआ  बाल खड़े ... दोनों पर ढीले अजीव सी चाल में आगे बढ़ा।  सभी उसको देख एक साथ हंस पड़े। क्या हुलिया है ? आजकल के बच्चे ! इन्हें क्या लेना देना हमारी परेशानियों से | घरों के आस - पास तो ये नजर भी नहीं आते | क्या कहते हैं उन्हें डोमिनो .... पिज़्ज़ा ... चाइनीज फ़ास्ट फूड ... मोमो ... और भी न जाने क्या - क्या .. के आस - पास ही मंडराते हैं | और वो भी रात के समय | कितना समझाओ इन्हें | लेकिन इनके आगे किसकी चली |  ठीक से तो चलाना आता नहीं ! ये भरेगा घड़ा | और पानी पिएगा | दूसरी छोर से एक बोला खुद ही नहीं हम सबको पिलाएगा | ऊंचे टावर में पहली बार जोर का ठह्हाका गूंजा | 

नौजवान ने इधर उधर नजर दौडाई  | कुछ ही दूरी पर उसे एक कागज़ नजर आया और वह उसे उठा लाया |  इससे पानी पिएगा.... हा....हा.......... । जरा दिखा तो दो.... क्या नुस्खा लिखा है इसमें । उसने सबको कागज़ दिखाया। जिस पर लिखा था एक  दिन में कंप्यूटर सीखें । हा... हा....हम और कंप्यूटर। आजा बेटा ! इधर आजा ! तेरे बस का कुछ नहीं । 

नौजवान ने गर्दन झटकी पानी का जायजा लिया और नीचे झुककर पानी के पास जोर से चोंच मारनी शुरू कर दी । चंद मिनटों में ही पानी हाशिल । खूब पानी पिया वह भी सबको दिखा दिखाकर । और फिर कागज की गोली बनाकर छोटे से छेद में ठूंस शान से खडा हो गया। सबकी आँखें फटी की फटी रह गयी । 

अचानक सभी को टावर में दबे क़दमों की आहट सुनाई दी | भागो.....भागो..... बिल्ली .... । सेमिनार अधूरा छोड़ कोवे अलग अलग दिशाओं में उड़ गए । दरअसल जिस टावर पर सेमीनार चल रहा था उस पर मालिक की  ज्यादतियों से तंग आकर अपने हक़ के लिए एक बिल्ली चढ़ गयी।


Copyright © 2010 विजय मधुर

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

कहानी

               मनवर                                       
 मुफ्त की रोटी तोड़ते तोड़ते शर्म नहीं आती | जब देखो खाट पर पडा रहता है बीमारों की तरह | मंगतू की संतान को देखो इससे भी चार साल छोटा , हर महीने मनी आर्डर  भेजता है अपने बाप को .... और एक यह लाटसाहब ...| कैसे किस्मत पा रखी है लोगो ने |और हमने |कहते - कहते हाथ में फावड़ा - बेलचा लेकर संतू खांसते खांसते काम पर चला गया | 
मनवर परिवारजनों के ताने सुन सुन कर तंग आ गया | आज उसने आखिर उसने ठान ली अब तो कुछ करना ही पड़ेगा | आखिर यंहा रह कर भी क्या करूंगा | पिता के काम पर जाते ही मनवर भी तैयार होने लगा |  माँ ने पूछा बेटा कंहा जा रहा है | कंही नहीं| नौगोंखाल तक जा रहा हूँ | नौगोंखाल बाजार गाँव से पांच किलोमीटर दूर | घर के रोजमर्रा के सामान व पांचवीं कक्षा पास कर छटवीं क्लास पढने के लिए हर ग्रामवासी व बच्चों को वंही जाना होता था | वंही से दूसरे बड़े शहरों के लिए भी गाड़ियाँ मिलती थी | नौगोंखाल पंहुचते ही एस.टी.डी से मनवर ने दोस्त को फ़ोन किया | किस्मत से उसका नंबर भी मिल गया | मै आ रहा हूँ आज ही | घर में किसी को कुछ नहीं बताया | बताता तो दस सवाल | कैसे जायेगा कंहा जायेगा | वंहा तेरे लिए कौन सी नौकरी रखी है | 
बस में बैठते समय गाँव का पप्पू मिल गया | उसने पूछा | भाई आज किधर ? दिल्ली जा रहा हूँ | घर में भी बता देना सबको | पंहुंचने पर फ़ोन कर दूंगा | शाम को पप्पू ने गाँव जाते ही जब यह खबर दी कि मनवर भाई दिल्ली चला गया | आज दस बजे वाली गाडी से |खबर मलते ही उसके माता - पिता सन्न रह गए |
मै कहती न थी मनवर के बापू | जवान लड़का है..... उल्टा सीधा जो मुह में आता है ..... बक देतो हो ..... पता नहीं कैसे जाएगा मेरा लाडला ...उसके पास तो खर्चा ...हे ! भगवान् | देवी माँ रक्षा करना उसकी...... कहते कहते...रोने लग गयी..|
    बस कर अब ..... तेरे ही लाड प्यार ने ही तो उसको इतना सिर चढ़ाया है | चार दिन धखे खायेगा तो अक्ल ठिकाने आ जायेगी | अक्कड़ देखो बाप तक को बताने की जरुरत नहीं समझी | मै भला मना करता | दो चार सौ कंही से उधार ले कर डाल देता उसकी जेब में | 
चलो अच्छा हुआ | अब तो शान्ति पड़ गयी होगी तुम्हे | सुबकते सुबकते शांति  चूल्हा सुलगाने लगी | क्या कर रही हो | क्या करना है रसोई बना रही तुम्हारे लिए | रहने दे मन नहीं कर रहा है | मुझ से नहीं खाया जाएगा | आंसू पोंछते हुए क्यों नहीं खाया जाएगा | भरे पूरे परिवार में हम भला भूखे  क्यों  सोवें... और आखिर तुम भी दिन भर ध्याड़ी मजदूरी करके आये हो | कनस्तर से चार कटोरी चांवल निकाल कर साफ करने लगी |
मनवर के बापू अब तो रात हो गयी |जब तक मैं खाना बनाती हूँ एक बार बार सुदामा के घर हो आओ | उन दिनों गाँव में मात्र सुदामा के ही घर में फ़ोन हुआ करता था | गाँव के हर परदेशी का फ़ोन उन्ही के घर आता था | सुदामा की पत्नी रामी इतनी भली की वंही अपने आँगन के छोर से आवाज लगती थी | फलाने की माँ .... फलाने की ब्वारी .... फलाने का फ़ोन आया है ... जल्दी आ | और दौड़े - दौड़े जा पंहुचते थे |फोन आने वाला होगा मेरे मनवर का अब तक आया होता तो रामी दीदी आवाज लगा देती | अब तक तो पंहुच गया होगा दिल्ली | हाँ अभी जाता हूँ | और वंही बैठे रहना जब तक फ़ोन आता है | कंही फ़ोन कट न जाय | ठीक है ...तुझे भी आवाज लगा दूंगा | तू भी बात कर लेना | तस्सली हो जायेगी तुझे भी | कहते - कहते हाथ में डंडा लिए संतू रास्ते पर पंहुचने के लिए अपने आँगन की संकरी सीढ़ियों से उतरने लगा | सुदामा के घर फ़ोन के पास बैठे बैठे सुदामा और संतू ने दो चिलम तमाखू ख़त्म कर दिए लेकिन मनवर का फ़ोन नहीं आया |थक हारकर संतू रात के दस बजे रामी द्वारा पकड़ाई गयी मशाल के सहारे घर तक पंहुचा | पूरी रात दोनों पति - पत्नी ने बुरे - बुरे ख्यालों के साथ बिताई | 

उन दिनों दिल्ली जाने के लिए अक्सर दो बसे बदलनी पड़ती थी | मनवर अभी पहली बस से उतरा ही था कि उसके तीन लंगोटिए मिल गए |तीनो एक साथ अरे ! साले .... मनवर तू.... पहला आज निकल ही गया आखिर तू घर से बाहर ......दूसरा बड़ी कसम खा कर बैठा था | मैं कंही नहीं जाने वाला  .... जो भी करूंगा यंही अपनी जन्म भूमि के लिए|अब कंहा गयी तेरी जन्मभूमि | बेटा वंहा कुछ करने के लिए होता तो आज इतने लाखों लोग वंहा से नौ दो ग्यारह क्यों होते |आ गयी न बात समझ | दूसरा अब वस भी कर | अच्छा किया मनवर तूने ... आखिर रखा भी क्या है वंहा | वंहा कुछ बन भी जोवो तो लोग बातें तू तड़ाक से ही करेंगे | गलती से किसी के लिए कुछ बोल दिया तो समझो .... तीनो एक दूसरे की आँखों में देखते हुए | हो जायेगी शुरू गिनिती .... पार्टी के बाद झूठी प्लेटों की तरह ...लकड़ दादा ... फकड़ दादा से | तीसरा एक हमें देखो भले होटल में नौकरी करते हैं | जूठी प्लेटें उठाते हैं .. उन्हें धोते हैं ....लेकिन गाँव जाकर तो सभी नौकर साहब करके ही बुलाते है... और एक आध अंगेजी पिला दी दो चार को तो क्या कहना | सारी साहब लोगों की पदवी मिल जाती है टिप में| वो कहते नहीं घर का भोगी .... मनवर भोगी नहीं जोगी ...हाँ हाँ ....(खिसियाते हुए ) अब तू ही बता दे | घर का जोगी जोगटा आन गांव का सिद्ध | पहला सुना है तूने बी.एस.सी. पास कर लिया है | अब भाई हम तो तुम्हे नौकरी दिला नहीं सकते| हमारी इतनी औकात नहीं | कंहा हम निक्कमे दसवीं फेल और तुम ....बी.एस.सी. पास ..... तीनो जोर-जोर से हंसने लगते है |  मनवर वेसे भी मै तुम्हारे पास नौकरी करने नहीं आया हूँ |  मुझे दिल्ली जाना है.... ...दिल्ली वो भी अभी ...बस छूट गयी तो मुश्किल हो जायेगी | पहला देखो यार कितने सालों बाद मिले हैं ... आज यंही रुक जाते तो हमें अच्छा लगता | पुरानी यादें ताज़ा हो जाती | कल सुबह सुबह चले जाना |दूसरा एक बार तेरे बापू जी ने कैसे मारा था ...याद है|
  तीनो ने मनवर को बातों में इस तरह उलझा दिया कि उसकी बस सचमुच छूट गयी | न चाह कर भी उसे उनके पास रुकना पड़ा | उनका रहन सहन देखकर उसे बड़ा अजीब सा लगा | गली में एक छोटा सा कमरा उसमे भी कोई खिड़की नहीं | कमरे के अन्दर मिली जुली अजीब सी बदबू | जमीन पर कतार में तीनो के बिस्तर उस पर भी कूड़ा करकट बीडी के टुकड़े | यंहा रहते हो तुम ...हे! भगवान् सालो कम से कम सफाई तो ...मेरे बस का नहीं रेलवे स्टेशन पर ही रह लूँगा | मनवर नाक में हाथ रख एक सांस में कह बैठा |  दूसरा अभी कर देते हैं भाई सफाई | यंहा तो किसको फुरसत रात को ग्यारह बजे आते हैं ... सुबह आठ बजे जाते हैं .... रह ले आदत डाल ले ... जंहा तू जा रहा है ना वंहा एसा भी मिल जाय तो गनीमत समझना | घाट - घाट का पानी पीया है हमने | मनवर के पास अब दूसरा कोई चारा न था सिवाय वंहा रुकने के |कैसे - कैसे कर उसने पांच सौ रूपये बचाये यह बात उसकी आत्मा ही जानते है | उस पांच सौ रूपये में दिल्ली दोस्त के घर तक भी पंहुच जाय तो गनीमत | 
उधर गाँव में मातम का सा माहौल छाया था | मनवर के घर में सुबह से चूल्हा न जला | जो भी आता एक ही प्रश्न करता कोई खबर-सार मिली मनवर की | सभी सिर्फ ना में सिर हिला देते | कुछ ना कुछ कोई कहकर चला जाता | और पढाओ लिखाओ ओलाद को | अरे इससे तो वो अनपढ़ कम पढ़े लिखे ही अच्छे हैं | अपने माँ बाप का तो ध्यान रखते हैं | उनकी भावनाओं को समझते हैं | जितने मुंह उतनी बातें सुन-सुनकर  परिवार जनों की बैचैनी बढ़ती जा रही थी | पता नहीं क्या हो गया आजकल के छोकरों को | अभी पिछले दो साल  की ही बात है | फलाने गांव का एक लड़का घर छोड़ कर भाग गया था | अभी तक कुछ भी पता नहीं चल पाया | बेचारा ज़िंदा है या ....| विम्रू का ही लड़का देखो अपने ही गांव की लड़की भगा कर ले गया | नाक कटा दी न पूरे गांव की |
 सुबह से ही पप्पू बाजार में खड़ा हर आने वाली गाडी में परिचितों से मनवर के बारे में पूछ रहा था | आखिर शाम के चार बजे वाले गेट से आये दूसरे गांव के मित्र से उसे मनवर की सलामती की खबर मिल ही गयी | उसने बताया कि मनवर को उसने रात को कोटद्वार में तीन लड़कों के साथ घूमते देखा था |जब तक गाड़ी वह गाड़ी से उसके समीप पंहुचा वह पता नहीं कंहा चला गया | मनवर की सलामती की खबर गांव तक पंहुच गयी | सबके जान पर जान आयी | पर माँ बाप को दुःख इस बात का हुआ कि आखिर उनसे इतनी क्या गलती हो गयी जो लाडले ने उन्हें बताना तो दूर खबर भेजने की भी जरुरत नहीं समझी | क्या मिला  उसे इतना पढ़ा लिखा कर इससे तो बढिया हम अनपढ़ ही ठीक थे  | माँ बाप ने कितना मारा कूटा हो कभी उनके सामने भागने की सोचना तो दूर कभी मुह तक नहीं खोला  |
चलो देवी माँ हमेशा उसे खुश रखे हर कदम पर उसका साथ दे | यही हम सब की बिनती है | सुबह से घर में चूल्हा नहीं जला था | सूमा यानी मनवर की माँ ने  चूल्हा सुलगाया चिलम में तम्बाकू के ऊपर दो अंगार रखकर मनवर के बापू के हाथ में थमाकर आंसू पोंछते हुए चाय का पानी चूल्हे में चढ़ाने लगी |गाँव वाले भी राहत की सांस लेकर एक एक कर अपने अपने घर जाने लगे | 
  उधर तीनों ने मिलकर फटाफट सारा कमरे की सफाई की | आज मनवर की कृपा से कमरे का भी उद्धार हो गया | घर जाने के लिए जो चादरें खरीदी थी बिछाई गयी | एक ने गुसलखाने में उसके लिए पानी की बाल्टी भर दी | जा मनवर फटाफट नहा ले फिर हमें भी नहाना है | जल्दी पानी चला जाएगा | मनवर जैसे ही नहाकर आया तो देखा कमरा चमक रहा था | कोनो कोनो में अगरबत्तिया जल रही थी जिससे सुगन्धित वातावरण हो गया था| अपने आप ही उसके मुह से निकल गया | ये हुई ना बात | इंसानों की तरह रहा करो जानवरों की तरह नहीं | दरअसल पहला आदमी ही उनके पास एसे आया जिसने वंहा मौजूद  गिलासों की तरफ नहीं बल्कि कमरे की तरफ ध्यान दिया | नहा धोकर चारों पुनः बाज़ार की तरफ निकल गए | गाँव में लुका छुपी से लेकर नारंगी, आम, सेव आदि की चोरी | गुली डंडा से लेकर क्रिकेट | गांव वालों की गाली से लेकर मास्टर जी मार | स्कूल में लड़कियों के साथ छेड़खानी के चक्कर में दो तीन गांवो के लड़कों में गुटबाजी लड़ाई | घर तक शिकायत | स्कूल आना जाना बंद | एक हाँ यार क्या दिन थे वे भी |वेसे भी पढ़ने का मन किसका था | माँ बाप ने भी छोटी सी गलती के लिए दे दिया धखा | जा बेटा दफा हो जा यंहा से | कौन  से ज्यादा पढ़ लिखकर तूने कलेक्टर बनना  हैं | दूसरा चलो हमने सोचा हम तो न सही हमारा ये दोस्त | पर ये भी बेचारा | ... मेरी कहानी भी कम दिलचस्प नहीं | कभी कभी रोना भी आता है और कभी कभी हंसी भी | तीसरा बहुत सुन चुके तेरी दिलचस्प ... कान पक़ गए | चलो आज लछ्मु के ढाबे में खाना खाते हैं ... वंहा बचा खुचा खाना खाकर तंग आ गए | आज अपने मित्र के साथ शान से खाना खाते हैं |
  चारों ढाबे में गए | खाने का आर्डर दिया गया | दो प्लेट चिकन करी ,दो दाल मखनी , दो प्लेट चांवल और आठ तंदूरी रोटी | कुछ ही देर में टेबल पर सारी चीजें आ गयी | उसके अतिरिक्त सलाद , पापड , आम और मिर्च का अचार | सभी ने जी भर कर खाना खाया | खूब मस्ती करके कमरे में आकर लेट गए बातें करते करते कब आँख लगी किसी को कुछ पता ही नहीं चला |तीनो ने जगाने की ड्यूटी सोंपी हुई थी गली के नुक्कड़  में तनकू ठेली वाले को | जो सुबह छ्ह बजे चाय के साथ उनको जगाता | बाबू जी | हो बाबू जी ! चाय पी लो | क्योंकि उनका ड्यूटी जाने का समय तो नियत होता था , लेकिन घर आने का नहीं | कई बार तो आठ बजे ड्यूटी की जगह नौ बजे नींद खुलती | नौकरी जाने से भी बची |तनकू भी उनसे बड़ा खुश रहता | चाय के पैसे भी नहीं लेता | शाम को होटल से आते हुए कभी कभी उसे भी कुछ ना कुछ मिल ही जाता था |
  दरअसल तनकू की कहानी भी कुछ कम दिलचस्प नहीं बचपन में ही आ गया था माँ बाप के साथ नेपाल के किसी गांव से | माँ बाप दिन भर ठेका मजूरी में ब्यस्त रहते , वह इधर उधर भटकता रहता | कभी किसी का छोटा मोटा काम भी कर लेता बदले में खाने को भी मिल जाता | माँ भी किसी और के साथ पता नहीं कब भाग गयी उसे कुछ पता ही नहीं चला | धीरे धीरे बाप ने भी उससे पला झाड लिया | लोग भी उसे पता नहीं किन किन नामो से बुलाते परन्तु उसे कभी किसी की बात का बुरा नहीं लगा | जो भी काम मिल जता उसे कर लेता था | इधर कई सालों तक वह नुकड़  वाली ठेली में काम करता रहा | ठेली वाले जगनू भी अचानक एक दिन चल बसा | जगनू के दो लडके थे परन्तु उन्होंने ठेली पर काम करना उचित नहीं समझा क्योंकि उसी ठेली के प्रताप से वह थोड़ा बहुत पढ़ लिख गए थे | इसलिए एक लाला के यंहा ढाई तीन हज़ार की नौकरी कर रहे थे| नौकरी भले छोटी थी परन्तु रहन सहन , शौक रहीश्जादों से कम न था | रहने के लिए एक ठीक ठाक मकान बाप छोड़ कर चला ही गया था | इसलिए अपनी रहीश्जादी को दोनों भाइयों ने कायम रखा और ठेली दान कर दी तनकू को | तनकू ने भी अपनी समझदारी व इमानदारी का परिचय देते हुए साल भर के भीतर दोनों भाइयों को पच्चीस पच्चीस हज़ार रूपये दे कर स्टाम्प पेपर पर दोनों भाइयों से लिखवा कर ठेली को अपने नाम करवा लिया | तबसे तनकू नौकर से मालिक बन गया परन्तु उसके सवभाव में ज़रा सा भी बदलाव नहीं आया बल्कि उसमे और गंभीरता आ गयी |
 चारों अभी गहरी नींद में सोये ही थे कि खट खट खट दरवाजा खटखटाने के साथ साथ आवाज आयी रामू .....श्यामू.....कमलू दाजू उठो चाय लाया हूँ ... जल्दी से उठो .... जल्दी से दरवाजा खोलो .... मैं अब दस तक गिनती गिनूंगा एक ......दो..... तीन...... चार ..... पांच.... तभी दरवाजा खुल जाता है | रामू आँखे मींचते हुए थोड़ी देर बाद नहीं आ सकता था कितना सुन्दर सपना देख रहा था | वो तो तुम रोज़ ही देखते हो ...मुंगेरी लाल के हसीन सपने ... | कभी सच करके भी दिखाओ तो जानू .... मैं उसके साथ पिक्चर हाल में पहला पहला प्यार देख रहा था ...मै उसके साथ तेरी ठेली पर गरम गरम समोसे खा रहा था | न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी | पता नहीं कब तक मै ही जगाता रहूँगा तुम लोगो को | श्यामू बस बस बहुत सुन ली सुबह सुबह तेरी बक बक ... जल्दी से चाय ड़ाल चार कपों में | चार ? तो अब तुम तीन से चार हो गए | हे ! भगवान् क्या होगा तुम्हारा | कमलू हमारा जो भी होगा ठीक ही होगा | तू अपनी सोच| अकेला ही मरेगा क्या ? एक तो इनकी सेवा करो ....ऊपर से सुबह सुबह इनकी कुटबाग सुनो | मै नहीं आने वाला कल से | मत आना कौन से हम आते है तेरे पास | तनकू दाई चाय पिला दे...| सच कहता हूँ कल नहीं आने वाला | तनकू भिनभिनाता हुआ चला गया | मनवर तुम लोग भी बड़े अजीव हो | एक तो बेचारा तुम्हारे लिए .... और तुम  ....| कमलू तुम नहीं जानते | हमें पता है ये भी हमारे बिना नहीं रह सकता | कहता है जिस दिन सुबह हमारे मुह से कुछ सुनता नहीं दिन ही अच्छा नहीं बीतता उसका | मनवर तो ये बात है ....| अब तुम लोग भी ड्यूटी जा रहे होंगे | मै भी चलता हूँ | बहुत अच्छा लगा तुम्हारे साथ | भगवान् ने चाहा तो जल्दी ही मिलेंगे | रामू पर तू जा कंहा रहा है | मनवर कल कहा नहीं दिल्ली जा रहा हूँ | कमलू यंही रह ले ना हमारे साथ | एसा करते हैं आज मै छुट्टी कर लेता हूँ | मनवर नहीं ...कल वेसे ही .... प्लीज ....| कमलू जैसी तेरी मर्जी |
  तीनो ने ड्यूटी जाते हुए मनवर को दिल्ली वाली बस में बिठा दिया | और चुप चाप उसकी जेब में पांच सौ रूपये ड़ाल दिए | जिसे चाह कर भी मनवर वापस न कर सका | पर बस चलते ही उनसे इतना कह दिया कि हमारे घर में खबर जरूर कर देना | मै घर से बता कर नहीं आया | उसने सोचा यदि पहले दोस्तों को यह सब बताता  तो वह पता नहीं क्या करते | और .... खैर अब जो भी सोच रहे हों ... बस आगे बढ़ने लगी तीनो ने हाथ हिला कर उसे अलबिदा किया और कहा वंहा जा कर हमें खबर जरूर कर दे ...हम घर में भी फ़ोन कर देंगे | आज पहली बार उन सबने मनवर की आँखों में आंसू देखे | जिन्हें वह चाहकर भी नहीं रोक पाया था |

उन दिनों दिल्ली में कॉमन वेल्थ गेमो की धूम मची थी | बस से उतरने के बाद व्यू मंगला पुरी के लिए कोई बस ही नहीं मिली | क्योंकि उन दिनों कई बसों को बसों को बंद कर दिया गया था | ऑटो रिक्सा वाला भी ढाई सौ से कम में नहीं मान रहा था | एक दुसरे से पूछते पूछते एक सज्जन ने कहा बेटा तुम मेट्रो रेल से क्यों नहीं जाते | पैसा भी ठीक ठीक ही लगेगा और टाइम से भी पंहुच जावोगे | वो तो ठीक है पर .... मनवर मन ही मन सोचने लगा आज तक कभी साधारण रेल में तो बैठा नहीं फिर कैसे.... इसका तो सुना है कुछ सिस्टम ही अजीव है ...चलती भी बड़ी तेज़ है..... पूरी की पूरी गाडी एयर कंडीसन .... किराया भी न जाने कितना ... न भई न ....! कंही लेने के देने न पड़ जांए | क्यों बेटा क्या सोच रहे हो अचानक उस बुजुर्ग ने ध्यान तोडा | कुछ नहीं ... कुछ नहीं ...| बेटा ! जाना तो मुझे भी उधर ही था लेकिन ....| लेकिन क्या ? मनवर ने झट से पूछा जैसे उसे कुछ मिल गया हो | बेटा दरअसल मै यंहा अपनी बहू और पोती को कोटा वाली बस में बिठाने आया था | वो तो चले गए पर जब मैं उन्हें छोड़कर सामने वाली दुकान से गुटका लेने के लिए पैसे निकालने लगा तो देखा ....जेब साफ |पता नहीं कब किस कम्बखत ने पैसे तो ज्यादा नहीं थे पर कागजात ....| अब सोचा रिपोर्ट भी क्या लिखवाऊं उसके लिए भी तो पैसे चाहिए | अब तुम मुझे भी अपने साथ ले चलो तो भगवान् तुम्हारा भला करेगा | कितना लगेगा दोनों का किराया |यही कोई पचासेक रूपये | ठीक है पर मुझे इस मेट्रो का कोई ज्ञान नहीं | उसकी चिंता तुम मुझ पर छोड़ दो | 
  दोनों कुछ ही देर में बस अड्डे के पास हीमेट्रो स्टेशन पर पंहुच 
गए और मेट्रो स्टेशन में थोड़ी देर सुस्ताने बैठ गए | क्या करूँ बेटा उम्र का तकाजा है |थक गया हूँ बस अभी चलते हैं 
थोड़ी देर में |कोई बात नहीं मुझे भी जल्दी नहीं | हाँ आप यंहा किसे छोड़ने आये थे | बहू और पोती को | कोटा गए हैं | क्या बताऊँ बेटा ! क्या ज़माना आ गया इतनी छोटी सी बच्ची को भेज दिया दूर | छोटी सी ? हाँ अभी तो मात्र पंद्रह  साल की है | दसवी पास किया है | सुना है आई आई टी की तैयारी करने गयी है | आई आई टी ...? और वो भी दसवीं के बाद ..? हाँ दसवीं के बाद सुना है बारहवीं भी साथ साथ करेगी | हमारी तो कोई सुनता नहीं | हम तो हो गए बूढ़े | नया ज़माना नयी सोच | चलो वो देखो सामने गाडी आ गयी | तुम बस मेरे साथ साथ चलना | गाडी स्टेशन पर रुक गयी | मनवर बड़ी अचरज के साथ सब कुछ देख रहा था | मेट्रो रेल के रुकते ही उसके दरवाजे अपने आप खुल गए | भीड़ का रेला डिब्बों के अन्दर से बाहर आया | और उतना ही उसमे घुस गया | देखते ही देखते उसके दरवाजे अपने आप बंद हो गए  और गाडी दोड़ने लगी | बाहर जंहा  गर्मी से बुरा हाल वंही अन्दर एक दम ठंडा | प्रत्येक स्टेशन पर उद घोषणा हो रही थी | साथ ही प्रत्येक स्टेशन की जानकारी सामने भी लिखी नज़र आ रही थी | दरवाजे खुलने और बंद होने का क्रम कई बार चलने के बाद आखिर मनवर का स्टेशन आ गया | बेटा तुम यंहा उतर जावो किसीसे पूछ लेना पता | मै अगले स्टेशन पर उतरूंगा | तेरा उधार मेरे सिर पर रहा |भगवान् तेरा भला  करेगा उसने चाहा तो ..... दुबारा मुलाक़ात अवश्य  होगी ... कहते कहते मनवर डिब्बे से बाहर चला गया और दरवाजे बंद हो गए  |
 बुजुर्ग द्वारा बताई हुई बात को अमल करते हुए मनवर भी मेट्रो से उतरी भीड़ के पीछे पीछे चल दिया | अब जैसे ही छोटे से गेट से बाहर जाने का नंबर आया तो वह चक्कर में पड़ गया | फिर याद आया जंहा से बैठे थे वंहा पर उन ताऊ जी ने एक टोकन पकडाया था | एक दूसरे को देखते हुए उसने भी वह टोकन एक छोटे से खाने में ड़ाला और गेट खुल गया | वह तो दिल्ली आने से पहले बहुत डर रहा था  जैसे कि लोगों से सुना था .... वंहा से इतनी नंबर की बस जाती है .... वंहा से उतने नंबर की ....बस में चढ़ना उतरना किसी जंग लड़ने से कम नहीं .... जल्दी से चढ़ नहीं पाए या उतर नहीं पाए तो सड़क पर धड़ाम... नाक मुह फूट जाता है .... कभी कभी तो हाथ पैर तो क्या ......जान पर भी बन आती है | परन्तु मेट्रो में तो सब कुछ तरीकेबध है | भीड़ जरूर है पर चलेगा |  देखते देखते  लोगों के साथ साथ वह भी बाहर सड़क पर पंहुच गया | इतना समझ जरूर आ गया  तभी बगल से दो लडके उसकी भाषा में बात करते हुए जा रहे थे | उस दिन अपनी बोली भाषा का इतना बड़ा महत्व समझ आया |उन दोनों ने पता ही नहीं बल्कि घर तक पंहुचाने में भी बड़ी मदद की | वो जगह बता भी देते तब भी उसके बस का नहीं था पंहुचना | एक कहता आगे से दांयी तरफ मुड़ जाना दूसरा बांयी | इस दांये बांये के चक्कर में उसी गली में चार बार घूमना पडा | खैर देर से ही सही घर तो मिल हीगया |जाते जाते दोनों अपना मोबाइल नंबर दे कर गए ,कभी किसी चीज की जरूरत पड़े तो फ़ोन कर देना बेझिझक | 
 संकरी गली| गली का नजारा भी अदभुत | दोनों तरफ देखो तो कुछ न कुछ नया ही नजर आ रहा था |  
क्रमशः .........
Copyright © 2010 विजय मधुर

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

दो क्षणिकाएं


एक

कीड़े मकोड़ों  की तरह 
रेंगते ......
मची है रेलम पेल
मेल-जोल में से  
मेल में आ गया झोल
रह गयी  सिर्फ मेल(ईमेल ) |

दो
बच्चा बच्चा नेट पर बैठा
कर रहा है चैट 
पढने के नाम से 
होता है मूड अपसेट |

Copyright © 2010 विजय मधुर

रविवार, 19 सितंबर 2010

हो गया है प्यार

किस बात का है गम
जो जागते हो रात भर
 लेते हो नाम उसका
जिसे  देखा ही नहीं |

 नाम से .........
कल्पना के सागर में
गोते लगाना
सपनों को हकीकत में ढालना
प्यार जताना
एक पहेली |

 बूझो तो जानो
खुद को पहचानो
जंहा खड़े हो
वंहा से निकलते हैं
कई रास्ते
लग गया तुका
तो हो गए पार
वरना हो जायेंगे
सपने  तार- तार |

बात पर उसकी
थोडा सा करो एतवार
अब सो जावो
जागकर.....
सोचकर बताना
 हो गया है  प्यार |
  • Copyright © 2010 विजय मधुर

शनिवार, 11 सितंबर 2010

पतंग की डोर

उमड़ घुमड़ बदरा आये 
तन ... मन ....
वन  .... उपवन हर्षाये 
खींचे  .....
पतंग की डोर 
थिरक थिरक नाचे मोर |


तोता - मैना
राजा रानी 
सभी कहानी 
हो गयी पुरानी 
अब तो नदियों ने भी 
हठ करने की ठानी  |

बनाओ बाँध 
बढ़ाओ बिजली 
बहना है स्वभाव 
रोक सको तो रोको 
पर पहले ......
उसको टोको 
जो सुरंगे बनाने 
कर रहा है तैनात
चूहों को ................ | 

कंही  यह न हो
तुम छोटी सी खुशी में 
स्नान - ध्यान कर
ढोल - नगाड़े बजाकर
चैन की नींद सो जाओ
और .......
सुबह होने पर 
तट पर बैठ टसुवे बहाओ |


आखिर ........!
खींचे कौन पतंग की डोर
थिरक थिरक नाचे मोर |
  • Copyright © 2010 विजय मधुर





nirmal संगीत

सोमवार, 6 सितंबर 2010

टिहरी झील

समुद तट
बनती बिगडती  लहरें
कूदती फांदती मछलियाँ
दूर एक नांव
अब .......
नजर नहीं आता
मेरा गाँव...... |

वही गाँव
जिसके खेतों से
चुराते थे
मटर-मसूर
ठंक्रों  से कखड़ियां
पेड़ों से
चकोतरे..... अखरोट..
आडू.....आलूबुखारे..
लाल-लाल नारंगियाँ |

दादी......माँ ....
काकी .... बोडी ...की
मोटी-मोटी गालियां
कभी-कभार  मार भी... |

घनघोर कुयेड़ी
रिमझिम बारिश
बन्जरौ में डंगर चुगाना
एक बहाना
क्योंकि इन दिनों
नहीं खेल सकते
कब्बडी... गुली डंडा...
खेल लुका छुपी |

नहीं जा सकते
नदी में ...
मारने डुबकी
पकड़ने गड्याल
जिन्हें अब
बड़ी मछलियाँ
निगल गयी. |

मकान - दुकान
खेत .. खलियान
पेड़..पौधे..
धारा.... पंदेरा..
मंदिर..श्मशान
के ऊपर अब
पर्यटकों  से भरी
नावें तैरेंगी.... |

सुनसान तट पर
जगमगायेंगे
आलीशान होटल
थढ़िया - चौंफला
झुमैलो की पैरोडी  पर
थिरकेंगी बालाएं.... |

चारों तरफ रौनक ही रौनक
मिल सकती है नौकरी
चला सकता हूँ नाव
क्या हुआ अगर
नहीं आता नजर
मेरा गाँव........... |

रविवार, 29 अगस्त 2010

हॉकी नहीं बैट(लघु कथा)

  छुट्टी का दिन बिन्दां बच्चों को बाज़ार घुमाने ले गया | बेटे टिंकू ने एक दुकान के आगे घोर डाल दी | पापा..पापा...मुझे ये ए हॉकी लेनी है | नहीं बेटा रहने दे | दूसरे दिन दिला दूंगा | परन्तु टिंकू नहीं माना  |  दुकान के फर्श  पर लम्पसार हो गया | शर्म के मारे पति-पत्नी और बेटी का मुंह लाल हो गया | पत्नी बोली कितने का भय्या | दुकानदार - सौ रूपये का | पत्नी पति से - दिला दो क्यों बाज़ार में तमाशा ....|  दुकानदार लो भाई साहब जब बच्चा इतनी जिद्द  कर रहा है तो ... मेरी तरफ से ले जावो | बिंदा ने दुकानदार का हाथ झटक लिया  और एक थपड टिंकू की गाल में रसीद कर दिया | बहुत बिगड़ गया | आस पास के अन्य ग्राहक यह देखकर दंग रह गए | कैसा बेशरम बाप है ....| टिंकू सुबकता हुआ माँ के पेरों पर लिपट दुकान से बाहर निकल आगे बढ़ने लगा

बिंदा को अच्छा नहीं लगा | टिंकू को पुचकारते हुए गोदी में उठा लिया | अभी मैं अपने टिंकू को उससे भी अच्छी चीज दिलाऊँगा | कंहा सस्ती सी हॉकी के पीछे पड़ा था  ..... वो देख ........ कितना ... बड़ा ...... पोस्टर है  ...किसका है ? टिंकू सुबकता हुआ ... सचिन का | सचिन तेंदुलकर | दुनिया का जाना - माना क्रिकेटर | मैं भी अपने बच्चे को क्रिकेटर बनाऊंगा सचिन के जैसे | अभी अपने बच्चे को बैट दिलाता हूँ .....  वो भी सचिन का  सामने दूसरी दुकान पर जाते हैं ......|  भय्या एक बढ़िया सा बैट दे दो मेरे टिंकू  को | कितने का है ? दुकानदार पांच सौ रूपये  | कुछ  कम.... ? नहीं.. नहीं...... एक पैसा कम नहीं |  ठीक है दे दो  | देखो..... कितना सुन्दर है  खूब....... चौके- छक्के मारना | ठीक हैं ना .....| हंसकर बोल दे | टिंकू सिर नीचे झुकाते  हुए बोला - ठीक है और दु कान से बाहर निकल गया | सामने आइसक्रीम बेचता एक बच्चा उसके आगे आइसक्रीम...आइसक्रीम... चिल्लाता रहा परन्तु टिंकू पर उसकी बात का कोई असर नहीं हुआ | ना ही आज  उसने आइसक्रीम खाने को कहा | 

Copyright © 2010 विजय मधुर 

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

सरलता...


गीली लकड़ी
सुलगता चूल्हा
फून्कनी से फूंकते-फूंकते
आंसुओं की धार |

पीसती चक्की
गोदी में नन्ही
पाँव हिलाकर उसे सुलाती
उड़ते आटे से सफेद बाल |

गोबर में  सने हाथ
रोता नन्हा
कोहनी से थपथपाती
पोंछती उसकी नाक |

भरी दोपहरी
पसीने में  नहाती
खेत गुडाई
गीतों की तान |

कास ......
माँ जैसी
सरलता ...
संयम ......
उधार ही मिल जाये
जीवन धन्य हो जाये

Copyright © 2010 विजय मधुर