रविवार, 14 अक्तूबर 2012

कविता : शहरवाले

मैं .....मैं .......
के आगे
किसकी चली
अभी - अभी
एक लकड़ी जली
गठ्ठर में
खुद को
समझ रही थी
कड़क
उसी से
चूल्हे की
आग गयी
भड़क ।
धीरे - धीरे
बाकी
लकड़ियाँ
भी जल गयी ।
गरीब की
रसोई
पक गयी ।

जंगलों में
अब लकड़ियाँ
ढूंढकर
नहीं मिलती ।
प्रतिबंधों ने
अपनी जगह
सड़ने
या ....



मुसाफिर
की बीड़ी से
लगी आग ने
जलने के लिए
बिबस कर दिया है
उसे ।
जबकि
शहरों में अब
नहीं लग रहे हैं आम ।
एक - एक पत्ते का
मिल रहा है दाम ।




ढूँढने से नहीं मिलते
पेड़ .....
काटने वाले ।
चौड़ी सड़कों
पटी नहरों पर
दौड़ाते हैं गाड़ियाँ
दिलवाले
शहरवाले ।
@2012 विजय मधुर

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आभार