बुधवार, 2 सितंबर 2015

शहर की हवा

       पहाडियों की गुफाओं से निकलकर जंगली कुत्तों का एक झुण्ड शहर में आ धमका | चारों तरफ अफरा – तफरी का माहौल | लोग भागे जा रहे थे | कंहा भाग रहे किसी नहीं पता | आगे कुंआ पीछे खाई | कुत्तों से कम भगदड़ से ज्यादा लोग हताहत | कुत्तों का मकसद किसी पर हमला करना नहीं बल्कि जो बोटियाँ उनके लिए डाली गयी थी उनको हासिल करना था | जंहा बोटियाँ ख़त्म वंहा से वापस | समयांतराल में बोटियों का दायरा बढ़ता गया | अब कुत्ते पहाड़ी से सट्टे शहर से बड़े शहरों की ओर कूच करने लगे | ज्यादा दौड़ – भाग करने के लिए उनकी खुराक में भी इजाफा हो गया | छोटे शहर और बड़े शहर का अंतर भी उन्हें समझ आने लगा | छोटे शहर में फेंकी गयी बोटियों के अलावा जब कभी वह दायें – बाएं  मुंह मारते तो झट से पकड़े जाते | जो उनके आका  को गंवारा न था | जबकि बड़े शहर में एसा नहीं | उनके स्वाद में परिवर्तन आने लगा | किस्मत से उन्हें बड़े शहर के समीप एक सुरक्षित  ठिकाना मिल गया  | मालिक को भी किसी तरह यह कहकर राजी कर लिया | मालिक इतने लम्बे सफर में ... आप तो जानते ही हैं वापस लौटते-लौटते हम में से आधे रह जाते हैं | रास्ते में पड़ते गाँव के लोगों के आगे एक नहीं चलती | हम भोंकते ही रह जाते हैं और उनकी लाठियां काम तमाम कर जाती हैं |  क्यों न हम यंही रह कर जिधर चाहें उधर का रूख करें | गाँव और शहरों के लोगों में बहुत फर्क है | शहर में सबको अपनी – अपनी पड़ी रहती है | एक को दौडाओ बाकी की भीड़ खुद ही दौड़ने लगती है | ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती | मालिक को भी बात जम गयी | मन ही मन सोचने लगा अच्छा है | हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा | कभी कभार इसी बहाने शहर का चक्कर लग जाया करेगा | वेसे भी एक लंबा अरसा बीत गया  बड़े शहरों के मजे लिए हुए | बार ... बार डांस .... होटल .... होटल के कमरों में परोसी जाने वाली सुविधाएं | आस – पास बफादार तो रहेंगे ही | कुत्तों को शहर के समीप रहने की इजाजत मिल गयी | जगह प्रमुख शहर से ज्यादा दूर न थी | कंटीली झाड़ियाँ इतनी  घनी कि इंसान तो क्या उनकी विरादरी का भी उधर नहीं फटकता | अब दिन भर वह  झाड़ियों के बीच टांगें पसार कर सोते और शाम होते ही अलग अलग दल बना कर निकल पड़ते शहर की ओर | एक आध बार उनका सामना शहरी गली मोहल्ले के कुत्तों से जरूर हुआ लेकिन उन मरियल , कूड़ेदान के सहारे जिन्दा रहने वालों के बेताकत दांतों का उन पर कोई असर नहीं हुआ | जबकि शहर के कुत्तों के साथ एसा न हुआ | जिसकी गर्दन एक बार उनके जबड़े में आ गयी वह दुबारा उठने लायक नहीं  बचा | धीरे – धीरे शहर के सभी आवारा कुत्तों ने उनके आगे घुटने टेक दिए  | जैसे ही  रात के सन्नाटे में जंगली कुत्तों का झुण्ड शहर में  दाखिल होता | शहरी कुत्ते  कूं ...कूं .... कर इधर उधर दुबक जाते और जो दुबक न पाते वह उनके आगे दुम हिलाने लगते | अब यह जंगली कुत्तों की इच्छा पर निर्भर करता उनके साथ क्या करें | मालिक को फक्र होने लगा अब उसके कुत्तों ने छोटी – छोटी गुफाओं और उसके आस – पास कस्बों से निकल प्रमुख शहर में अपना अड्डा बना लिया है | शहर में प्रविष्ट होने की इच्छा बलवती होने लगी | किसी तरह शहर आने का संदेशा कुत्तों तक पंहुचाया गया | कुत्तों ने दिन – रात एक कर मालिक की अगववाई की और साया बन उसके इर्द – गिर्द रहे | बफादारी साबित की | मालिक खुश हुआ | खुशी में कुछ पाबंदियां जो उन पर लगी थी उन्हें हटाया गया | अब आये दिन उनका मालिक आता और अपने जैसों के संग होटलों में मीटिंगे करता और आगे की योजानाओं पर कार्य करता | पाबंदियां हटने से कुत्तों की तादाद बढ़ने लगी | लेकिन उनके मध्य आपसी कलेश भी होने लगा | यंहा तक कि कुछ तो झाड़ियों से लिकल कर शहर की पुलियों या पाइपों के भीतर बसने में ही अपना भला समझने लगे | झाड़ियों में एक शिकार उसके लिए भी छीना झपटी इससे तो अच्छे ही हैं ये कूड़ेदान | बस यंहा उनको कुछ इंसानों से जरूर दिक्कत होती जो उसमे से अच्छा-अच्छा टटोल कर खा जाते | शहर की हवा | चाहे कूड़ेदान ही सही है तो शहर | झाड़ियों में छुपते फिरो | कई – कई रोज तक खाना नसीब नहीं | यंहा तो मजे से खाओ – पियो सड़क ... पार्क ... कंही भी चौड़े हो कर सोवो | कोई कुछ बोलने वाला नहीं | यंहा इंसान पर तो पाबंदियां जरूर हैं पर कुत्तों पर नहीं | तड़फते इंसान को भले ही कोई पानी न पिलाये लेकिन कुत्तों के साथ एसा नहीं | भले लोग... मन से सेवादारी करते हैं | आदर के साथ दूध पिलाते हैं | बिस्कुट खिलाते हैं | मालिक को यह बात पता चल गयी कि अब उसके कुत्ते आपस में कटने – मरने लगे हैं और उसके उदेश्य से दूर होने लगे हैं | संख्या बढ़ना अच्छी बात है लेकिन मकसद से भटकना बर्दास्त नहीं | सबके लिए आदेश पारित हुआ अबिलम्ब वापस लौटने का | माया मोह और जोखिम रहित जीवन | उनमे से एक भी वापस नहीं लौटा | बहाना शहरों की सीमाओं पर चौकसी | यह बात मालिक को हज्म नहीं हुई | आग बबूला हो उठा | किसी तरह संयम बरता | रणनीति में फेर बदल | वापस लौटने के बजाय वंही  झाड़ियों से पटे जंगल में बैठक का आयोजन किया गया | सभी को आश्वस्त किया गया | घबराने की आवश्कता नहीं | मालिक सुख दुःख में सदैव उनके साथ हैं  | लेकिन कार्य को अंजाम देना ही होगा | नाकामयाब को कड़ी सजा | मुखिया का लचीला रुख समझ अधिकतर बैठक में शामिल हो हो गए | जिनको रणनीति पर शक हुआ वह नहीं पंहुचे | पुलियों के भीतर दुबके रहने में ही उन्होंने अपनी व बच्चों की भलाई समझी | शक निरर्थक नहीं होता | एक दो  दिन बाद जब वह सूंघते – सूंघते झाड़ियों के समीप पंहुचे तो वंहा सन्नाटा पसरा था | दूर खाली जगह में अस्थि पंजरों के समीप चीलें एक दूसरे को खदेड़ने के लिए आक्रामक रूप धारण किये हुए थी | 
@२०१५ विजय मधुर 

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

स्मरण : पिता स्व. झब्बन लाल ‘विद्यावाचस्पति’

    पिता स्व. झब्बन लाल ‘विद्यावाचस्पति’ की पुण्य तिथि १४ अगस्त | शायद ही कोई दिन एसा होगा जब आपका  स्मरण नहीं होता | परिवार रिश्तेदार ही नहीं समस्त चिर परिचित एवं प्रबुद्ध जन आपको  याद करते रहते हैं | अभी एक सप्ताह पूर्व प्रसिद्ध पत्रकार एवं साहित्यकार श्री चारु चन्द्र चंदोला जी से उन्ही के निवास पर भेंट हुई | जैसे ही उन्हें स्मृति ग्रन्थ की प्रति भेंट की तो पुस्तक के आवरण को देखते ही मुझसे नाराज हुए | गलती मेरी थी | पुस्तक प्रकाशन से पूर्व उनसे संपर्क नही हो पाया | पुस्तक के कुछ पन्ने टटोलने के बाद पौड़ी में आपके संग व्यतीत प्रसंग सुनाते चले गए जैसे स्कूलों में हिंदी भाषा में पाठ्यक्रम को सुदृढ़ बनाना |  तत्कालीन राजनेताओं से निडरता पूर्वक ठोस बातचीत | तत्कालीन कई राजनेताओं पर उनकी सीधी टिप्पणी | ऐसे ही कई प्रसंग बार – बार दोहराए जाते हैं | आपका आशीर्वाद सदैव बना रहे इसी अभिलाषा के साथ सादर स्मरण एवं शत-शत नमन |

14-08-2013
मौसम की तरह
जीवन में
सुख दुःख
आते जाते हैं
कौन 
हंसाता 
चला जाय
कौन रुलाता
आँखे नम
मन के 
भावों की
थाह नहीं ..
चलना है
बढ़ना है
मंजिल की ओर
अंधियारे के बादल
छंटते हैं
होती है भोर |
 @२०१५ विजय मधुर 

गुरुवार, 6 अगस्त 2015

कविता : जिंदगी

एक ख़ामोशी के पश्चात
दौड़ने लगी हैं जिंदगी
फिर से सड़कों पर
भीड़ पहले से ज्यादा |
हादसे का बोझ
सिर पर  लादकर
वह जिंदगियां भी  
सरकने लगी हैं ..
जिनकी  छत
ढही है  अभी – अभी |
बड़ा शहर
बड़ी बातें
चलती का नाम गाड़ी
सब्रदार है यंहा
नया ......या
अनाड़ी |
संतों की
आलीशान
कुटिया यंहा
देते उपदेश
पढ़ाते पाठ
धैर्य – धारण में
सोलह दूनी आठ |
जीना मरना
कहते हैं
उसके हाथ में
चुरा ली है
शक्ति उससे भी
शैतानों  ने ....
बातों ही बात में |

@२०१५ विजय मधुर 

शनिवार, 1 अगस्त 2015

कविता : गहरी नींद


सोते सोते 
सो गए 
कभी न जागने वाले 
रोते रोते 
जम गए आंसू 

जागने वालों के
नाम क्या दें इसे
कुदरत का कहर
या ....
उनकी ....
गहरी नींद
जो खुलती है
हादसों के बाद |

@२०१५ विजय मधुर

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

कविता : देवभूमि

बसता है 
जंहा मन मेरा 
चिड़ियों की चहचहाट 
बताती है 
हो गया सवेरा ... |

सूरज की पहली किरण 
करती है नमन 
चांदी की तरह 
चमचमाती 
खिलखिलाती 
जल धारा की 
यात्रा का 
होता है आरम्भ | 

देवी देवता 
करते हैं अवलोकन 
और ...
उनके चरणों में 
समर्पित पुष्प 
सुगन्धित कर रहें हैं 
विश्व का वातावरण |

नमन करता हूँ 
मन तुझको 
तू अब भी
कम से कम 
विचरता है वंहा 
जंहा हैं वे लोग 
जो जिन्दा रखे हैं 
अपनी संस्कृति.... 
धरोहर ....
परम्परा ...को |

@२०१५ विजय मधुर

शनिवार, 28 मार्च 2015

कविता : नकाब

नकाबों  का बाजार गर्म है
बिक रहें हैं खूब
फुटपाथों से लेकर
वातानकूलित
बड़ी – बड़ी दुकानों पर |

ग्राहकों को
कद काठी के अनुरूप
मिल रही है
होली दीवाली
हर मौसम में 
आकर्षक छूट |

कतार में हैं नामी
जैसी कमाई
वेसे विज्ञापन
पहनो नकाब - बनों नवाब  
छूट का लाभ उठाओ
पूरा कुनवा इसे भुनाओ
पीढ़ी दर पीढ़ी खूब चलाओ |

@२०१५ विजय मधुर

 

 

 

 

 

 

रविवार, 1 मार्च 2015

स्मरण पिता स्व. झब्बन लाल विध्यावाचस्पति

      जीवन की गहराईयों को समझना कितना मुश्किल है | छोटा सा कार्य सम्पादित कर लेने से लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो जाती | लक्ष्य निर्धारण एवं उसकी पूर्ति की  कोई तय उम्र या सीमा नहीं होती | जीवन के उतार चढ़ाव इसके मानक तो परिस्थितियां भी किसी हद तक इसके लिए जिम्मेदार होती हैं | पिछले वर्ष १ मार्च २०१४, आज के ही दिन अपने पूज्य पिता स्व. झब्बन लाल विध्यावाचस्पति के जीवन मूल्यों का अपने विवेकानुसार पुस्तक “प्रसिद्ध समाजसेवी, शिक्षाविद एवं साहित्यकार - स्व. झब्बन लाल विध्यावाचस्पति”  के लोकार्पण के रूप में संपन्न किया | ३०० पृष्ठों की यह पुस्तक स्व. पिता के परिचितों एवं समाज से जुड़े बुद्धिजीवियों द्वारा बहुत सराही गयी | पुस्तक की एक प्रति माननीय मुख्यमंत्री, उत्तराखंड सरकार  – श्री हरीश रावत जी को इस आशय के साथ भेंट की गयी कि वह उस समाजसेवी,  जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ही समाज के लिए समर्पित कर दिया हो के आदर्शों को समझने – जानने और प्रेरणा स्वरुप नव पीढ़ी के लिए उत्तराखंड सरकार के माध्यम से विभिन्न स्कूल कालेजों के पुस्तकालयों के लिए अग्रसारित करें तो यह उस कर्मठ सामाजसेवी, शिक्षाविद, पत्रकार , साहित्यकार के लिए सच्ची श्रधांजलि होगी | लेकिन यह अभी तक संभव नहीं हो पाया |
      अत्यधिक व्यस्तता इंसान को दिशाहीन बना देती हैं | पुस्तक लोकार्पण के पश्चात दिल्ली आना पड़ा |देहरादून की  सुंदर वादियों से दिन रात के शोरगुल के मध्य एक वर्ष बीतने को आ गया | सामाजिक साहित्यिक गतिविधियां मन के भीतर कंही दब सी गयी हैं | लेखनी भी लगता है भीड़ का हिस्सा बन गयी | 
         किन शब्दों में स्मरण करूँ उस पुण्य आत्मा को उनके जन्मदिवस के अवसर पर | कैसे स्मरण करूँ उन सुदृढ़ हाथों को जिन्होंने  नन्ही सी उँगलियों को थाम मंजिल तक पंहुचाया | जीवन पर्यन्त सामाजिक  विसंगतियों के लिए निर्भीक बुलंद तर्क संगत टिप्पणी करती वह वाणी जिसके अनेक रूप देखने को मिलते थे | घर परिवार के लिए स्नेह जिनके मन में कूट – कूट कर भरा था | भावुकता इतनी कि किसी भी गाँव की  रोती हुई ससुराल जाती बेटी को देख लेते तो उनके आंसू रुकने का नाम ही नहीं लेते थे | 
         २३ जनवरी १९८८ उनकी ही डायरी में दर्ज एक कविता से पिता स्व. झब्बन लाल विध्यावाचस्पति का सादर स्मरण |
    मुझे बिकने दो अब मेरा क्या काम
    मिली अंक मसी तन छेद दिया
    मन भाव छिपे सब लेख लिया
    पढ़ पाठ लिया परिणाम मिला
    मुझ फ़ेंक परे नहीं मान रहा
    पाती फाड़ फ़ेंक रद्दी टुकिया
    या धूल शूल में जलने दे
    पढ़े मूल मन्त्र जो मन में हैं
    मेरी याद उसी में रहने दे
    अब नयन नेह तज त्याग मेरा
    पुनि पुण्य पाप का जाप जगा
    रख रद्दी की गड्डी बिकने दे
    हो पुनर्जन्म पाती लिख दे |
@२०१५ विजय मधुर