सोमवार, 31 दिसंबर 2012

कवितायेँ : पांच प्रश्न

एक :
            जुर्म .....
            चोरी करना या
            फंसाना
            हत्या या
            साजिश
            झूठ या
            झूठी दलीलें
            जुर्म क्या है ?
            समझ से परे !

दो :
         सुनवाई .........
         जुर्म नहीं
         बल्कि
         पीडित  या
         पीड़िता के कदानुसार
          सुनवाई क्या है ?
          हैशियत !

तीन :
        कानूनी धारा ....
        पानी की तरह
        बहती है सिर्फ
        ऊपर से नीचे
        बनाया जा सकता है
        उन पर बाँध
        मोड़ा जा सकता है
        उनका रुख
        कंही भी
        कभी भी
        क़ानून क्या है ?
        आँखों पर पट्टी !

चार :
         जमानत .....
          मिनटों ..
          घंटों .....
          दिनों .....
          सप्ताह ...
          महीनों .....
          वर्षों ....
          कभी नहीं
          या
          पहले ही
          जमानत क्या है ?
          अमानत का हिसाब !

पांच :
          सजा ....
          सश्रम
          कठोर
          आजीवन
          फांसी  या
          सुविधा सम्पन्न
          सजा क्या है ?
          कारावास !
          
@2012 विजय मधुर
         


         



 

रविवार, 30 दिसंबर 2012

कविता - जिन्दा पिशाच

बचपन में
भूत का डर
बताकर
माँ बुला लेती थी
घर में
सांझ ढलते ही ।

मन में भूत का डर
इस कदर कर गया घर
कि लघुशंका के लिए भी जाते
तो माँ की उंगली पकड़कर ।

जब आ गए शहर
तो देखा कंही
अँधेरा ही नहीं
सुनसान सड़क पर भी
दमक रही है रोशनी
तो भूत का डर
भाग गया
और मै
डरपोक से
निडर बन गया ।

निडरता की देन से
शराबियों से पिटा
सिरफिरों से लुटा
बेलगाम गाड़ियों से ठुका
लेकिन अक्ल न आना
थी मजबूरी
फैक्ट्री और घर में थी
अमीरी - गरीबी सी दूरी ।

समझ आ गया
यह वह  गाँव नहीं
जन्हा माँ के हाथों
चुटकी भर  बभूत
या दादू की
रखवाली से
भाग जाता था
अद्रश्य भूत ।

यंहा शहर में तो
जिन्दा  पिशाचों  की
है बहुत बड़ी जमात
जो बिचरती है दिन रात
किसी को भी बना लेती हैं
बसों - ट्रेनों - घरों - भरे बाज़ार
चौराहों पर अपना शिकार ।

लगता है
सरंक्षण के संग संग
है इनसे किसी की
कुटिल  करार
तभी तो तांत्रिक 
सौ में से एक को
बस   कर पाते हैं
बाकी  निनान्ब्बे फरार ।









@2012 विजय मधुर







 

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

कहानी - चाँद की सैर

       गाँव से कुछ हठकर लाल मीट्टी से पुता दो कमरों का  घर । आँगन से सटा बड़ा घना पेड़ । ऊपर वाली घनी टहनी पर  चिड़िया के घोसले से छोटे - छोटे चिड़िया के बच्चों की चूं - चूं काफी देर से जंगू मंगू सुन रहे थे । अँधेरा होने के कारण उन्हें दिखाई कुछ नहीं दे रहा था । लेकिन इंतना तो वह समझ ही गए थे कि इस बक्त उनकी माँ उनके पास लौटी है इसलिए अपनी खुशी का इज़हार कर रहे हैं । क्योंकि दिन के समय उनकी चूं - चूं केवल उसी समय होती जब उनकी माँ उन्हें कुछ खिलाती । माँ के जाते ही वे चुप हो जाते । अभी दोनों पेड़ की तरफ देख मन गढ़ंत कहानिया बुन ही रहे थे कि एक टूटते तारे ने दोनों का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया ।
- वो देख मंगू एक तारा टूटा ........
जंगू ने कौतूहल वस कहा ....
- हां वो ....रहा .....वो ........ जरूर जमनु के घर के पास गिरा होगा ....।
मंगू कुछ दूर आँगन में दौड़ता हुआ ठिठका । उसकी आगे भी दौड़ने की इच्छा हुई लेकिन अँधेरा होने के कारण वंही ठहर गया ।
- सुबह जा कर ढूँढ़ते हैं .......। मंगू पता है कल मुझे एक सपना आया था ।
- क्या
- मैं चाँद पर बैठा आसमान की सैर कर रहा हूँ । देख ....सारे तारे मुझे बिलकुल ऐसे ही नज़र आ रहे थे ।
- अच्छा लेकिन अभी तो चाँद तो आया ही नहीं ।
- लेकिन मेरे सपने में था । चंदा मामा मुझे घुमाने के साथ - साथ सारे तारों से भी मिलवा रहे थे । तारे भी न जाने कितने सारे थे छोटे ..... बढे। ...... अलग - अलग आकार के ।
- फिर आगे .....
- आगे क्या माँ ने मुझे जगा दिया ..... उठ जंगू स्कूल नहीं जाना ।
कहते - कहते जंगू कुछ उदास सा हो गया । तभी मंगू को एक बात सूझी क्यों न दोनों आज तारे गिने करीब एक घंटे से दोनों अपनी छोटी - छोटी उँगलियों में सौ तक तारे गिनते और मिट्टी पुती घर की दीवार पर कोयले से एक - एक लकीर खींच देते । माँ घर के जरूरी काम निपटाने के बाद देहरी पर छोटी सी चिमनी की रोशनी में साग बिराने के साथ - साथ दोनों भाइयों के बचपने को देख मन ही मन मुस्कराने लगी । साग को बिराने , धोने और चूल्हे पर चढाने के बाद वह उनके पास आयी ।
- क्या कर रहे हो तुम दोनों ....
दोनो ने एक साथ माँ की ओर मुढ़कर तर्जनी ओंठो पर लगा दी । माँ बात समझ गयी । जैसे ही दोनों ने फिर से एक - एक लकीर दीवार पर खींची । माँ ने फिर अपनी बात दोहराई ..
- कर क्या रहे हो आखिर तुम दोनों ।
दोनों एक साथ बोले
- हम दोनों तारे गिन रहे हैं ।
माँ मन ही मन मुस्कराई
- तो गिन लिए ।
- नहीं अभी नहीं .।
अब माँ ने दोनों को डपट कर
- तो रात भर तारे ही गिनते रहोगे ? ठण्ड हो गयी । पढ़ोगे - लिखोगे नहीं ?
अब दोनों समझ गए ।
बस अभी आये ....
और दोनों ने कमरे में आकर लालटेन की रोशनी में अपनी किताबे निकाल दी । रसोई से माँ की आवाज आती है ....
- जोर - जोर से पढ़ो मुझ तक आवाज़ आनी चाहिए ।
जंगू ने पढने की शुरुआत एक कविता से की ....
- हठ कर बैठा चाँद एक दिन माता से यह बोला शिलवा दो माँ मुझे उन का मोटा एक झिंगोला ......
जंगू की कविता खत्म हुई तो मंगू के पहाड़े आरम्भ हो गए ।
- चार इकम चार .... चार दूनी आठ ..... चार तिन्या बारह .....चार चकु सोलह ......चार .......
जैसे ही मंगू के पहाड़े ख़त्म हुए । जंगू ने मंगू से कहा ......
- तूने कितने तारे गिने ....
- मैंने पच्चीस सौ .....
- और तूने ।
मंगू ने बढ़े गर्व से कहा । वेसे तो मंगू जंगू से उम्र में एक साल छोटा था । कक्षा का अंतर भी दोनों में एक कक्षा का ही था । लेकिन छोटे यानी मंगू को स्कूल से लेकर घर गांव तक सभी होशियार समझते थे । इसलिए मंगू को लगा कि आज भी अवश्य उसने अपने बढ़े भाई से ज्यादा ही तारे गिने होंगे । जंगू अभी भी अपनी कापी में पेन्सिल से कुछ लिख रहा था । मंगू दुबारा बोला ...
- बताता क्यों नहीं ।
अंगूठा और जीभ फटा - फट दांये - बांये घुमाता हुआ ....
- जरूर मुझ से कम ही गिने होंगे .... इसीलिये नहीं बता रहा .... हार गया ...हार गया ....
- एसा नहीं ..... तेरे से जादा ही गिने हैं .....। तू ज्यादा ही समझता है अपने आप को .... दूंगा अभी एक घुमा के .....
अब मंगू कुछ ढीला पढ़ गया लेकिन रिजल्ट जानने की इच्छा उसकी गयी नहीं ।
- कितने गिने ....
- बत्तीस सौ .....
- बत्तीस सौ ..... ! हो ही नहीं सकता ................
- तूझे गिनती कितने तक आती है ......
- क्यों ..... तेरे से बढ़ा हूँ ..... तेरे से ज्यादा आती हैं ..... समझे .... बढ़ा बन रहा था । हार गया .... हार गया .... अब बता कौन हारा ....... हूँ .....हूँ ......... ।
जंगू मुंह पिचकाकर कर मंगू को चिढाने लगा ..। मंगू उसकी तरफ मारने दौड़ा लेकिन उससे दो कदम पहले ही ठिठक कर रह गया । वो जानता था कि यदि उसने एक मुक्का मारा तो वह दो मारेगा । आज तक लडाई में कभी उससे जीत नहीं पाया ।
तिलमिलाता हुआ पैर पटक अपना आखरी हत्थियार अपनाने लगा । क्योकि जब भी वह जंगू से जीत नहीं पाता माँ के सामने जाकर रोने लगता । उसने मुझे मारा । माँ जंगू के दो चार थप्पड़ जड़ देती । और कहती 'जानता नहीं तेरे से छोटा है .... । तब भी मारता है भाई को '। और मंगू खुश जबकि माँ उसकी करतूत नहीं देखती । पहले छेड़ भी तो वही लेता । आज भी जंगू को लगा कि अब जरूर पड़ेगी मार । लेकिन आज एसा नहीं हुआ माँ ने दोनों को देख लिया था । और आते जाते दोनों की बाते भी सुन ली थी । जैसे ही मंगू माँ के पास रोते - रोते गया ..
- क्या हो गया बेटा ! भाई ने मारा ......
- नहीं ....
- डांटा नहीं ......
- फिर क्या हुआ .....
- उसने मेरे साथ गड़बड़ की ।
- क्या गड़बड़ .....
- तारे गिनने में .....।
- कैसे .... तूने उसे गड़बड़ करते देखा .....
-नहीं ......। पहला दरवाजे के ओट में खड़ा सब सुन रहा था ।
- फिर तुझे कैसे पता कि उसने गड़बड़ की ....
- एसे ही .....
- कैसे ऐसे ही ....
- मै उससे होशियार जो हूँ ...... सभी कहते हैं ...... ।
- अच्छा तो यह बात है ..... चलो पहले दोनों भाई रोटी खा लो ....बाद में पता करते हैं .... जा भाई को बुला ला ।
यह बात सुनते ही जंगू दरवाजे की ओट से कमरे में वापस चला गया और किताब मुह पर लगा कर अनजान सा बन गया । मंगू ने उसकी किताब झटक कर खाट पर रख दी ।
- चल माँ बुला रही है ..... ... (थोड़ा मुंह बनाकर ) रोटी खाने ....
माँ ने दोनों भाइयों को रोटी और साग परोश दिया । दोनों ने पेट भर खाना खाया और उठने लगे । माँ ने पहले से कहा ......
- क्यों तुमने भाई के साथ .....
- नहीं माँ कसम से ..... आप ही गिन लो । और वह दूसरे कमरे से लालटेन उठा लाया । और माँ और मंगू को अपने साथ बाहर दीवार के पास ले आया । माँ एक - एक कर दोनों के द्वारा खींची लकीरों पर उंगली रखती रही और दोनों एक दूसरे की लकीरों की गिनती करने लगे । दोनों द्वारा लिखी संख्या सही पायी गयी । अब माँ ने मंगू से कहा ..
- देख लिया अब तूने ..... भाई ने कोई गड़बड़ नहीं की । चलो अब दोनों ..... ।
दोनों कमरे में और माँ रसोई में चली गयी । लेकिन न जाने क्यों मंगू को जंगू की बात पर बिश्वास न हो रहा था । उसने कई युक्तियाँ सोची कि जंगू से गड़बड़ जानने की । लेकिन कुछ भी हाथ न लगा । अब माँ भी रसोई से रोटी खा कर आ चुकी थी । दोनों में फैसला किया कि बाकी तारे कल रात को गिनेगें । अभी दोनों एक दुसरे के हाथ में हाथ रख कसम ही रहे थे कि कोई गड़बड़ नहीं करेगा तभी माँ आ गयी और बोली
- क्या कसम खा रहे हो तुम दोनों .....
- कुछ नहीं ....ऐसे ही ...
दोनों ने एक स्वर में कहा ।
- नहीं ऐसे तो नहीं । बताओ ..... बताओगे या नहीं ......
- नहीं ...हम तो ......
-तो फिर ठीक है आज मै तुम्हारे साथ नहीं सोऊगीं ।
दूसरी चारपाई की तरफ जाते - जाते माँ ने कहा ।
- नहीं .... नहीं .... हम बताते हैं ..... पहले तुम इधर आओ ..।
दोनों ने इधर - उधर खिसककर बीच में माँ के लिए जगह बना ली । दोनों के बीच लेटते - लेटते माँ ने कहा
- अब बताओ ।
- हम कह रहे थे ..... कि ...हम बाकी तारे कल गिनेंगे .... और कोई भी गड़बड़ नहीं करेगा ।
मंगू कहते - कहते माँ से लिपट गया ।
- ऐसे में तो तुम्हे पूरी रात लग जायेगी तारे गिनने में ....
- वो तो है ।
जंगू ने अपना सिर खुजलाते हुए कहा ।
- क्यों मंगू रात भर जागे रह सकते हो ....
- हां
ऊंघते - ऊंघते उसने कहा ।
माँ के साथ लेटते ही उसे नींद ने घेर लिया । उसे ही क्या जब तक दोनों भाई माँ से नहीं लिपट जाते तक दोनों को नींद ही नहीं आती थी । कितनी ही बार दोनों की आदत सुधारने की वजह से माँ दूसरी खाट पर लेट जाती । तो माँ ने दोनों के सिर मलासते - मलासते कहा
- कितने बेबकूफ हो तुम दोनों ! आज तक अपने - परायों को तो गिन नहीं पाए ......। कौन किस वेश में किस उदेश्य से घर में घुसता है यह भी समझ नहीं पाए ...... । और गिनने चले आसमान में सितारे ... ।
माँ की बात सुनने से पहले ही जंगू मंगू सपने में चाँद सितारों के बीच चहलकदमी करने लगे । जन्हा से उनको न तो अपनी माँ दिखाई दे रही थी न ही उसका दुःख - दर्द ।

@2012 विजय मधुर

 

गुरुवार, 15 नवंबर 2012

कहानी - दिवाली का नया सपना


           आज सुबह से ही  नमन का  मन  उखड़ा -  उखड़ा था । आफिस भी गया लेकिन वंहा भी माहौल फीका फीका लगा  । उसके  अलावा ऑफिस में कुछ स्थानीय कार्मिक ही आज उपस्थित थे । वे भी दोपहर बाद एक - एक कर गधे के सर से सींग की तरह गायब होते नज़र आये । सोचने लगा कंहा जाऊँ  कमरे में जाकर भी क्या करूंगा । दोस्त लोग भी अपने - अपने परिवार के साथ दीपावली की तैयारी में जुटे होंगे । बीबी के लिए साड़ी , बच्चों के लिए के लिए  पठाखे घर के लिए दीये .... लड़ियाँ  ...... । हाँ लड़ियों से  याद आया भला हो यह नयी लड़ियाँ बनाने  वाली कम्पनी  का   जिसकी  वजह से आज सारे घर जगमगा रहे हैं । पहले एक - एक बल्ब को जोड़ कर जो लड़ियाँ बनाई जाती   थी बाप रे बाप कितना समय लगता था उन्हें जोड़ने में । छोटे छोटे बल्ब लाओ तार लावो फिर एक - एक कर उन्हें जोड़ो । किसी बल्ब की छोटी सी पतली त़ार कंही टूट गयी तो सारी  मेहनत फिर दुबारा । टेस्टर से एक - एक बल्ब को चैक करो ।   और अब तो झट - पट का जमाना आ गया । पैकेट पन्नी खोलते ही  मिनटों में ही रंग बिरंगी रोशनी हाज़िर । लड़ियों  से लेकर खिलौने तक  गली के कोने कोने में आलू प्याज़ से भी  कम दामों में खूब  मिल जाते हैं  । अपने देश के  नहीं हैं तो क्या हुआ ?  अपने देश की वह   बल्ब खिलोनों की  फेक्टरियाँ बंद हो गयी तो क्या ......? मजदूर बेगार हो गए तो क्या ...? मैं क्यों अपना सर खपाऊ  ?  इन  लड़ियो से घर तो कम से कम आज सबके जगमगा ही रहे हैं ।  चाहे मंहगे सरसों के तेल से भरे दीयों से न सही  । क्यों न  अपने कमरे में  भी दो  चार लड़ियाँ टांक ही दूं   । घर लौटते सड़क के किनारे रुकते हुए उसने कहा ।पचास रूपये में अच्छी खासी दो लड़ियाँ मिल गयी वो भी बटन वाली । एक बार बटन दबावो तो एक छोर से लड़ी जलती हुई दुसरे छोर पंहुच जाती । दूसरी बार बटन दबावो तो बीच से जलती हुई दोनों छोरों तक । तीसरी बार टिम - टिम करके जलती बुझती । कुछ समय तो उस बटन को बार - बार दबाने में बीत गया । लेकिन रह - रह कर घर की याद सताने लगी  काश आज  इन लड़ियों के साथ अपने गाँव में होता तो कितना अच्छा होता । कितने खुश होते बच्चे .... माँ  बाबू और वह ... । आज भी  याद है वह दिन जब वह  सज धज कर  दीयों की जगमगाती थाल लेकर  चौखट पर आयी थी । असंख्य दीपों की रोशनी मानों उसके मुख मंडल में समां गयी हो । फोटो खींचने के बहाने न जाने कब तक उसे  उसी मुद्रा में खड़े रहने को कह दिया था ।  मन की बात वह भांप पायी या नहीं  लेकिन  उसके खिंचे ओंठो से दोनों गालों पर पड़े गोल - गोल पिलों से कुछ - कुछ तो  प्रतीत हो रहा था ।  उसी ने क्या माँ ने भी .....। वह भी जानबूझकर अनजान बन एक तरफ जाकर   मंद मंद मुस्करा दी थी  । जिसका  कुछ दिनों बाद पता चला । जब माँ ने एक दिन बात - बात में बोल ही दिया । सचमुच बड़ी लज्जा  आयी । और वह  तो ........ पल्लू दांतों तले दबाकर आँगन से दबे पाँव ऐसे गायब हुई जैसे उसकी कोई  बड़ी भारी चोरी पकड़ी गयी हो । एक अदना सा बहाना बनाकर  वंहा से फूटना पड़ा । भला हो  बाबू जी का जिनकी खांसी ने उस दिन सपने से जगा दिया  । हाँ सपना ही तो था वो । वह सपना देखे बर्षों बीत गए लेकिन लगता है आज क्या जैसे अभी वह सपना पुनह  घटित हो रहाहो । एकदम ताज़ा । भले ही फोटो सही न खिंची हो दरशल  फोटो खींचने में ध्यान ही  किसका था । एक लम्बी साँस छोड़ते हुए मन ही मन उसने कहा । अब क्या यही तो यादें बाकी हैं जिनके सहारे जिन्दगी चल रही है  ।  बच्चे  बड़े हो गए   । परिस्थितिया बदल गयी हैं । माँ - बाबू दोनों चल फिर नहीं पाते । कोल्हू की बैल की तरह जुता हूँ ..... । खैर अब देखो ...चाह कर भी घर नहीं जा सकता ।  आखिर एक ही दिन की तो छुट्टी है । एक दिन जाने  में ....एक दिन आने  में .... और कम से कम दो दिन तो घर पर चाहिए ही । वेसे तो घर पर दो दिन में तो उसकी कहानी भी पूरी नहीं हो पायेगी । यूं समझो कि  एक सप्ताह तो कम से कम चाहिए ही ।  एक सप्ताह की छुट्टी मिलना तो संभव नहीं ।  छुट्टी मिल  भी जाती  तो पगार .......। पगार कटने से बढ़िया तो .......। अचानक एक जोर से पटाखे की आवाज ने उसे  हिला दिया कान बंद हो गए । पतली - पतली दो कांच की  पत्तियों को  खांचों  में अटका कर बनी आलमारी ही समझो  में सजाये एक  दो बर्तन फर्श पर लुढ़क गए । उन्हें सँभालने के बजाय अध् टूटी बालकोनी से नीचे गली  की तरफ झाँका  तो धुंवा उसकी ओर बढ़ रहा था । न जाने उसे क्यों एसा लगा कि   देशी बल्बों की लड़ियों की तरह  यह पटाखे भी एक दिन बंद हो जायेंगे । बना देंगे लड़ियों वाले ही सस्ते पटाखे जो  पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित होंगे । पालीथीन की थैलियों के बजाय नामी  ब्रांडो के पाउचों की पैकिंग की तरह  । अभी धुंवा छंटा भी न था कि शी .......  सीटी बजाता एक रोकेट  चौथे माले में खड़ी युवती को बाल - बाल बचाता हुआ आसमान में जाकर एक धमाके के साथ फूट पड़ा । उससे निकली रंग - बिरंगी रोशनियों ने कुछ क्षणों के लिए  उस घनी बस्ती जगमगा   दिया   । उसी  क्षणिक जगमगाहट में उसकी  नज़र  गली के उस पार उसी युवती की ओर टिक गयी जो चौथे मंजिल की बालकोनी पर अब भी बेफिक्र खड़ी थी । एक बार उसका   मन हुआ कि जाकर पूछे  उससे ......? लेकिन नहीं ?  आज पहली बार तो  देखा वो भी आधुनिक लड़ियों और रोकेट से बिखरी रंग बिरंगी   जगमगाहट में । भले ही उसे चेहरा स्पस्ट नज़र न आया हो । लेकिन डील - डौल में बिलकुल उसी की तरह  । इस गली में रहते हुए नमन पूरा साल होने को आया लेकिन अभी तक मकान मालिकों के अलावा उसने  किसी को ठीक से देखा ही  नहीं । सुबह सात बजे घर से नकलने के बाद  आठ बजे से पहले कभी लौटना होता । छुट्टी के दिन भी कभी कोई आ जाता है तो कभी कोई  अपना - अपना राग अलापने ।  नमन यह सब सोच ही रहा था कि देखा सामने बालकोनी पर खड़ी  युवती का पल्ला पकड़े एक बच्चा कुछ जिद्द सा  रहा है । शायद पटाखों की मांग कर रहा हो ।  गली के शोरगुल के कारण बस मम्मी ...... मम्मी ....  सुनाई दिया ।  और वह उसका सर मलासती - पुचकारती अपने साथ अन्दर ले गयी । छोटी दिवाली होने के कारण बच्चों ने बम फोड़ने बंद कर दिए । कुछ देर इधर - उधर नज़र दौड़ाने के बाद दरवाजा बंद कर नमन  कमरे के बीचों - बीच इकलौती फोल्डिंग चारपाई पर निढाल होकर पसर गया । कमरे में सामने वाली बालकोनी की तरह ही लड़ियाँ टिमटिमा रही थी । दिवाली के नए सपने के साथ न जाने कब उसकी आँख लगी पता ही न चला ।
@2012 विजय मधुर

 

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

शुभ दीपावली











माँ लक्ष्मी का 
दरवार सजा है 
तिमिर  रोकने 
गणपति हैं दरबारी ।
सुख समृधि
आशीष रहे सदा 
यही  शुभकामना 
हो आज हमारी ।
यही शुभकामना
हो आज हमारी ।
                विजय मधुर 

रविवार, 11 नवंबर 2012

ऑटो रिक्शा वालों की बैठक

            शहर के प्रसिद्ध  होटल के  सुन्दर सुसज्जित हाल में पहली बार शहर के ऑटो रिक्शा वालों  की बार्षिक बैठक हुई । बैठक का मुख्य मुद्दा था बढ़ती मंहगाई । दिन प्रतिदिन बढ़ती पेट्रोल , डीजल, घरेलू सामान , सब्जियों आदि की कीमतें । ऐसे में उनका सोचना था कि हम पीछे क्यों रहें । सरकार सरकारी रेट निर्धारित तो कर देती है । लेकिन बिना चक्का जाम या हड़ताल के दुबारा रेट नहीं बढाती । सरकारी कर्मचारियों का महंगाई भत्ता बढ़ जाता है । स्कूलों की फीस बढ़ जाती है । दुकानदार को हर चीज़ के रेट बढ़ाने का अधिकार है  । आखिर हमें यह अधिकार क्यों नहीं । जबकि इन लोगों से अतिरिक्त हमें कुछ अप्रत्यक्ष कर अलग से भी चुकाने पढ़ते हैं । देखते देखते होटल के बाहर ऑटो रिक्शा की भीड़ लग गयी । अपने होटल के चारों तरफ ऑटो रिक्शा का जमवाडा देख होटल मालिक हैरान परेशान था । भले ही शुरू - शुरू में उन ऑटो वालों की कृपा से उसका यह कारोबार चल निकला हो । लेकिन आज पहले वाली बात नहीं अब होटल में रंग बिरंगी , किस्म - किस्म की टैक्सीयों के साथ - साथ ब्यक्तिगत लम्बी गाड़ियों में अलग - अलग रेट के यात्री आने लगे । होटल की कमाई में चार चाँद लगने लगे । फिर भी मालिक की दरियादिली देखो वह उन्हें भूले नहीं । बढ़ती मंगाई की वजह से ऑटो वालों में आक्रोश इस कदर था कि  कुछ तो ऑटो के आगे बॉक्स को खोल - खोल कर जेब में छोटी - छोटी शीशियाँ ला रहे थे । तो कुछ ऑटो में ही बैठ कर गम कम कर रहे थे । चारों तरफ खुसर - पुसर का माहौल चरम पर था । तभी आगे बने मंच से लाऊड स्पीकर की आवाज आयी ।
- सुनो ......सुनो ........ सभी लोग ध्यान से सुनो । प्रधान जी माइक बार - बार खटखटाते बोले ।
खुसर - पुसर में कुछ कमी और जो इधर उधर गम कम करने में मशगूल थे हॉल में आने लगे ।  प्रधान जी दुबारा बोले ।
- सुनो - भाई सुनो । अब हम लोग अनपढ़ गंवार नहीं । सभ्य हो गए हैं । हमारे साथ एक बहुत बढ़ा पढ़ा लिखा वर्ग जुड़ गया है । कल की बात देखो मै एक अपने भाई को किसी बात पर धमकाने लगा । उसने वो अंगरेजी बोली कि मेरी तो जुबान पर  ही ताले पड़ गए । कल की घटना ने  मेरी सोच को परिवर्तित कर दिया
- परिवर्तित .....
- हाँ भाइयो परिवर्तित । मैंने तुरंत फैसला लिया । इस बार बैठक उस ऑटो स्टैंड वाले पीपल के पेड़ के चबूतरे से इस होटल में करने का ।
- बहुत बढ़िया प्रधान जी ..तालियों के साथ ही पूरा हॉल  गूँज उठा ।
- अब मैं चाहता हूँ कि हमें भाड़ा बढ़ाने के लिए क्या करना चाहिए । इस बारे में सबकी राय के बाद ही फैसला लिया जायेगा ।
एक - एक कर सभी अपनी - अपनी राय ब्यक्त करने लगे । एक कहता हरेक रूट पर बसें नहीं चलनी चाहिए । उनकी वजह से लोग ऑटो में नहीं बैठते । आखिर बैठे भी क्यों । बस किराया जन्हा दस रूपये होता है वंहा ऑटो का किराया सौ रूपये । यात्री की भी अपनी जगह सही है और हम भी किसी - किसी स्टैंड पर तो दिन भर में चार सवारियां भी नहीं मिलते । उस भाड़े से ऑटो का पेट भरें या अपना । समझ नहीं आता । सोचा बेरोजगारी से बढ़िया है अपना काम । लेकिन इसमें तो लगता है ....। कहते - कहते एक का तो गला ही भर आया और चेहरा भीड़ से बचाता मंच से उतर कर अपने ऑटो तक जा पंहुचा और उसकी डिक्की खोल उसमे से गम कम करने की दवा निकालने लगा । अब प्रधान जी ने उस युवा को आगे बुला लिया जिसकी वजह से उसने आज पहली बार होटल में मीटिंग रखी ।
- गुड मोर्निंग फ्रेंड्स .....
- भय्ये अंगरेजी नहीं ..... हम प्रधान जी नहीं ......
युवा कुछ देर सकपका कर चुप हो गया ।
-बोलो भय्या बोलो ......ज्यादा नहीं तो थोड़ा बहुत अंग्रेजी तो हमें भी आती ही । एक से बढ़कर एक यात्री मिलते हैं स्टेशन पर । विदेशी मेम तक ।
- हां भय्ये ! उस बक्त तो लगता है ........। काश हम भी थोडा अंगरेजी जानते तो ...... मजा आ जाता । बोलते - बोलते वह ओंठो पर जीभ फेरने लगा ।
- आ भय्या तुम नीचे आ जावो पहले इसे ही बोलने दो । प्रधान जी ने उसकी तरफ देखते हुए कहा ।
मंच पर जाने के नाम से उसी की क्या अच्छे -  बोलती बंद हो गयी । और वह बगलें झाँकने लगा ।
- भय्या जमीन से बोलना आसान होता है । वंहा जा कर बोलने में तुम्हारी ही क्या अच्छे अच्छों की बोलती बंद हो जाती है । मंच पर खड़े युवक की तरफ इशारा करते हुए । बोलो भय्या बोलो । तुम जैसे युवाओं की तो हमें सख्त जरूरत है ।
मंच पर खड़ा युवक कुछ देर इधर - उधर देखने लगा । अब पहले की अपेक्षा वातावरण शांत हो गया ।
- भाइयो नमस्कार । मै तुम लोगों के सामने बहुत छोटा और नया हूँ । मैंने काफी सोच बिचार कर यह पेशा अपनाया । मुझे सभी ने कहा तुम और ... ग्रेजुएशन करने के बाद ऑटो ..... । घर वालों ने तो कई दिनों तक मेरे साथ बात करनी बंद कर दी । मोहल्ले वाले भी आये दिन घर वालों को सुना - सुना कर मुझे यंहा वंहा छोड़ने को बोलते । किराये के ऑटो से आज मै खुद के ऑटो का मालिक बन गया । घर वालों तक से कोई मदद नहीं ली । पांच  साल बेरोजगारी के दंस को सहने के बाद ही मैंने यह कदम उठाया ।
- बहुत अच्छा .... बहुत अच्छा ..... तालियों की आवाज़ ने उसका मनोबल बढ़ाया ।
- शुरू शुरू में मुझे लगा ... यह पेशा अच्छा नहीं ..... लोग इज्ज़त नहीं देते । लेकिन इज्ज़त खुद इज्जत देने से मिलती है ।
- वाह वाह क्या बात कही ..... लेकिन भय्ये जरा मुद्दे पर तो आवो । भीड़ में से एक ने कहा ।
- मुद्दा सपष्ट था । किराया बढ़ोतरी । नवयुवक ने भी अपनी बात कही । बस उसकी एक बात ज्यादातर को इसलिए नागुजार लगी कि उसका कहना था कि यदि किराया बढ़ोतरी सरकार की तरफ से हो जाती है । प्रति किलोमीटर भाड़ा तय हो जाता है तो फिर हमें उसी नियम का पालन करना चाहिए । अपने मन माफिक किराया यात्रियों पर नहीं थोपना चाहिए । इसी बात पर बहस में पेट्रोल की कीमतों की तरह उबाल आ गया । एक कहता कि यह सही है सवारी की किच - किच से तो निजात मिलेगी उठाकर सरकारी रेट दिखा देंगे । दूसरा कहता इस तरह से तो मालिक का रोज़ का भाड़ा भी नहीं निकल पायेगा और जो इधर उधर देने पड़ते हैं वो अलग । और तेल की कीमतों में इजाफे के क्या । आज हमारा भाड़ा तय होगा कल फिर से कीमतें बढ़ जायेंगी । हम हर हफ्ते या महीने धरना तो नहीं दे सकते । मालिक का क्या तुम कमाओ न कमाओ उसको तो अपने ऑटो का रोज के रोज भाड़ा चाहिए ही  । उसकी बला से कोई जिए या मरे ।
- भय्या एसे ही थोड़े न कर लिए मालिक ने  एक से पच्चीस ऑटो खड़े । एक ने कहा ।
- भाई बंदी दिखाने लगा तो ...। काफी देर से चुपचाप दूसरे ने कहा ।
- हाँ भय्या तुम तो हो भी उसके खासम ख़ास ।
- हाँ पल - पल की खबर जो देते हो .... !
- हां देता हूँ बस ..... क्या बिगाड़ लोगे मेरा ...
- सही बात है .....। अब तो वो अपनी कार के आगे जंगी पार्टी का झंडा भी टांकने लगा । बिधान सभा चुनाव भी लड़ लिया । भले ही अच्छी खासी हार मिली हो ...
कुछ लोग तो खिलखिला कर हंसने लगे और पांच सात की भोंवे तन गयी .... आस्तीने चढ़ गयी थी । प्रधानजी ने बड़ी मुश्किल से सबको चुप कराते हुए समझाया जब भी हम लोग अपने हित के लिए कोई मुद्दा उठाते हैं । आपस में ही उलझ कर रह जाते हैं । एक समस्या सुलझने की बजाय दूसरी खडी हो जाती है । पिछली बैठक में भी एसा कुछ हुआ । बातचीत करने बैठे थे भीकू की पुलिस के हाथों बुरी तरह पिटाई पर । उल्टा यंहा आपस में ही गुथम गुत्था शुरू हो गयी । जिस पुलिस को लेकर बात उठी थी उसी के हाथों पांच - छ को और पिटना पड़ा । बात सबके समझ आ गयी कि नहीं । तुम लोग हमेशा ही एसा करते हो मुद्दे से हट अपनी लड़ाई लड़ना शुरू कर देते हो । गढ़े मुर्दे उखाड़ने लगते हो । फलां ने उस दिन मेरे अड्डे से सवारी उठा ली । फलां ने मेरे तय की गयी सवारी को पांच रूपये कम में बिठा ले गया । ऐसे में तो कर लिया हमने कुछ ..। जिसकी जो मर्जी आती है करो ।
अब दो - चार जने प्रधान जी को समझा बुझा कर खाना खाने ले गए । सुन्दर मेज पर सजे खाने को देख सबके मुंह में पानी आ गया और सबने मिल एक साथ खाने पर धावा बोल दिया । अब मंच से भाषण की जगह गाना बजने लगा यंहा वंहा तारे ..... जन्हा में तेरा राज़ है ..... जवानी और दीवानी जिंदाबाद ....। एक दो लोग तो सिर पर खाने की प्लेट रख ठुमका भी लगाने लगे । ना खाने के बाद एक - एक कर सभी ऑटो घर्रर घर्रर से स्टार्ट होते हुए होटल के अहाते से ओझल होने लगे । प्रधान जी ने मंच पर गाना बंद करवाया और बाकी बचे दो - चार को संबोधित करते हुए  अगली बैठक के बारे में बताया जो अब होटल के बजाय उसी पीपल के  छाँव में होगी ।
@2012 विजय मधुर 

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

कविता : शहरवाले

मैं .....मैं .......
के आगे
किसकी चली
अभी - अभी
एक लकड़ी जली
गठ्ठर में
खुद को
समझ रही थी
कड़क
उसी से
चूल्हे की
आग गयी
भड़क ।
धीरे - धीरे
बाकी
लकड़ियाँ
भी जल गयी ।
गरीब की
रसोई
पक गयी ।

जंगलों में
अब लकड़ियाँ
ढूंढकर
नहीं मिलती ।
प्रतिबंधों ने
अपनी जगह
सड़ने
या ....



मुसाफिर
की बीड़ी से
लगी आग ने
जलने के लिए
बिबस कर दिया है
उसे ।
जबकि
शहरों में अब
नहीं लग रहे हैं आम ।
एक - एक पत्ते का
मिल रहा है दाम ।




ढूँढने से नहीं मिलते
पेड़ .....
काटने वाले ।
चौड़ी सड़कों
पटी नहरों पर
दौड़ाते हैं गाड़ियाँ
दिलवाले
शहरवाले ।
@2012 विजय मधुर

बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

लघु नाटक : लालच

दृश्य-एक 


        शहर के समीप का एक जंगल ।  मंच पर अधेड़ उम्र का व्यक्ति एक हाथ में राम नाम के शाल  ओढ़े  उसके  भीतर  माला  जप रहा है  । इतने में ही दो  बच्चे या बयस्क । बच्चा कहना ही उचित रहेगा क्योकिं वेसे तो दोनों उम्र के ज्यादा हैं लेकिन किन्ही अपरिहार्य कारणों से  दोनों का मानसिक विकास समुचित ढंग से नहीं  हो पाया ।

मोनी : (बीरू की तरफ उत्सुकता से जाते हुए ) अरे ! बीरू  वह  देख ..... अंकल जी .....

बीरू   :  हाँ यार ....

मोनी  : लेकिन वो कर क्या रहे हैं इस जंगल में ।  ( अंकल जी के समीप 
           जाकर )

बीरू    : बैठे हैं ।

मोनी  : बैठे हैं या .....सो रहे हैं । (अचरज से) बैठे -   बैठे  भी भला कोई  सो सकता है  ?

बीरू  :  सो जाते हैं । मेरे  पापा बता रहे थे कि  उनके आफिस से एक 
          साहब भी बैठे - बैठे सो जाते हैं | खर्राटे  मारने लगते  हैं  खर्र ....खर्र ...।
          जब कोई जाता है न उनके पास .... तो पता है पापा ही जगाते हैं |

मोनी :   उठो लाल अब आँखे खोलो
           पानी लाई हूँ मुंह धो लो ।

बीरू : लेकिन अंकल तो कुछ बड -बड़ा भी रहें हैं ।

मोनी : कुछ लोग सोये हुए में  बडबडाते भी हैं । मैं भी बडबडाता था .....
          मेरी मम्मी कहती थी ।

बीरू : बडबडा नहीं रहें हैं ...... देखता नहीं एक हाथ इनका ऊपर उठा  है .....शायद इनके हाथ में दर्द है ।

मोनी : हाँ यार । यह तो मैंने अब देखा ...... इनका तो हाथ बंधा है   ।

बीरू : (अंकल को हिलाते हुए ) अंकल .....अंकल ..... अंकल  जी ..

अंकल  : ( बड़ी - बड़ी आँखे कर उन्हें क्रूरता से घूरता है ) क्यों ....
भाई .... । क्या प्रॉब्लम है तुम्हारी ।

बीरू : (सहमते हुए) अंकल ....प्रॉब्लम तो ......     
          आपकों ......आपके हाथ में क्या हुआ ......।

अंकल : हाथ में ..... मेरे  हाथ में  .......। तुम्हारा दिमाग ....

बीरू : तो आप सो रहे थे ।

मोनी : सोए-सोये में बडबडा भी रहे थे  । जब मेरे सर में दर्द  था | बुखार  होता था | तब मैं भी बडबडाता था
 (कुछ सरमाते हुए ) मेरी मम्मी कहती थी । दर्द तो अब भी होता है लेकिन ... अब ....माँ नहीं |

अंकल : मूर्खो ! मैं सो रहा था ...?  मैं तो उतनी देर से तुम्हारी बक -
           बक सुन रहा था । ध्यान  कर रहा था ....मैं ध्यान ....  ।

बीरू  : अंकल ध्यान ...... क्या होता है यह |

अंकल : मेरे बाप पूजा कर रहा | अब आयी बात समझ में |

बीरू  : अच्छा ..... पूजा ..... मेरे पापा भी करते हैं ।  सरकारी आफिस में 
         थे | अब रिटायर हो गए हैं | आप भी रिटायर हो गए अंकल  ?

अंकल : हाँ ....... हाँ     बाबा  हाँ ....अब जाओ यंहा से मुझे ध्यानं
           करने दो   ।

बीरू   : आंटी किटी पार्टी में गयी होगी .......?

मोनी : बीरू ..... यह किटी पार्टी क्या होती है .....

बीरू : एक बार मैं भी गया था अपनी मम्मी के साथ .... .....तब मैं
         छोटा था ...... वंहा  तीन चार आंटियां कह रही थी   अंकल  
         रिटायर हो गए । अब ध्यान करते हैं ।

मोनी : और क्या होता है वहां  .....

बीरू : ( आँखे बंद कर सोचते हुए )  आंटियां गाना गाती हैं ...... ढोलक
         बजाती हैं ..... और नाचती हैं ...... एक बात बताऊँ  
        (मोनी के कान के पास शरमाकर ) मेरी मम्मी भी नाच रही थी ।
        गाना सुनाऊं जो अंटी गा रही थी ।

मोनी : सुना .....

बीरू  : मेरे पीया गए रंगून ....
         वहां  से किया है टेलीफून
         तुम्हारी याद सताती है ....।

जो आंटी गाना गा रही थी ना ...... वो   
अंकल हवाई जहाज से जाते थे ..... दूसरे देश ...... उनके घर में विदेशी खिलौने . .... टी . वी .   ....( हाथ से इशारा करते हुए ) और भी बड़ी बड़ी चीजें ..... ।  फिर हमने खूब खाना खाया ।

मोनी : फिर ......

बीरू  : फिर ..... फिर .... करके तूने मेरा दिमाग पका दिया ..... फिर
         घर आ कर मम्मी पापा की लड़ाई हो गयी ।

मोनी : अबे ! बीरू वह देख ..... तितली ..... कितनी सुन्दर है ......
          चल पकड़ते हैं .........

बीरू : चल ...... वो रही ..... पकड़ो ..... पकड़ो ....... ।

मोनी : आखिर पकड़ ही लिया बच्चू । हम से बच कर कहाँ  जाओगे ।
           (तितली पकड़ते - पकड़ते दोनों अंकल के ऊपर गिर जाते हैं )

अंकल : बदतमीज लडको ..... दिखाई नहीं देता तुम्हे .... ।

मोनी : अंकल हमें तो दिखाई दे रही थी सिर्फ तितली ..... ।

बीरू : देखो ... देखो ..... कितनी प्यारी है ....... । मुझे देख रही है ।
        कह रही है मेरे साथ उड़ो ना ... । अरे ! अंकल का हाथ तो ठीक हो
        गया .... हो .....हो ...... हो ..... अंकल का हाथ ठीक हो
        गया ..... (  और दोनों नाचने लगते हैं  )

मोनी : चुप कर ..... छोड़ दी ना ........ कितनी मुश्किल से पकड़ी
          थी ...... देखो ना अंकल ......

अंकल : बहुत सह ली तुम्हारी बक-बक । उतनी देर से सोच रहा था अभी जाओगे ... अभी जावोगे .... 
           ठीक ही कहते हैं | लातों के भूत बातों से नहीं मानते | रुको ! मै तुम्हे अभी सबक सिखाता हूँ ।

बीरू : वेसा ही सबक जैसा  स्कूल में मास्टर जी सिखाते थे ।

अंकल  : उससे भी बड़ा सबक जो उनसे टयूशन नहीं पढ़ते उनको फेल कर
            देते हैं ।

बीरू : अंकल फेल .....हा .....हा .....हा ....फेल .....
          (दोनों जोर से एक साथ हंसने लगते हैं ) हम और पास ...हा ...हा ...| 

अंकल : तो तुम ऐसे  नहीं मानने वाले ..... झोले में हाथ डालता है ..... अब भी चले जाओ
           वरना .....|  वरना मैं तुम्हे ..सराप दे दूंगा ..... श्राप .....।

बीरू : शराब ! सच में शराब .... (अंकल के पैर पकड़ लेता है )  अंकल
        जल्दी दो ना ..... मुझे बहुत अच्छी लगती है ...... जल्दी
        दो .....  काफी दिनों से  नहीं पी  ..... जल्दी ....जल्दी .....
        (अंकल पैर छुड़ाने की   कोशिश करता है )

अंकल : हठ परे हठ  । हरकत करते हो बच्चों की और बात करते हो
           शराब की | मै पहले ही समझ गया था तुम दोनों .......

बीरू : ( झोला पकड़ते हुए ) अंकल जल्दी निकालों ना  .... अब
         नहीं रहा जाता ....( बीरू का चेहरा अजीब सा हो गया )

अंकल : (मोनी की तरफ जाता हुआ )  अरे ! संभालो इसे .....

मोनी : अंकल दरअशल इसने ज्यादा पढ़ा लिखा तो है नहीं | इसके घर वालों ने निकाल दिया इसे घर से 
         और यह काम करने लगा  .. ... कालेज के पास एक होटल में ...

अंकल : मुझे नहीं सुननी तुम्हारी राम कहानी .... मैं सब जानता हूँ ।

बीरू : अंकल .... अंकल ..... मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ ...... जो काम
         बोलोगे करूंगा  पर सिर्फ एक घूँट ....|

मोनी : उस होटल में खूब शराब चलती थी । बर्तन उठाने वाले इस बिचारे
          को बना दिया शराबी ।

बीरू  : (मोनी का हाथ पकड़ते हुए ) तू बोल ना अंकल को शराब .... ।

मोनी : एक दिन कालेज के लड़कों का निकल रहा था जलूस । सारा
          बाज़ार बंद हो गया । होटल में घुस गए थे लड़के | फोकट की पीने । मालिक तो भाग निकला | 
          ठुकाई हुई इसकी ।
          (हाथ से इशारा करते हुए ) तब से यह थोडा .....| 

अंकल : यही क्या मुझे तो तुम दोनों ही ......

मोनी : लेकिन अंकल इसके सामने गलती से भी किसी ने शराब का नाम
          ले लिया तो समझो उसकी खैर नहीं ।

अंकल : (डरते डरते ) इसी के क्या .... सभी शराबियों के यही हाल हैं ।
           अब हो गयी तुम्हारी राम कहानी पूरी मैं जांऊ .... लेकिन बेटा
           बेटा ...( झोला हाथ में लेते हुए )  ....

बीरू : (मोनी को अलग ले जाता है ) अब अंकल शराब देने वाले हैं ।
         देख ! मैंने खाली बोतल भी रखी है ।
         (  पजामे की  जेब से एक बोतल निकलता है ) आधा - आधा
         करेंगे .... खूब पियेंगे । डान्स करेंगे
         (बीरू सर पर खाली बोतल रख गाना गाते हुए दोनों नाचने लगते हैं । 
           मौका देख अंकल वहां से गायब हो जाते  हैं ) ।

बीरू : (रोते  - रोते ...) मोनी देख .....अंकल तो न जाने कहां चले गए  .....चलो ढूँढ़ते हैं |




द्दश्य-दो 

भाई जी : अरे ! अरे! कहां  जा रहे हो ....।


अंकल : किधर फंसा दिया भाई जी आपने .... उन दोनों पागलों ने तो 
           मुझे भी पागल बना दिया था । मुश्किल से जान बचा कर आया
           हूँ । आपको पहले भी कहा था अच्छी सी स्क्रिप्ट लो । और मुझे
           बढ़िया सा रोल दो लेकिन आप तो अपनी ही चलाते हो ।

भाई जी : देख भाई पन्द्रह मिनट के नाटक में मैं किसको हीरो बनाता
             और किसको बिलेन .... सभी कहते हैं अच्छा सा नाटक
             करो ..... लेकिन जब काम करने का नंबर आता है .....

अंकल : टांय ... टांय  फिस्स .... कहते हैं यह कोई नाटक हुआ ... मेरे लायक तो कोई रोल ही नहीं |

भाई जी : देख भाई ... हरेक इंसान के   कुछ  
             आदर्श होते हैं .... जो मेरे भी हैं । मैं 
             यदि किसी नाटक के प्रति न्याय नहीं
          कर सकता तो अन्याय भी तो नहीं । इसीलिये खुद ही स्क्रिप्ट लिखने का निर्णय लिया । जो तुम जानते ही हो ।

अंकल : पर भाई जी पन्द्रह मिनट तो होने वाले .......

भाई जी : कोई बात नहीं सिर्फ दस मिनट और । आयोजकों से मैं माफी
             मांग रहा हूँ । तुम डटे रहो मोर्चे पर । वह देखो आ गए  तुम्हारे 

अंकल : भाई जी बचा लो .... अब नहीं .....

बीरू : (हाँफते हुए )  अंकल आपने तो ......

मोनी : हाँ अंकल ...... गोली दे दी ।

भाई जी : क्या बात है बेटा   ।

बीरू : अंकल ..... पता है .....इन अंकल ने हमें शराब देने की बात
        कही .....और गोल हो गए । हम तब से इन्हें ढून्ढ रहे हैं .... ढूँढ़ते
        ढूँढ़ते यहां  ...( लम्बी सांस लेते हुए ) चलो मिल तो गए .... ।

भाई जी : क्यों भाई .... कब से पीनी शुरू कर दी । हमारे साथ तो बड़े भक्त
            बनते फिरते हो .... ।

अंकल : तुम भी यार ..... मै जाता हूँ  घर ।

भाई जी : कहां  जा रहे हो भाभी जी तो घर में हैं नहीं .... वहीं  से आ रहा
             हूँ । सुना है किसी किट्टी पार्टी में गयी हैं ।

अंकल : मैंने तो इन्हें श्राप देने की बात कही थी .... तंग करके रख दिया
           । आज सुबह - सुबह न जाने किसका मुंह देखा ।

भाई जी : भाभी जी का देखा होगा .... खैर छोडो ...... तो यह बात
             है .....( फिर बीरू और मोनी को अपने पास बुलाते हुए )

बीरू : क्या बात है ? मैंने अंकल को बोल दिया था ...... जो भी काम
         बोलोगे करूंगा ।

भाई जी : बेटा ! दरशल इन्होने पीने वाली शराब
             की बात नहीं कही थी ।

बीरू : तो कोई दूसरी भी होती है ...।

मोनी : चुप ..... होती होगी कोई ..... लगाने वाली ।
                                        

बीरू : तो .... ठीक है वही दे दो ।

भाई जी : देखो बेटा ....  अच्छे बच्चे .....जिद्द नहीं करते ।  भगवान्
             का नाम लो और अपने - घर जाओ । अँधेरा होने वाला है ।

मोनी : मुझे नहीं लेना भगवान् का नाम । वह गन्दा है । मेरी मम्मी 
          को अपने साथ ले गया । कितनी अच्छी थी मेरी मम्मी । 
          अब आप ही बताओ मेरा सर दुखेगा तो कौन दबाएगा ।
          ( मुंह एक तरफ कर हथेलियों से ढक देता है । भाई जी उसे अपने
           सीने से लगा देते हैं  )

भाई जी : मैं दबा दूंगा बेटा ..... अच्छे बच्चे ....जाओ अभी ....तुम्हारे
             पापा परेशान ....

मोनी : वो भी गंदे ...... मारते हैं मुझे ..... कहते हैं ..... न जाने किस
          घड़ी में जन्मा है यह पागल ..... अपनी माँ के पास भी नहीं
          जाता ...... मुझे मम्मी के पास जाना है ...( हूं हूं कर सुबकने
          लगता है )

भाई जी : अच्छे बच्चे रोते नहीं .... (बीरू का हाथ पकड़ते हुए ) जाओ
             बेटा इसे भी अपने साथ ले जाओ (बीरू हाथ झटक देता है )

बीरू : नहीं .... हमें नहीं जाना घर ...... पहले हमें शराब दो ...
        (वहीं  जमीन पर लोट-पोट होने लगता है )

अंकल : भाई जी ..... आप तो भैंस के आगे बीन
           बजाने वाली बात कर रहे हो ...यह नहीं
           मानने वाले । मैं ही कुछ करता हूँ ।
          ( कुछ देर मंच पर सन्नाटा छा जाता
          है जिसकी भरपाई करते हैं  बायिलिन  
          के सुर । अंकल  सिर खुजलाते हुए
एक कोने में जाकर सबकी नज़रों से बचकर अपना झोला छुपा देते हैं )

अंकल : अरे ! बेटा  एक गलती हो गयी ।
          (बीरू एकदम उठता है )

बीरू : क्या .......?

अंकल : मेरा झोला तो वहीं  छूट गया .... पेड़ के नीचे ...... जंगल
           में .... ।
          ( बीरू सर पकड़ लेता है ...फिर मोनी की तरफ देखते हुए )

बीरू : अब क्या करें ....

मोनी : क्या ....  ?

बीरू : अंकल .... दूसरी ही दे दो ....... लगाने वाली .....।

अंकल : वह भी नहीं .... एक ही थी ....वह भी वहीं रह गयी झोले
           में .....।

बीरू : अंकल आप झूठ तो नहीं ....

अंकल : नहीं ..... नहीं बेटा .... तुम जैसे प्यारे बच्चों के साथ और मैं
           झूठ ...(कहते हुए दूसरी  तरफ  अजीव  सा मुंह बनाता है  ।
           बीरू कुछ देर इधर उधर देखने के बाद )

बीरू : कसम खाओ |

अंकल : सच्ची | (दोनों के सर पर हाथ रखकर ) 
            तुम दोनों की कसम |

बीरू :  चल मोनी ...

मोनी : नहीं यार ..... मुझे डर लगता है ...।

बीरू : रेस लगाते हैं .....देखते हैं कौन फर्स्ट आता है । (दोनों दौड़ने
        की मुद्रा बनाते हैं) ऑन .....यौर ......  मारक  .......गेट ....
        सेट ... गो .... ( भाई जी और अंकल पहले मोनी और बीरू
        को देखते हैं । फिर एक दूसरे  की ओर   । अंकल  के
        चेहरे पर सफलता के भाव  जबकि भाई जी के चेहरे पर मायूशी   
        नजर आ आती है  )



 दृश्य-तीन 

 जंगल कर दृश्य  धीमा प्रकाश  और पार्श्व में कुछ आवाजें ।

मोनी : बीरू ..... बीरू ...... अब नहीं दौड़ा जाता ...... मान लिया
          तू फर्स्ट ......( कहता कहता वहीं बैठ गया । बीरू जो उससे कुछ
          आगे था  वापस आता है )

बीरू  : हिम्मत रख .....बस हम पंहुच गए  ।

मोनी : नहीं .... मुझे डर ......

बीरू : देख अभी ..... दो ....दो ....पैग  पियेंगे ना ...... तो सब डर वर
        भाग जायेगा  । ( डरावनी आवाजें )

मोनी : तू सुन रहा है ना ....... नहीं मैं नहीं ...... अच्छा मै यहीं 
         पर ...... तू जा ..... । (  फिर डरावनी आवाजें )

मोनी : भूत .....|

बीरू : भूत ..... वूत .... कुछ नहीं ..... एसा करते हैं .... ....(नीचे से
        दो पत्थर उठाता है एक अपने पास और दूसरा  मोनी  को देता है )
        अब चल .... इससे भूत नहीं आता |

मोनी : ठीक है .... लेकिन दोनों हाथ पकड कर चलेंगे ।
           (दोनों धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं ....पुनः  आवाज आती है
           मोनी, बीरू को जकड़ लेता है )

बीरू : (फुसफुसाता हुआ) डरना मत ..... आवाज भी मत करना ......
        चुपचाप चलता रह ।

मोनी : (खुशी से )पंहुच गए ...... यही पर तो हम दोनों ने यह दो झोपडियां बनायी थी | 
          यह तेरी और यह रही मेरी | (बड़े से पत्थर की ओर  इशारा करते हुए ) यह रहा 
          तेरा  पत्थर ....

बीरू : पत्थर नहीं ..... यह चोर  है चोर  .....और यह सारे  इसके सिपाही 

मोनी : हाँ .....

बीरू : बस इसके बाद ही तो .....अंकल ......वहां ......

मोनी : हां याद आया ..... इस तरफ ......

बीरू : हाँ .........

मोनी : वो रहा वह पेड़ .... जिसके नीचे अंकल ......

बीरू : जल्दी ढून्ढ ..... जल्दी ......उस पत्थर के पीछे  ( दोनों इधर
        उधर ढूँढ़ते हैं )

बीरू : मिली ......

मोनी : नहीं ...... इधर  तो नहीं ।

बीरू : उधर देख  .....

मोनी : नहीं मिली ..... तुझे मिली ......

बीरू : नहीं .....
( झाड़ी , पत्थर ... उठा उठा कर देखते हैं लेकिन झोला नहीं  मिला )

मोनी : मिली .....

बीरू : नहीं ....

दोनों : लगता है .........हाँ ...... ......अंकल ने हमें ......... 
( तभी  एक मिश्रित डरावनी आवाज आती है । मोनी और बीरू एक दूसरे को जकड़ते हुए जोर से चिल्लाते हैं और उसी  पत्थर के ऊपर ढेर  हो जाते हैं जिस पर बैठ अंकल  ध्यान कर रहे थे पार्श्व में संगीत के साथ गीत उभरता है। 

कम्प्यूटर युग
कम्पुटरी बातें
लम्बे दिन
छोटी रातें ।

नहीं है समय
बेटा नहीं है समय
तुम संग
बतियाने
लोरी ...
सुनाने का । 

कम्प्यूटर युग
कम्प्यूटरी  बातें
लम्बे दिन
छोटी रातें ।

सौंप दिया है 
अब तुमको 
टी . वी . रिमोट 
कंप्यूटर माउस ।

कम्प्यूटर युग
कम्प्यूटरी बातें
लम्बे दिन
छोटी रातें ।

पत्थर के ऊपर दोनों पर लाल रंग की रोशनी मंद होते-होते बंद हो जाती है और  मंच पर अँधेरा पसर जाता है ।
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   चूंकि यह नाटक एक विशेष परिस्थिति में लिखा गया । शर्त यह कि  की सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान  एक छोटी सी  स्क्रिप्ट का मंचन  वो भी बगैर किसी ताम झाम के । जिम्मेदारी थी खुद मेरे ऊपर भले ही  इससे पूर्व कई नाटकों में अभिनय, प्रबंधन  तथा निर्देशन  कर चुका था नाटक के रिह्ल्शल में सांस्कृतिक कार्यक्रम की अपेक्षा ज्यादा समय देना पड़ता है । कुल मिलाकर पांच लोग रह गए । समय भी बहुत कम । खैर दो दिन में यह नाटक लिखा गया और दो हफ्ते में एक मंचन तथा  दो महीने बाद  दूसरा मंचन । मानसिक रूप  से कमजोर  लोगों के हालतों के लिए  परिवार और समाज का क्या रैवेया  रहता है इस बात को दर्शकों तक पंहुचाने  का प्रयास इस लघु नाटक में किया है । आज विश्व  मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर इस रचना को अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ  इस लघु नाटक के दो प्रदर्शन हो चुके हैं  इसलिए उन पात्रों का तथा आयोजकों का आभार व्यक्त करना भी अपना कर्तव्य समझता हूँ जिनकी वजह से यह लिखा गया और मंचित हो पाया । जिनमे 

मोनी/रूप सज्जा : अनिल नौटियाल      
बीरू /मंच सज्जा : सुनील कुमार 
अंकल/वस्त्र  : अजीत सिन्हा
प्रबंधन/रूप सज्जा  : श्यामली साहा 
भाईजी/निर्देशक/लेखक: विजय मधुर (स्वयं) 
संगीत : अजय चक्रबर्ती , रंजीत शर्मा  ,घनश्याम 
प्रकाश ब्यवस्था :  टीका राम   
जियोपिक परिवार तथा 
कम्प्यूटर  सोसाइटी ऑफ़ इंडिया , देहरादून  ।    
@2012 विजय मधुर     
-------------------------------------------------------------------------------------------------- रंगप्रेमी साथियो यदि आप इस लघु नाटक का मंचन कर चुके हैं या मंचन करना चाहते हैं तो मुझे प्रसन्नता होगी । मुझे इसमें कोई आपति नहीं | एक अनुरोध अवश्य है मंचन से पूर्व या पश्चात अनुभव एवं अपनी प्रतिक्रिया अवश्य साझा करें । एक लेखक के लिए इससे बड़ा सम्मान कुछ नहीं | 
Email: garhchetna@gmail.com                   
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