शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

कविता: प्यारा शहर

स्वच्छ होगा चमन तो
खिलेंगे फूल बहारों में
इठलायेंगी तितलियां

आँगन बाग़ बगीचों में
घटाएं बिखेरेंगी खुशबू
वातावरण कर देगा
स्वतः ही धराशायी
बीमारी फ़ैलाने वाले
तमाम जंतुओं को
चाहे हों थलचर
जलचर या नभचर
ऐसे में भला 

कैसे न रहेगा
मस्त एवं स्वस्थ
हमारा अजीज़
प्यारा शहर।

@10/2019 विजय मधुर

शनिवार, 28 सितंबर 2019

शुभ महालया


आज का दिन बंगाल और आसाम क्षेत्रों में महालय के नाम से  मनाया जाता है | महा-महान, आलय-घर | मान्यता है कि आज दिवस माँ दुर्गा का अपने मायके में आगमन होता है | नौ  दिन कैलाश से आकर माँ मानव लोक रहती हैं और दसवें दिन पुनः लौटती है जिसे नव-रात्रों के बाद विजय दसमी कहा जाता है | माँ दुर्गा को नौ दिन देवी के बिभिन्न स्वरूपों  में पूजा जाता है | कहते हैं जब महिषासुर ने अपने आसुरी शक्तियों से देवों का जीना दूभर कर दिया था तो माँ को दुर्गा को अवतरण लेना पड़ा और  देवों को असुरों के राज से भय मुक्त करना पड़ा |
                  जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यक्पर्दिनी शैलसुते  
      यह भी मान्यता है कि देव और असुरों के बीच लम्बे समय युद्ध चलने के कारण कई  देवों और असुरों को जान गवानी पड़ी | उनकी मुक्ति के लिए इस दिन तर्पण भी किया जाता है | कहते हैं कि इस समय फसल भी पकनी आरम्भ हो जाती है और मान्यतानुसार  फसल के प्रथम पकवान पितृ देवों को अर्पित किये जाते हैं |      शिल्पकार वर्ग जो लम्बे समय से माँ की प्रतिमा को पूर्ण आकर देने अभ्यस्त रहते  हैं  आज के दिन वह माँ की आँखों को अपने हुनर के रंगों से मानों साकार रूप देते हैं और माँ की प्रतिमा को पूर्ण रूप से स्थापित करने में दैवीय योगदान देते हैं |
इस प्रकार आज के दिन पितृ पक्ष का समापन और देवी के आगमन से उत्सवों का आरम्भ नवरात्रों से लेकर दीपावली तक चलता  है |
भारत वर्ष को यूं ही बिभितताओं का देश नहीं कहा जाता | प्रत्येक क्षेत्र की अपनी एक बोली-भाषा और संस्कृति है | जो कि भारत माँ के आभूषणों का कार्य करती है | माँ के सजे संवरे रूप को देख बच्चों का प्रफुल्लित होना स्वाभाविक है | बच्चों के खुश रहने से माँ की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं होता |
@ ९/२०१९ विजय मधुर









शनिवार, 14 सितंबर 2019

गीत : प्रेम राग

वही गीत गुनगुनाने का
मन करता है डरता है
तारीफ करूँ उसकी
समझता कोई और है
करीबी अपना यहाँ
अब लगता गैर है |
वही गीत गुनगुनाने का ......

जिन्दगी की सुबह
कब हुई याद नहीं
दोपहर में झुलसे हैं
शाम का पता नहीं |
वही गीत गुनगुनाने का ......

इसकी मंजिल
उसकी मंजिल
मंजिलों पर मंजिलें
मधुर लगती भली
तुम्हारी वही गली |
वही गीत गुनगुनाने का ......

गीत के वो बोल फिर से
याद तुम दिला दो
भूल माफ़ कर दो
प्रेम-राग में डूबने दो |
वही गीत गुनगुनाने का ......
 @१०/२०१७ विजय मधुर


गुरुवार, 29 अगस्त 2019

लघु कथा-३ : नया चक्रब्यूह


रमसू के हाथों लिफाका पकड़ाते हए कंपनी के आखिरी पायदान पर खड़े कर्मचारी उमेरु  ने कहा
लीजिये साहब | लगता है अब कम्पनी में आपका समय पूरा हो चुका है | पिछले दस दिन से ऐसे ही लिफ़ाफ़े सौंपने के जुर्म में कई लोगों की बद-दुआएं ले चुका हूँ | आपने भी जो कहना है कह दीजिये | मैं हूँ चौकीदार | गेट पर खड़े रहने के साथ-साथ चपरासी का काम कर रहा हूँ | मेरा क्या ? आज इस गेट पर कल दूसरे गेट पर चला जाऊँगा | ठेकेदार का आदमी जो ठहरा |

ठीक है तुम जाओ | तुम कम से कम किसी के आदमी तो हो | हम तो लगता है किसी के  नहीं |

कहते-कहते रमसू ने एक सांस में मनहूस पत्र को दो-तीन बार पढ़ लिया | चौकीदार की आशंका गलत न थी लेकिन उसे कोशने का मन नहीं हुआ | किसी तरह कुरसी के हत्थों का सहारा लेकर उन्हें जोर से भींच लिया और आँखे मूँद ली | आस-पास बैठे सहकर्मियों में किसी की हिम्मत न हुई कि जाकर रमसू को ढांडस बंधाये | इसी डर से कहीं एसा करने से उनको भी लिफाफा न आ जाये |

बाकी नौकरियों को ताक पर रख इस नौकरी को पाने के लिए कितनी मेहनत की थी उसने | एक जूनून था टेलेंट के मुताबिक जॉब पाने और उसे इम्लिमेंट करने का | अच्छी नौकरी होने के कारण शादी भी जल्दी हो गयी | पांच वर्षों में गाड़ी और फ्लैट भी फाइनेंस करा लिया | अब क्या होगा ? कैसे चलेगा घर ? कैसे अदा होंगी बैंक की किश्ते ? बाप-दादा भी तो कोई जमीन-जायदाद छोड़ कर नहीं गए | बैंक तो पुराने ज़माने के साहूकारों के बाप हैं | नौकरी जाने के बाद अपने मित्र हर्षि की कहानी उसे अपने इर्द-गिर्द घूमती नजर आने लगी | चाहने पर भी वह खुद उसकी मदद न कर सका | न जाने कितनी जगह उसका रिज्यूमे दिया |

पिछले ढाई बर्ष से बेचारा महाभारत के अभिमन्यु की तरह परिवार, बैंक और कोर्ट के चक्रब्यूह में फंसा है | बाबजूद क्वालिफाइड होने के उसके लिए मानों सारी कंपनियों के दरवाजे बंद हैं | परिवार,नाते-रिश्तेदार,बैंक,कोर्ट-कचहरी,जेल रूपी नए चक्रब्यूह की कल्पना मात्र से उसका शरीर कांपने लगा | कुरसी-टेबल के हिलने की आवाज सुनकर चौकीदार दौड़ा आया और रमसू को झकझोरा |

क्या हुआ साहब .... क्या हुआ आपको .... |
जैसे एक लम्बी तंद्रा से जागकर रमसू की बिस्मृत सी आँखों ने उमेरु की तरफ देखा और सिर झुका लिया |

साहब काफी देर हो चुकी है, सारे लोग घर जा चुके हैं | केवल बड़े साहब बैठे हैं | मैं उनसे रिक्वेस्ट करके आपको घर छुड़वाने का इंतजाम करवाता हूँ अभी | सब ठीक हो जाएगा साहब ...हिम्मत रखो ....खुद को संभालो .... भगवान् सब ठीक कर देगा |
 @८/२०१९ विजय कुमार मधुर 



शनिवार, 27 जुलाई 2019

लघु कथा-२ : सिहांसन

      आज ही तो राजन ने सपना देखा था भोर का । वह देवलोक में इंद्र के सिहांसन पर विराजमान है। दरबार सजा है । अप्सराएं घेरें खड़ी हैं । 
        पहले मां बाप को कोसने वाला 'नाम रख दिया राजन और खाक छान रहा हूँ गलियों की । भिखारी से कम नहीं ' । आज खुश था । खुशी के मारे दो-तीन बार मौका देख पत्नी ओमनी को भी सीने से लगा बैठा। ' "सोणी लाग रही हो तुम"।

ओमनी ने भी कसर नही छोड़ी--- झिड़क दिया |
" क्या हो गया ...मुंह से देशी की बास भी तो नहीं आ रही है । होश में तो आज तक कभी बोल्या नही। काम करण दे । किसी ने देख लिया तो ..।
इतने में ही आंगन के छोर से चिल्लाता पुत्तीन आ धमका । "कहाँ है राजन ! बाहर आ जल्दी। मिठाई खिला। इस बार चुनाव में असली पार्टी की ओर से जातीय और वोट बैंक समीकरण के आधार पर तेरी उम्मीदवारी पर मुहर लग चुकी है । जिताना पार्टी का काम है । सीधे शहर से आ रहा हूँ। जो इन कानों से सुना है  बता दिया । आज पंचायत में  ... कल छोटा मंत्री ... परसों अपना यार बड़ा मंत्री "। पुतीन ख़ुशी के मारे सौ रूपये का नोट राजन के सिर पर रख उसके चारों तरफ घूम-घूम कर नाचने लगा । राजन को लग रहा था जैसे वह भोर के अधूरे सपने को पंख लगते देख रहा है ।
@20१९ विजय मधुर

शनिवार, 13 जुलाई 2019

लघु कथा-१ : ठोकर


       ऑफिस बस से उतरकर जैसे ही घर की तरफ आगे बढ़ा ही था विकल्प कि अचानक ठोकर लग गयी | मुंह से अनायास ही निकल पड़ा | माँ ........| अच्छा हुआ इसी बहाने तो सही माँ की तो याद आयी ठोकर को भूलकर मन ही मन उसने कहा | अब उसके दृष्टिपटल पर वह दृश्य उभरने लगा जब वह छोटा था और एक दिन माँ के आगे–आगे चल रहा था | अचानक उसे एसे ही ठोकर लगी थी और वह गिरते–गिरते बचा | पहले तो माँ से खूब  डांट पड़ी | 
“देखकर नहीं चल सकता अभी कुछ हो जाता तो …. |” और उसके जूते मौजे निकालकर पैर की मालिस करने लगी | जबकि वह कह भी रहा था | ‘कुछ भी तो नहीं हुआ | माँ !  तू भी खाम-खां परेशान हो रही है |'
यही नहीं घर पंहुचते ही सबसे पहले गर्म पानी में नमक डाल कर उसके पैर की शिकाई करने बैठ गयी | 
अभी पिछले महीने ही गाँव के किसी व्यक्ति के मोबाइल फ़ोन से उसने फोन किया था | 
“बेटा ! अब हाथ-पैर-कमर ने जबाव दे दिया | कमरे से बाहर निकलना भी दूभर हो गया है | किसी तरह घिसटते हुए नित्यकर्म के लिए जा पा रही हूँ | दो-चार दिन के लिए बच्चों समेत गाँव आ जाता तो कितना अच्छा होता | मरने से पहले तुम सबको देख लेती | वेसे भी तुम लोगों को देखे छः-सात महीने बीत गए | हर बार की तरह इस बार भी कोई बहाना मत बना देना | 
इसी उधेड़बुन में क्या करूँ क्या न करूँ विकल्प घर में पहुँच गया | दरवाजे पर मुस्कराते हुए स्वागत करती पत्नी को खड़ी देख सारी उधेड़बुन छू मंतर हो गयी | बैठक में टेबल पर पानी, चाय-नाश्ता लगा हुआ था | माथा ठनक गया जरुर कोई बात है | विकल्प ने अभी चाय का एक ही घूँट पिया था कि पत्नी लक्ष्मी से नहीं रहा गया और बोलना आरम्भ कर दिया | 
“सुनो अगले हफ्ते मेरी माँ आ रही है बड़ी दीदी के साथ । मैं सोच रही हूँ कि उन दोनों के लिए हवाई जहाज की टिकट भेज दूं | आजकल हवाई जहाज के टिकट भारी डिस्काउंट में मिल रहे हैं | सेकंड ऐसी ट्रेन टिकट और उसमें मामूली फर्क है | बस छः हज़ार के आस-पास | वेसे भी उन लोगों ने कब हवाई जहाज में बैठना है | मैंने हवाई जहाज की दो टिकटों के लिए पड़ोस वाले टिंकू से बात कर ली है | कल उन लोगों को भेज देगा |” 
एक ही सांस में लक्ष्मी ने अपनी बात कह डाली | विकल्प के पास अब कोई विकल्प शेष न था और वह बिना कुछ कहे चुपचाप अपने कमरे में जा कर बेड पर पसर गया | जूते-मौजे निकालने और घुटने में ठोकर के कारण हो रहे दर्द को सहलाने की भी उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी | 
@२०१८ विजय मधुर 

रविवार, 7 जुलाई 2019

कविता : मेरा अक्स

जीवन दुखों का पहाड़ है
सुख ढूँढना काम है
कब तक चलना पड़े
पथरीले डगर पर
पैरों के छालों का
यहाँ क्या दाम है ?
 
दिखते हैं मकान ऊंचे
बाहर से ...
भीतर से
खिड़की दरवाजे बंद हैं
टकराती है जहरीली हवा
दीवारों से ....
पत्तियों की सरसराहट का  
यहाँ क्या काम है ?

आज कल करते-करते
जिंदगी निकल जाती है
जख्म नासूर् बन जाते हैं
ठेस मात्र से ही
पहुँच जाती है 
वेदना चरम पर ...
भला मरहम
कौन सी बला का नाम है ?

मेरा अक्स ढूड़ोंगे
उन कंदराओं
पगडंडियों में
जहाँ से पंछी भी कर चुके होंगे
पलायन ...
कर पाओंगे 
फर्क वहां
सुबह दोपहर या शाम है ?
@२०१९ विजय मधुर