शुक्रवार, 21 जून 2013

प्रकृति का प्रकोप

वही  कलम
जो प्रकृति के ....
सौन्दर्य को देख
दौड़ने लगती थी 
कभी .......
लम्बी थकान के बाद 
उस मिट्टी का 
स्पर्श पाते ही ,
चरणों में उसके
चढ़ने वाले
पुष्प की भांति  ।
आज ....
शब्दहीन
संवेदनाहीन   ....
बैठी है खामोश
उनकी तरह 
जो अपनों की
लाशों  के बीच
भूख .... प्यास .....
शर्द  ..... दर्द .... की  ...
शून्यता में
कर रहे हैं इन्तजार
मौत का ..... ।

@२०१३ विजय मधुर

 

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