गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

सूरज









सूरज को अगर                 
बादल
ढक भी दे
तो क्या हुआ
कब तक
रोक पाएंगे वह
उसकी किरणों को
धरती में
आने से |

समझते हैं
बादल भी
उसके बिना
कँहा है उनका
अस्तित्व |

कुछ समयांतराल में
धूल ......
मिट्टी ...
धुंद .....
को हटाकर
कर देती हैं
किरणों का
मार्ग प्रसस्त |

अब किरणे
और भी
प्रखर हो
घास ...
पत्तियों ...
कलियों ...
फूलों ..... पर
अटकी
बारिश के बूंदों पर
चमक उठती हैं |

तितलियाँ
अठखेली करती
भँवरे
गुनगुनाने
लगते हैं |

सूरज
जानता है
जेसे  होता  है
रात और
दिन का  मेल ...
वेसे ही
होता है
बादलों और
किरणों की
लुका छुपी का
यह अदभुत खेल |
Copyright © 2011 विजय मधुर

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

वेलेंटाइन डे

कहानी
         तीन दिनों से लगातार बारिश होने के कारण ठण्ड अधिक बढ़ गयी थी | सूमा ने जो गरम कपडे आलमारी में संभाल कर रख दिए थे | फिर से बाहर निकाल दिए | आँगन में दो छोटी छोटी गौरेया चहल कदमी कर रही थी | कभी घोसले  के पास से तो कभी बरामदे के आस पास बने झरोखों से आती बारिश में ही कुछ ढूँढने का प्रयाश करती , भीग कर वापस चली जाती | बाकी सभी चिड़िया चुपचाप बारिश की बूंदों को निहारती , जसे मन ही मन  सोच रही हों कितनी जल्दी ये बारिश रुकती और हम चले जाते दाना चुघने | वेसे भी दो  दिनों से कुछ ठीक से खाया भी नहीं | संजीव खिड़की से सटे दीवान पर कम्बल ओढ़े यह सब ध्यान से देख रहा था |संजीव की पत्नी सूमा किचन में कटर पटर कर दिन के भोजन की तैयारी कर रही थी |किचन से ही आवाज आती है अब उठ भी जावो ....इतने बूढ़े भी नहीं हुए हो अभी | पड़ोस के बर्मा जी से कुछ सीखो | इतनी बारिश में भी सुबह सुबह घूम कर आ गए   | हाँ हाँ सब सुन लिया मैंने | उस कमबख्त का तो काम ही क्या है | दिन भर इधर उधर घूमता रहता है | जल्दी सो जाता है | उलुओं की तरह रात को चार बजे उठ जाता है | बेचारी कितनी भली हैं वो भाभी जी | परेशान कर के रखा है उनको | सूमा हाँ..... मेरे अलावा तो सभी भली हैं...| अब बर्तन खनखनाने की आवाज तेज हो जाती है |उधर आँगन में दोनों गोरेय्यों का वही शिलशिला जारी रहता है|परन्तु हर बार में उनकी नजदीकियां बढ़ रही थी | वे दोंनो युवा नर मादा थे  | पिछले कई बर्षों से संजीव देखता आ रहा था |एक निश्चित समयांतराल के  बाद गोरेय्यों का एक जोड़ा बरामदे  की छत पर बने पंखे के के हुक के पास अपना घोसला बनाते  आ रहे  हैं | मादा उसमे अंडे देती | कई बार तो उससे अंडे नीचे फर्श पर भी गिर जाते | इसलिए हुक निकाल कर उस जगह पर लगी पती को आगे खिसका दिया था | तभी से उसको उनके बारे में ज्यादा जानकारी मिली | नर का रंग कुछ कुछ लाल होता है तथा मादा का हल्का भूरा | वेसे ही युवाओं में थोड़ा फुर्ती जयादा तथा छरछरे होते हैं | मादा उस घोसले में अंडे देती | अन्डो से बच्चे निकलते | जैसे ही बच्चों के पर निकलते वे फुर से उड़ जाते | रह जाते वे दोनों बेचारे और एक दिन वह भी उढ़ जाते | अब अगली बार वही वापस आते या कोई और इस पर प्रश्न चिन्ह लगा है | संजीव तो कहता वही वापस आते हैं | जबकि सूमा कहती कोई और ....|  अब सूमा भी दीवान के पास रिमोट ले कर आ गयी  | लेकिन संजीव आँगन में हो  रही चहलकदमी में इतना खो गया था क़ि उसे पता ही नहीं चला सूमा वंहा आ कर बैठ गयी  | क्या देख रहे हो ........| आज तक इनको देखा नहीं | लेकिन सूमा की बात जैसे  उसे सुनाई ही न दी हो | इसी दौरान फिर से तर ब तर भीगे दोनों गोरेया आते हैं | आपस में जैसे कुछ बतियाते हैं और फुर्र से कंही दूर उढ़ जाते हैं | गुस्से में सूमा टेलीविजन ऑन कर देती है | जिसमे सुर्खिंयों में था | आज दुनिया भर में वेलेंटाइन डे की धूम | 
Copyright © 2011 विजय मधुर 

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

एक और प्रथा का बोझ

अंधेर नगरी चौपट राजा
            प्रथाओं का भारी बोझ ढोते उसकी  कमर ही झुक गयी | उसके कई दोस्त तो लाठी के सहारे चल रहे हैं तथा कितनो की तो बेचारी कमर टूट ही  गयी |  जी हाँ मै बात कर रहा हूँ एक नयी प्रथा की जो आजकल कुछ  लोगों को तो खूब फल फूल रही है | दिन दूनी रात चौगुनी कमाई हो रही उनकी | लेकिन इस प्रथा के जो बलि के बकरे है  जरा उनका हाल तो जाने | कल का पता नहीं है उनका | काम करते करते आँखे फूट गयी कमर टूट गयी | झोपडी में दिन  बिता रहे हैं | बीबी लोगों के घरों में झाड़ू पोचा लगा रही है | बच्चे अच्छी शिक्षा के लिए तरस रहे हैं | न तो वह अपने आप को भिखारी समझते ना ही कामगार | अच्छे लोगो के बीच काम जो  करते हैं | इसलिए अपनी लाचारी का बोझ तब तक सीने में लिए घुमते हैं जब तक शरीर में जान होती है | कभी सुना था कु प्रथाओं का जन्म अज्ञानता व अशिक्षा से होता है | परन्तु यंहा तो एसा भी नहीं है | एक नाटक मुझे बड़ा अच्छा लगता है | मैंने खुद उसके दो तीन शो करवाए | नाम है अंधेर नगरी चौपट राजा ....|  नाटकों में आजकल किसको दिलचस्पी | टेलीविजन में सीरियल तरह - तरह के आते हैं | जो मज़ा उनमे है वह नाटको में कहाँ | रंगकर्मी तो बेचारे महीनो भर नाटक की रेहेल्सल करते हैं | लोगो के आगे हाथ पसार - पसार कर मंचन के लायक धन जुटाते हैं | दर्शकों का टोटा सो अलग | टिकेट की बात तो दूर पास देने पर भी नहीं आते | भले ही कुछ बड़े - बड़े शहरों की परिस्थिति भिन्न हो | लेकिन जिस प्रथा की मै बात कर रहा हूँ उसकी शुरुआत ही बड़े - बड़े शहरों के बड़े - बड़े लोगो से ही हुई | कहते हैं ना ऊंचे लोग  की ऊंची बात | तभी तो खूब धड़ल्ले से चल रही बल्कि दौड़ रही है | चलती का नाम गाडी |  लगता नहीं अब इसकी रफ़्तार कभी धीमी होगी | स्कूल , कॉलेज , अस्पताल , होटल ,कूड़ेदान , पार्किंग , फैक्ट्री, दफ्तर लगभग सभी जगह खूब चल रही है यह प्रथा | 
 नाम तो बता दो दोस्तों ....???????
Copyright © 2011 विजय मधुर

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

परछाई

          परछाई से  कभी कभी बड़ा डर लगता है  |आगे , पीछे , दांये  कंहा नहीं होती है यह   | जैसा करो उसकी हू ब हू नक़ल | नकलचियों की तो वेसे भी आज कल खूब हो रही है बल्ले बल्ले | दो सौ रूपये की ब्रांडेड चीज पचास रूपये में , ढाई तीन हजार की चार पांच सौ रूपये में | असली नकली का जल्दी से कोई फर्क ही नहीं कर पाता | खाने में मिलावट, पीने में मिलावट, तेल में  घी में सब में मिलावट | नकल में भला कोई किसी से पीछे क्यों रहे वो भी तब जब उसमे खर्चा चव्वनी आमदानी रुपया | संया भई कोतवाल तो डर काहे का |  आज प्रातः  खिड़की की तरफ पीठ करके कुछ लिख रहा था यही परछाई मेरे शब्दों को ढक रही थी जैसे कह रही हो क्या जरूरत है  एसे ऊट पटांग लिखने की | आज की भागम भाग दुनिया में किसे फुरसत है यह सब पढने की | कुछ लोग तो एसे भी हैं जिन्हें अपनी परछाई तक भी नहीं  दिखाई देती | अतीत तक को भी वह बड़ी जल्दी भुला भुला देते हैं अपनी शान सौकत में | भला इंसान चाहे बुरा बन जाय , साधू चाहे हैवान बन जाय | प्रलोभन , पलड़ा -भारी , मौका परस्ती उसकी फितरत में नहीं है | लोग अक्सर दूसरों को कहते हैं खाली हाथ आये थे खाली हाथ जाना है | सभी कुछ यंहा छूट जाना है | साथ कुछ भी नहीं जाना है | तब वह सब करते हैं जो करना नहीं चाहिए | परन्तु यह कटु सत्य है परछाई कभी साथ नहीं छोड़ती |  चाहे सुख  हो या  दुःख , चाहे कोई कितना बदल जाये या नीचे गिर जाय |यह हमेशा  साथ निभाती है | यंहा तक कि  अंत में भी उसी काया के साथ बिलीन हो जाती है | यह आज तक सुनने में नहीं आया कि फलां चला गया और रह गयी उसकी परछाई |
Copyright © 2011 विजय मधुर