बुधवार, 9 नवंबर 2016

लेख : क्रिकेट का जश्न

आज एन बक्त पर बिजली गुल हो गयी | कंही एसा तो नहीं कि बिजली सस्ती होने का खामियाजा भुगत रहें हैं एकाएक मन में ख्याल आया | नयी सरकार जो बन गयी है |  बिजली कंपनियों को कौन बोले | उनके पास पावर है | अच्छा भला मैच चल रहा था | लेकिन पड़ोसियों के यंहा का हल्ला कम नहीं हुआ उनके यंहा अभी भी मैच चल रहा है | इंडिया बैटिंग कर रही है |  कंही ऐसा तो नहीं केवल हमारे घर की | दरवाजा खोलते ही पड़ोसियों के दरवाजे के पास रखे इन्वर्टर की  घर्ररर..... की  आवाज कानों में आते ही समझ गया | यह सब इसकी कृपा है जिसकी मेहरबानी से पड़ोसी मैच का लुत्फ़ उठा रहे हैं और हम बिजली वालों को कोस रहे हैं |  

बचपन के वह दिन याद आ गए | जब पूरे बाज़ार में सिर्फ डिग्री कॉलेज के प्रोफेसर मौर्य साहब का इकलौता ब्लैक एंड वाइट टीवी हुआ करता था | रविवार सुबह रामायण और शाम को फिल्म देखने के लिए सारे बाज़ार के लोग उनके टीवी वाले कमरे में ठूंस – ठूंस कर भर जाया करते थे | जब कमरे में तिल रखने की जगह नहीं बचती तो लोग दरवाजे और खिड़की पर खड़े हो कर टीवी देखते थे | बेचारे मौर्य साहब के परिवार तक को हिलने – डुलने की जगह नहीं बचती थी | दर्शक तभी वंहा से हिलने का नाम लेते जब या तो टीवी बंद हो जाता या बिजली गुल हो जाया करती थी | वंहा बिजली गुल होने का मतलब लम्बे समय के लिये छुट्टी | दिन सप्ताह लग जाते थे विजली आने में | यंहा कम से कम एसा तो नहीं | देर सबेर आ ही जायेगी | लेकिन यंहा एसा भी तो नहीं कि पड़ोसी के यंहा जाकर थोड़ी देर मैच देख लिया जाए | क्या करें शौपिंग मॉल भी तो दूर है नहीं तो वंही जाकर देख लिया जाता मैच | आज का मैच तो गया | अब हाईलाइट देख कर काम चलाना पड़ेगा | मुश्किल से एक घंटे का टाइम तो बचा होगा मैच ख़त्म होने में | बम पटाखे फोड़ने की उत्सुकता क्षीण पड़ गयी | मैच किसी और देश में चल रहा है तो क्या हुआ, है तो पर्तिद्वंदी टीम के बीच | आज तो टीवी समाचार चैनलों की बल्ले – बल्ले हो गयी | आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में शहीद हुए जवान की खबर हासिये पर रख कप्तान ... बल्लेबाजों ... और बोल्लरों की तारीफों के पुल बांधने से नहीं थकेंगे | और अगर इंडिया हार गयी तो समझो सबकी खैर नहीं | लेकिन एसा होगा नहीं | बम पटाखे बेचारे रखे – रखे ख़राब हो जायेंगे | किसकी मजाल जो जनता को बम – पटाखे फोड़ने से रोके | प्रदूषण होता है तो होने दो | किसी का दम घुटता है तो घुटने तो | कोसने के लिए सरकार तो है ही |

वेसे भी पिछले एक सप्ताह से टेलीविजन के सभी समाचार चैनलों पर क्रिकेट की चर्चा चल रही है | बड़े – बड़े धुरंदर, पूर्व क्रिकेटर और विशेषज्ञ पुराने आंकड़ों के अनुसार मैच के हार जीत का आकलन कर रहे हैं | सुना है सट्टेबाजी का बाज़ार भी गरम है | कुछ क्रिकेट को अनिश्चितताओं का खेल बताकर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं | तो कुछ आंकड़ों के जोड़ तोड़ से इंडिया की जीत पक्की का दम भर रहे हैं | परिणाम कुछ भी हो थोड़ी देर में पता चल ही जायेगा | पड़ोसियों के घर के जोरदार हल्ले से या अचानक सन्नाटे से या उससे पहले बिजली आ गयी तो सोने पर सुहागा |

जनता का दबाव मैच ख़त्म होने से पन्द्रह बीस मिनट पहले सभी घरों से एक साथ आवाज आयी वाह ...... बिजली आ गयी ... बिजली आ गयी | बिजली का इतना बड़ा स्वागत पहले कभी नहीं देखा | पत्नी भी गैस पर उबलते पानी में चाय पत्ती चीनी डालने के पश्चात दूध डालने की हिमाकत नहीं करती | गैस बंद कर दौड़ी – दौड़ी टीवी के पास आ पंहुचती है | मैच अपने निर्णायक दौर में आ पंहुचा था | बची बोलों से लगभग दोगुने रन | शीर्ष बैट्समैन दर्शक दीर्घा से हठ कर बने केबिन में बैठ नाखून चबा रहे होते हैं | दर्शक भी सांस रोके बैठे थे | न जाने अब क्या होगा | सन्नाटा पसरा था | सन्नाटे को तोड़ते हुए पत्नी बोली सुनो फ्रिज के ऊपर से ज़रा मेरी बी.पी. की दवाई दे दो .... पानी भी ले आना एक गिलास | इतने में ही जोरदार छक्का लग गया | सभी घरों से एक सुर में तालियों के साथ हल्ला .... छक्का ....| मैच के ऐसे नाजुक दौर में छक्का लग जाय तो उत्साह बनता ही है | उसके बाद एक - एक दो - दो रन के साथ – साथ चौकों और आख़िरी के बैट्समैनों के बदौलत भारत जीत गया | बम – पटाखों की आवाज से आसमान गूँज उठा | लोग ढोल नगाड़ों के साथ सड़कों पर नाचने लगे | मिठाई बंटने लगी | टीवी मुख्य स्क्रीन पर जीत के हीरों तो स्क्रीन के हासिये पर सैनिक की शहादत की खबर के साथ – साथ बड़े – बड़े नेताओं के बधाई संदेशों की लकीर चल रही थी | हाथ में पानी के गिलास और बी.पी. की गोली को पत्नी की ओर बढ़ाते हुए .. लो गोली खा लो | इसे अब तुम ही खाओ ..... खुश तो होते नहीं कभी .... अब भी पता नहीं क्या चल रहा होगा दिमाग में  | सोफे से उठते ही वह बोली और दरवाजा खोलकर बाहर चली गयी |

@२०१६ विजय मधुर 

शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

कविता : हादसों का शहर

दिलवालों का नहीं 
हादसों का शहर 
बन गया है यह 
बदलते मौसम में 
बीमारियों का घर 
बन गया है यह |

कूड़े के ढेरों पर 
लगे हैं ... 
स्वच्छता के 
इश्तेहार .....
शहर अब यह 
राजनीति का 
अखाड़ा बन गया है |

आन्दोलन चला 
जंहा से 
बेटियों की रक्षा का 
वंही बेटियों को 
शरेआम 
कुचला जा रहा है |

दिलवालों का  नहीं 
हादसों का शहर 
बन गया है यह |

@२०१६ विजय मधुर 























गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

आत्मीयता (कहानी)

दिन भर की आपाधापी के पश्चात् रात के डेढ वजे सोसाइटी में सन्नाटे को देख लगा कि रात हो गयी | लेकिन अब भी सन्नाटे को तोड़ रही थी चौकीदार के ठक – ठक जमीन पर पटकते डंडे की आवाज | सुमेर की आँखों से नींद अभी भी कोसो दूर थी | पत्नी चार दिन से अपने ऑफिस के टूर पर गयी हैं गोवा | बेटा दोस्तों के साथ ... दो दिन से घर नहीं आया | आज शाम को फ़ोन आया “ पापा मै आज नहीं आ सकता आप इन्तजार मत करना “ | बिज़नस का भी हाल अच्छा नहीं | पहले तो कमर तोड़ी बड़े बड़े शॉपिंग मॉल ने | प्रत्येक ग्राहक मॉल ही जाना चाहता है  | एयर कंडीशन , लिफ्ट , अस्क्लेटर ,नामी ब्रांड के सामान में आकर्षक छूट | दो के साथ एक फ्री | इ.एम्.आई. आप्शन | न जाने क्या – क्या | नयी दुनिया के नए फंडे | और अब मॉल के पश्चात ऑनलाइन शॉपिंग की तो जैसे बाढ़ ही बाढ़ आयी है | टेलीविज़न, इन्टरनेट , मोबाइल फ़ोन पर ही आर्डर बुक हो रहे हैं | घर बैठे – बैठे लूंण – तेल, साग – भाजी , फल – फूल , लते – कपड़े , सुई  से लेकर सब्बल तक हाज़िर हो रहे है | जो बच्चे अपने माँ-बाप के कहने अपर इधर का गिलास उधर नहीं रखते | मोटर साईकल में अपनी पीठ पर वजनी सामान  ढोए फिरते हैं | टेलीविज़न चैनल पर मॉडर्न लड़के लड़कियां पांच सौ रूपये के मोबाइल फ़ोन की खूबियों में चार चाँद लगा रहे हैं | अब लगता है हमारे शो रूम के साथ हम भी आउट डेटेड हो गए हैं | यही सोचते हुए फ्लेट से बाहर निकल टहलते हुए गेट पर और गेट से कुछ आगे निकल गया | सोसाइटी से कुछ दूर कतारवद्ध सारी दुकानों के सट्टरों के आगे आँखे मूंदकर कर दिन भर की थकी मारी छोटी बड़ी गाड़ियाँ सो रही थी | तिरपाल से ढकी ठेलियों के भीतर फल सब्जिंयाँ एक दूसरे के प्यार से लिपटी हुई थी | उनमे जरा भी हलचल नहीं थी | सुमेर को आगे जाना इसलिए उचित नहीं लगा कंही उसके क़दमों की आहट से किसी की  नींद न खराब हो और वापस अपने गेट की ओर लौट आया | दुकानों के आस पास तो यह सोच कर गया था क्या पता कोई चाय की ठेली अब भी खुली हो | चाय के साथ सिगरेट भी पीने को मिल जायेगी लेकिन एसा नहीं हुआ | अभी अभी सुलगती अंगीठी के पास चौकीदार बीड़ी सुलगाकर बैठा ही था कि सुमेर को देख हडबडा कर खड़े होते हुए बोला

 बाबू जी आप ....  इतनी रात को ...
बैठो ... बैठो .... नींद नहीं आ रही थी .... इसलिए ...अभी – अभी बैठा हूँ सोसाइटी का चक्कर काटकर ..मैंने देख लिया था .... मै थोड़ी देर तुम्हारे साथ बैठ आग सेक लूं ....बाबू जी आप .....
लाओ एक बीड़ी मुझे भी दो ....साहेब आप मजाक ....कोई ....अरे नहीं भाई .... इतनी रात को कौन देख रहा है  ...... सुमेर चौकीदार द्वारा जुगाड़ से चार – टागों पर किसी तरह खडी की गयी कुर्सी पर अंगीठी की तरफ आगे हाथ फैलाकर बैठ गया | चौकीदार अपने आप को बड़ा असहज महसूस कुछ दूर खड़ा हो गया | उसे यह भी डर सताने लगा कंही जुगाड़ वाली कुर्सी जबाब न दे दे | अंगीठी से काफी दूर खड़े इतनी ठण्ड में भी उसे पसीना आने लगा | सुमेर सोसाइटी का एसा वेसा आदमी नही बल्कि नए सेक्रेटरी गुप्ता जी से पहले वही सोसाइटी के सेक्रेटरी हुआ करते थे | उनके कार्यकाल में ही तो गणपत यंहा चौकीदारी करने आया था | इससे पहले किसी दूसरी सोसाइटी में वह चौकीदार था | एक रात झपकी आने के जुर्म में  वंहा के सेक्रेटरी ने उसे नौकरी से निकाल दिया | कितना गिडगिडाया साहव मेरे आठ महीने के बेटे को बुखार था | पूरे दिन सोने का समय नहीं मिला | बीबी काम से चार बजे लौटी | लेकिन उन्होंने एक नहीं सुनी | भला हो सोसाइटी में एक काम वाली बाई का | उसी बक्त वह भी काम निपटाकर घर लौट रही थी | कुछ दूर चलते – चलते उसके सामने अपना दुखड़ा रोया | अब कंहा जाऊं | एक महीने तनखा न मिली तो कंहा जाएगा तीन छोटे – छोटे बच्चों और पत्नी को लेकर | पत्नी लोगों के घरों में काम करती है | उसकी तनखा से तो दो बक्त की रोटी भी ठीक से नहीं निकलती | मकान मालिक इतना खडूस किसी महीने यदि एडवांस किराया नहीं मिला तो उसी दिन घर के भांडे वर्तन बाहर सड़क में फ़ेंक देगा | बेचारे उसके पड़ोस में रहने वाले रहमान के साथ ऐसा ही तो किया उसने | पूरे दस – बारह किरायेदारों में से किसी की हिम्मत न पडी उसके सामने रहमान की मदद करने की | किरायेदार ही नहीं मोहल्ले वाले भी कम नहीं डरते उससे | आचरण .... छी ...छी ... एक  किरयादारिन के यंही मरा रहता है रात दिन | किसकी हिम्मत जो उसे कुछ बोले | आदमी जो नहीं है उसका | बड़े – बढ़ों  से जान पहचान है सुसरी की | अब तो सुना है ख़ास पार्टी से चुनाव का टिकट दिला रही है सुसरे को | आजकल गली – गली हाथ जोड़े फिरता है | भेड़िया ....गिरगिट ....| मै भी खाम खां यह दुनिया अच्छे – बुरे इंसानों से भरी पड़ी है | एक सेक्रेटरी ने नौकरी से निकाला दूसरे ने काम वाली बाई की सिफारिश पर नौकरी दी | काम देने वाले के सामने कैसे बैठे | क्या कहे .... बीड़ी वाली बात सुनने के बाद तो जैसे मुंह में ताला ही पड़ गया था | गणपत यह सब सोच ही रहा था कि उसका रात्रिकालीन दोस्त पल्टू गणपत के पैरों के पास पूरे अधिकार से आकर बैठ गया और सामने कुर्सी पर बैठे सुमेर को ध्यान से घूरने लगा जैसे पहली बार उसे देखा हो |

चल बाहर .... जा ..... उठ ....
अरे ... रहेने दो बेचारे को क्यों इस ठण्ड में बाहर भगाते हो .... | सुमेर ने दया भाव से पल्टू की ओर देखकर कहा |
लेकिन साहेब आप तो जानते ही हो यंहा सोसाइटी के भीतर कुत्तों का आना मना है ...
यह क्या बिगाड़ रहा किसी का | अभी थोड़ी देर में चला जायेगा |
हाँ साहेब !  लोग गेट के बाहर तो इसे प्यार से दूध .... डबल रोटी खिलाते हैं | लेकिन गेट के भीतर डंडा मारते हैं । यंहा किसी ने इसे देख लिया तो इसके साथ – साथ मेरी भी सामत आ जायेगी | मेरा तो दोस्त है यह पल्टू | आप जानते हैं..... यह रात को मेरी मदद करता है | जब मैं सोसाइटी का चक्कर काटता हूँ ..  यह गेट की ड्यूटी बजाता है | मेरे से बातें करता है | जब कभी अंगीठी में आग खत्म हो जाती है तो मैं  इसके पेट पर हाथ रख देता हूँ | हाथ गरम .... ठण्ड गायब । ठीक साढ़े चार बजे सुबह  यह गेट के बाहर चला जाता है | पल्टू को सहलाते हुए .. मेरा तो दोस्त है यह ..पल्टू | जानते हो इसका नाम मैंने पल्टू क्यों रखा है | यह गेट के बाहर एकदम पलट जाता है | जैसे मुझे जानता ही नहीं |
ठीक नाम रखा है तुमने इसका .... | माफ करना साहेब मैं न जाने भावुकता में क्या – क्या कह बैठा |
ठीक है कोई बात नहीं |  इंसान भावुकता में मन की बात कह देता है |  जो कभी - कभी उसे भारी पड़ जाती है । लम्बी सांस लेते हुए .. खैर छोड़ो यह सब ..... लाओ बीड़ी दो एक .... |
साहेब सचमुच आप ....हां भई ... दो ...डरते – डरते गणपत ने अपनी सिक्यूरिटी गार्ड की ड्रेस वाली बेल्ट के बीच ठूंसे हुए घोड़े छाप बीडी का बंडल निकाल दिया | उसे अभी भी डर लग रहा था साहेब ने उसे बीडी पीते देख लिया था | इसी बात पर बाहर का रास्ता न दिखा दें | फिर अपने दोस्त की तरफ देखा अब दोस्त तुम ही बताओ क्या करूं | दोस्त ने पलक झपक दी | गणपत का साहस बढ़ा | बीड़ी का बंडल सुमेर की तरफ बढ़ा दिया | सुमेर ने बंडल में से एक  बीड़ी निकाल कर बंडल वापस गणपत को दे दिया । गणपत ने सुमेर के समय दी गयी गार्ड वाली ड्रेस के बेल्ट में झट से ठूंस लिया । 

साहेब मैं अभी आता हूँ एक चक्कर मारकर |

कुछ दूर आगे जाकर अँधेरे का साहरा लेकर वह सुमेर को देखने लगा | मन ही मन सोचने लगा क्या बड़े लोग भी बीड़ी पीते हैं | दस बरस हो गए हैं उसे इन सोसाइटीयों में काम करते हुए आज तक उसने किसी साहब को बीडी पीते नहीं देखा | वह तब तक सुमेर को देखता रहा जब तक सुमेर को अंगीठी में जलते आग के कतरे से बीडी जलाते और कस लगाते अपनी आँखों से नहीं देख लिया | उसको आज यकीन हो गया कि बड़े लोग भी बक्त आने पर बीड़ी पी सकते | उसका दोस्त पल्टू गर्दन जमीन पर सटाकर सो जाने जैसी मुद्रा में ही कभी – कभी सुमेर को देख रहा था |

 पल्टू को आभास हो गया कि कुर्सी में बैठे साहब परेशान हैं | उससे सुमेर की परेशानी नहीं देखी गयी और जमीन पर लेटे – लेटे घसीटता हुआ सुमेर के पैरों पर सिर रख लेट गया | अनायास ही सुमेर का हाथ पल्टू के सिर पर जा पंहुचा और उसे सहलाने लगा | सुमेर को लगा जैसे उसकी सारी परेशानियां जिनसे वह पिछले तीन दिनों से जूझ रहा था पल भर में ही गणपत और पल्टू की आत्मीयता ने दूर कर दी | अब सुमेर की आँखे नींद से भारी होने लगी थी । सोच रहा था उसी जुगाड़ वाली कुर्सी में  सो जाता तो कितना अच्छा होता | लेकिन सुबह किसी ने देख लिया तो | यही सोच कर अपने फ्लेट की ओर बढ़ गया |
@३/२०१६ विजय मधुर 


शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

कोहरा

       बड़े शहर की गर्मी और शर्दी दोनों ही उसके जैसी बड़ी और परेशान कर देने वाली होती  हैं | जैसे गर्मी में , गंदगी ... गन्दगी में उपजे कीड़े मकोड़े , मच्छर, देशी-विदेशी बीमारियों का बीभत्स रूप देखने को मिलता है वेसे ही शर्दी का भी रूप कुछ कम नहीं होता | कड़ाके की ठण्ड .. सुबह शाम घनघोर कोहरा | सूरज देव की स्वर्णिम किरणे जो प्रातःकाल लालायित रहती हैं धरती माँ के श्पर्श के लिए  | वह भी खुद को कोहरे के प्रकोप से बचा नहीं पाती | सूरज की किरणे जो अब हिमालय के बिशाल ग्लेशियरों को पिघलाने लगी हैं | पहाडों जंगलों में आग सुलगा देती है | छोटे बड़े  संयत्रों, दूर दराज कंदराओं में ऊर्जादायी रोशनीदायी सिद्ध होती  है | वही किरणे कोहरे की घनी चादर या यूं कहें मोटी खाल के आगे  बेबस सी नजर आती है | इतनी मोटी खाल शायद ही कंही और जगह के कोहरे की होगी | कोहरे की मोटी खाल का असर यंहा कुछ खास  इंसानों पर भी कम नहीं  | हर मौसम में इसे लपेट मरते दम तक कुर्सी से चिपका रहना चाहते  हैं | अपने आप को सूरज की किरणों से दूर ही रखना चाहते हैं | सोचते हैं कोहरे में भला उनकी कथनी और करनी का कौन आकलन  करने वाला है | आड़ में यंहा की परेशानियां  - गर्मी  ... शर्दी .. वर्षात  .... भीड़ .... बिजली ... पानी ... हवा ... सड़क ....सरकारी दफ्तरों की  लाईन..... अस्पतालों की लाईन ..... ट्रेन और लोकल बसों में मारा मारी ....चोरी ...लूट ...हत्या .... मनमानी  .... कूड़ा-करकट ....धक्का-मुक्की .... गालीगलोज ....नाना प्रकार के प्रदूषण ... भांति भांति के आरोप-प्रत्यारोप |  सभी कोहरे की चपेट में हैं | अब यह कोहरा कब छंटेगा नहीं मालूम |

@२/२०१६ विजय मधुर 

मंगलवार, 19 जनवरी 2016

रंग में भंग

कॉकटेल पार्टी आजकल शादी व्याह में एक शान और रिवाज बन गयी है | इसके सम्मुख  अच्छी से अच्छी मेहमानवाजी फीकी पड़ जाती है | इस पार्टी के मेहमानों में उत्साह देखते ही बनता है | यदि एक दिन में दो जगह से आमन्त्रण हो तो कुछ लोग नजदीकी रिश्तेदार को छोड़ कॉकटेल पार्टी वाली पार्टी में जाने को प्राथमिकता देते हैं | अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा सभी खाइयों को यह पार्टी आसानी से पाट देती है |  घर की भले ही माली हालत अच्छी न हो, उधार मांग कर बेटी का ब्याह रचाया हो लेकिन कॉकटेल  पार्टी तो होनी ही चाहिए | इसके बिना तो सारी रश्मे मानो अधूरी |

मेहंदी के कार्यक्रम को इस ख़ास पार्टी से जोड़ दिया गया है | मेहंदी की रश्म वर्सेज कॉकटेल पार्टी | कार्यक्रम में पधारते ही घर-परिवार और मेहमान पक्ष की महिलायें और पुरुष दो धडों में ऐसे बंट जाते हैं , मानो अब कोई मैच होने वाला है | जंहा महिलाओं ने दुल्हन के ब्यूटी पार्लर से आने तक खाली बैठ इंतज़ार करने की बजाय ढोलक में गीत संगीत की तान छिड़ जाती हैं  वंही पुरुष वर्ग भी कंहा पीछे रहने वाला | जा पंहुचते हैं उस ख़ास जगह जंहा कथित कैंटीन से मंगाई गयी व्हिस्की , रम , बियर  और सोडा की बोतलों के भीतर के जिन्न उनके हुक्म की तामिल के लिए उतावले बैठे रहते हैं | जैसे रेस के मैदान में धावक दौड़ लगाने से पहले एक ख़ास मुद्रा में अध् बैठे होते हैं और सीटी बजते ही दौड़ना आरम्भ | वेसे ही इन जिनों के आका भी  ढक्कन खोलने के लिए उतावले बैठे रहते हैं और जिन्न  बाहर आने को | जैसे ही वह प्रतीक्षित क्षण आता है सारे जिन्न बोतलों से सुरक्षित प्लास्टिक के गिलासों में  और इन खास गिलासों से आकाओं के पेट में उछलना  आरम्भ कर देते हैं | पर्तिस्पर्धा आरम्भ |

दौड़ में तो प्रथम , द्वितीय , तृतीय आने के बाद खिलाड़ी गले मिल खेल खत्म हो जाता है | लेकिन इस पर्तिस्पर्धा का आरम्भ का तो किसी को पता नहीं चलता | अंत जरूर सबको मालूम हो जाता है | शुभ कार्य में बिघ्न, बिल्ली के रास्ता काटने या छींक आने पर तो लोग मानते हैं | लेकिन इस नव प्रचलित कॉकटेल पार्टी से हुए खून खराबे पर नहीं | कौन प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम आया  है इस प्रतिस्पर्धा में निर्णय को आने में दिन, महीनों, साल भी लग जाते हैं | यह मॉडर्न जिन्न आका के बस में नहीं बल्कि आका को ही अपने बस में कर लेता है |  किसी के भीतर का जिन घर लौटते बक्त रास्ते में गाड़ी ठोककर बाहर आता है तो किसी का घर जा कर बाल-बच्चों की मार पिटाई कर  

कुछ जिन्न तो रात को साढ़े दस बजे के बाद घर के किसी कोने में पड़े या खाना खाते हुए डी.जे. वाले को पकड़ कर लाते है और कहते हैं डी.जे. . वाले ...... गाना बजा ..  वरना .... | अपने डी.जे. सील होने की चिंता | लेकिन  शुरू कर देता है बजाना और तब तक बजाते रहता है जब तक बचे हुए जिन ओंधे मुंह उसके आस पास नहीं लोट जाते या पुलिस न आ धमके  | 

जिन्न  बाहर आते है ...मनमौजी करते हैं और  फिर खाली बोतलों के भीतर दुबक जाते हैं ... और मिलावट के साथ दुबारा सील हो चुकी उन्ही बोतलों  में पहले से ज्यादा उग्र हो जाते हैं | जब तक हम एक दूसरे की देखा देखी स्वार्थ परक बनाए रीति रिवाजों का अनुशरण  करते रहेंगे,  उग्र जिन्न रक्त बीज की तरह पनपते रहेंगे और मेहंदी जैसे पवित्र रंग में भंग डालते रहेंगे |
@ २०१६ विजय मधुर