मंगलवार, 28 जनवरी 2020

किसे कहूं मन की बात

      पिछले कुछ दिनों  से मन बहुत परेशान है | किसके आगे अपना दुखड़ा रोऊँ | सारे लोग तो मेरी ही तरह बाहर से खुश नज़र आते हैं | भीतर की व्यथा कोई किसी की नहीं जानता | लगता है इस सृष्टि में जो जन्मा है उसे संघर्षों से जूझना ही पड़ता है | कुछ दिन पहले ही अपने कमरे की खिड़की से बाहर देख रहा था | तीव्र गति से हवाएं खिड़की के शीशे से टकरा रही थी | उतर दिशा वाली खिड़की से कुछ दूर नारियल और सुपारी के पेड़ आपस में टकरा रहे थे | जैसे ही लगता  पतले तने वाला कमजोर सा  सुपारी का पेड़ अब गिरा तब गिरा तभी नारियल का पेड़ सहारा  बन जाता  | कितनी ही बार एसा भी हुआ कि हवा ने अपना रुख बदल लिया | लेकिन ऐसी दशा में भी नारियल का पेड़ सारा दबाव अपने ऊपर ले लेता | बिजातीय होने के बाबजूद आज दोनों पेड़ खुश हैं और दोनों में उत्पति अंकुर फूटने लगे हैं | 
     जब से वहां आया हूँ सुख-दुःख के साथी यही पेड़ तो हैं जो तीसरी मंजिल के फ्लैट के  कमरे से  दोनों खिडकियों से चंद दूरी पर हैं | कई बार तो लगता है जैसे वह सुबह-शाम मानो इस प्रतीक्षा में खड़े रहते हैं कि कब खिड़कियाँ खुले और हम कमरे में बंद अपने दोस्त का दीदार करें | खिड़की खुलते ही उनमें हलचल शुरू हो जाती है एक ओर नारियल के पेड़ की नुकीली पतियाँ हल्की-हल्की लहराने लगती हैं वहीँ गर्मियों के दिनों हाथ से झलने  वाले पंखे के आकृति वाली सुपारी के पेड़ कि पत्तियां मानो मेरे परेशान चेहरे पर पंखा झल रही हों और कह रही हों मत परेशान हो मित्र ! अमावस की काली रात चाहे कितनी डरावनी क्यों न हो सुबह सूरज की स्वर्णिम किरणों के दर्शन मात्र से ही सब कुछ सुहावना लगने लगता है |

     इन दो पेड़ों के अतिरिक्त एक तीसरी प्रजाति का पेड़ है जो पूर्व दिशा में खुलने वाली खिड़की से कुछ दूर नारियल के पेड़ों से कुछ हट कर है  | उसका  स्वभाव दोनों से भिन्न है | मोर की टांगों की  तरह जमीन में टिके  दो तने और पत्तियों में चमक  | दूर से देखने पर दोनों अलग-अलग लगते हैं लेकिन हैं एक ही | लगता है वो अलग-थलग पड़ गया है | भले ही नजदीक से नहीं | कास वो अपने  मन की बात कह पाता | पिछले कई महीनों  से बारी-बारी दोनों खिडकियों से इन पेड़ों को देखता आ रहा हूँ | सुपारी के बालियों  की तरह फूल और पीले  छोटे - छोटे गुच्छे में फल  देखे, नारियल के पेड़ पर फूल फल देखे | फूलों से कीट-पतंगों को दूर भगाते उसके बड़े पत्तों को देखा | उनका सुकून और संघर्ष देखा | गिलहरियों  को दोनों पेड़ों पर सरपट दौड़ते चहल कदमी करते देखा | कागों को काँव-काँव करते देखा | लेकिन काले-सफेद तनों  वाले तीसरे पेड़ पर इन दोंनो की तरह कुछ भी नहीं देखा | लगता है कुछ तो गूढ़ रहस्य छुपा  है इसमें | वरना घनी आवादी के मध्य इतने ऊँचे भला उसे कौन उठने देता |

   बसंत ने अपनी दस्तक दे दी | जिस पेड़ को नारियल सुपारी से अलग देख रहा था उसकी घनी चमकदार पतियों के बीच छुपकर कोयल कूह ... कूह ... के मधुर स्वर में  जगाने लगी  है | लेकिन जैसे ही खिडकियां खोलता हूँ वह न जाने कहां गायब हो जाती है | नहीं चाहती कि मैं करीब से उसे कूह ... कूह... करते देखूं | कई बार दो कोयलों को बात करते भी मैं सुनता हूँ | दोनों के दरमियान फासला होता है लगभग एक मील का | एक दूर पेड़ से कुछ बोलती है तो दूसरी पास वाले पेड़ से कुछ और | कास उनकी भाषा या दूरी का रहस्य समझ पाता |

   बसंत का खुशगवार मौसम | हल्की ठंडक | गुनगुनी धूप | त्योहारों की दरवाजे पर दस्तक | प्रेमी जोड़ों की सड़कों या पुल के दोनों तरफ लगे मोटे-मोटे पाइपों के सहारे गुफ्तगू |

    देश की राजधानी दिल्ली की तरह यहाँ चौड़ी छाती वाले नहीं है |  ना ही  बड़े-बड़े बाग़ और उसमें जमा लोग | जिसका जो मन करे वह करे या बोले | कल यहां पतझड़ था आज वहां और अभी न जाने कहां-कहां बेमौसम पतझड़ आ जाए | तेज़ आंधी आ जाये |  नन्हे-नन्हे फूल, कोंपलें मय पेड़ अपनी जड़ों से कभी भी बिलग हो सकते हैं | जब पेड़ पौधे ही नहीं होंगें | शुद्ध हवा-पानी नहीं होगा | बदलते मौसम में प्रदूषण और  कोरोना वायरस का प्रकोप बढ़ने के अंदेशे से मन व्यथित  है |  किसे कहूं मन की बात |
@2020 विजय मधुर