बुधवार, 28 दिसंबर 2011

कहानी - फ़र्ज़

गाँव के निकटतम  बाज़ार के   पास बस रुकी ! 
कंडक्टर बोला .... भाई साहब आप यंही उतर जाओ यंहा  से कुछ दूर चीड़ू गाँव है ! 
उस छोटे से बस अड्डे पर बस से उतरने वाला जगत बीर  अकेला यात्री था ! बाजार के नाम पर  गिनती की  पांच दुकाने ! उनमे से भी मात्र एक छोटी सी चाय की दुकान खुली थी ! जगत बीर  ने मन ही मन भगवान् का सुक्रिया अदा किया ! यदि यह दुकान बंद होती तो कंहा जाता ! इस सुनसान जगह   पर  तो कोई इंसान ही  नज़र नहीं आ रहा है ! जगह है या कोई .... !  घड़ी में उस समय सांय के पांच  बज रहे थे !  जल्दी से  चाय की दूकान में पंहुच गया जो बस रुकने वाली जगह के पास ही थी ! जगत बीर  ने कंधे से थैला उतार कर कुर्सी पर रख दिया और उसी के पास बिछी खाट  पर बड़ा थका हुआ सा बैठ गया ! पहली बार ही पहाड़ आया !  बस कभी नीचे कभी ऊपर तो कभी एकदम तीब्र मोड़ों से गुजर कर आगे बढ़ रही थी ! एक दो  बार तो उसे उल्टी भी हो गयी ! 
- काका चाय बना दो एक प्याली ....
-बेटा कंहा जाना है तुम्हे !
-मुझे चीड़ू गाँव जाना है ! कितनी दूर होगा यंहा से ! 
-पहले आराम से चाय पी लो ! बहुत थके हुए लग रहे हो !
चाय वाले काका , काली सी केतली को चूल्हे से हटाकर उससे  गर्म पानी पीतल की हैंडल लगी  पतीली  में डालने लगे ! जगत बीर के दिमाग में केवल चीड़ू गाँव ही घूम रहा था ! जबसे वंहा नौकरी का काल लैटर मिला सोते जागते वह उसी गाँव की कल्पना कर रहा था ! गाँव  इतना बीरान  होगा उसने कभी सोचा भी न था ! यह हाल तो आसपास के बाज़ार का है ... गाँव न जाने केसे होगा ! अब पता नहीं कंहा जाना होगा ! बड़ी गलती कर दी  माँ बोल भी रही थी ' बेटा अभी तेरी उम्र ही क्या है ! दूसरी नौकरी लग जाएगी कंही शहर में ! लोग तो गाँव से शहर आ रहे हैं और तू  है कि शहर से गाँव जा रहा है ! ' अब जो भी होगा देखा जायेगा !  
- लो बेटा गरमा - गर्म चाय ! थोडा ठण्ड भी दूर हो जाएगी और थकावट भी ! साथ में  कुछ दूं  !
- हाँ ... हाँ ... वो ... पकोड़ी ही दे दो ....
- कितने की !
- यही पांच  रूपये की दे दो ! काका अब तो बता दो कंहा है यह गाँव .... कितनी दूर है ....
- दूर तो कोई खास नहीं यही कोई तीन किलोमीटर होगा ....लेकिन ........
-लेकिन क्या ...... मै टाइम से  पंहुच तो जाऊंगा न  ? 
- बेटा क्या नाम है तुम्हारा ... 
- मेरा नाम जगत बीर है ...
- पहाड़ के ही तो रहने वाले होंगे न ?
- नहीं ! पहली बार आया हूँ ...गाँव में मास्टर की नौकरी मिली है .....
- ओ हो तो तुम मास्टर हो ! वो जो सामने तिरपाल से ढकी मोटर साइकिल है न वो भी  मास्टर जी की है !  क्या नाम है उनका ..... हाँ ... परंडे जी .... वंही गाँव में रहते है .....! उन्ही के पास चले जाना ! बड़े भले आदमी है ! आते - जाते यंही से चाय पीकर जाते हैं ! 
इशारा करते हुए तुम उसी गाड़ी के पास से ऊपर गाँव के रास्ते पर चले जाना ! लेकिन तुम तो पहली बार यंहा आये हो ! चढ़ पाओगे ......एकदम  खड़ी चढ़ाई है बेटा  ! 
- हाँ ... हां ... तीन ही किलोमीटर की तो है .... कितने पैसे हुए काका ...जेब से पैसे निकालते हुए !
-दस रूपये दे दो !
-जगत बीर ने कंधे पर बैग रखते हुए कहा !
- वो मेरी तरफ से ! लेकिन बेटा आराम से जाना ! टाइम भी कम है ! कितना बजा है !
- सवा पांच बज गए है !
- बेटा ! तुम एसा करो आज  यंही रुक जाओ ! सुबह चले जाना यंहा से होते हुए  कुछ बच्चे भी स्कूल जाते हैं ! उन्ही के साथ तुम भी चले जाना ! तुम्हारा यह बैग भी ले जायेंगे ! 
- नहीं ... नहीं ... काका मै चला जाऊंगा ! आप फिकर न करो ! अच्छा राम ...राम... कहता हुआ जगत बीर चला गया !  
        दूकान का एक दरवाजा बंद करते हुए काका ने धीरे से कहा  राम - राम .... बेटा ! और सोचने लगा मुझे लग तो रहा था यह लड़का यंहा का नहीं ! फिर भी सोचा ! आजकल तो यंहा से   परदेश गए लोग भी कंहा पहचानने में आते है ! पहनावा तो दूर अपनी  बोली भाषा बोलने में  भी  वे कतराते हैं  ! जब  गाँव से जाते हैं तो कितने मोटे - मोटे  आंसू रोते हैं ! अपने आप तो रोते ही हैं सब को रुला कर चले जाते हैं !  उस बक्त उनको देखकर लगता नहीं कि  वे चार दिन भी वंहा ठहर पाएंगे ! लेकिन चालीस साल से मै भी यह दूकान चला रहा हूँ जो जाते हैं ........कभी नहीं लौटते ........! मैं ही इकलौता बेबकूफ निकला अछे भले होटल की नौकरी छोड़ आ गया इस धार में .......! अब हाल ये हो गए धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का ! तीनों  बेटियों की शादी हो गयी ! बुढ़िया अकेली गाँव में और मै यंहा  अकेले ही  चौकीदारी कर रहा हूँ इस धार की !  कोई जानवर  या शैतान रात को मार कर भी चला जायेगा तो किसी को खबर भी न लगेगी ! रोज - रोज गाँव भी नहीं जा सकता ! कमबख्त शरीर भी तो साथ नहीं देता   ! मन ही मन बडबडाता हुआ काका ने दुकान का दूसरा दरवाजा भी बंद कर दिया !
 जगत बीर अभी कुछ दूर ही चला था कि  उसकी सांस फूलने लगी सोचा थोडा सुस्ता ले लेकिन तभी चीड़ की पत्तियों जिसे पेरुल कहते हैं में पैर रखते ही बड़ी जोर से फिसल गया ! बैग छटक कर    एक तरफ गिर गया और उसका सिर पत्थर पर टकराते - टकराते बचा ! अब वह समझ गया कि जिस रास्ते पर वह चल रहा है उस पर चलना इतना आसान नहीं ! किसी तरह खड़ा होकर अब संभल - संभल कर चलने लगा ! पेरुल  एसा बिछा हुआ था मानो किसी ने पूरे जंगल और पगडण्डी  में  हलके गुलाबी रंग की चादर बिछा रखी हो ! जूते कंही टिकने का नाम ही नहीं ले रहे थे ! इसलिए जगत बीर ने जूते उतार कर बैग में डाल दिए ! अब खाली जुराबों में चलना और भी  मुश्किल हो गया  ! छोटे - छोटे पत्थर  कीलों की तरह चुभ रहे थे  !  सोचा किसी खाई में गिरने से तो बढ़िया है  पैरों का दर्द सह लिया जाय ! इसी में भलाई समझ अभी आगे ही बढ़ रहा था कि एक नयी मुशीबत सामने आकर खड़ी हो गयी ! एक बड़ा मोटा और डरावना  बन्दर आगे रास्ता रोक कर खड़ा हो गया ! इतना बढ़ा और भयानक बन्दर शायद ही उसने पहले कभी देखा हो  ! अब क्या करे ... कुछ भी समझ नहीं आ रहा था ! चीड़ के पत्तों की सरसराहट से कान काटती शर्द हवा भी उसे लू जैसी लगने लगी ! डर के मारे कांपते - कांपते  वह कब नीचे जमीन पर बैठ गया उसे पता ही नहीं चला ! बन्दर वंही बैठा चुप चाप उसे ही देख रहा था ! एक बार  उसे लगा कि कंही उसे भ्रम तो नहीं हो रहा जिसे वह बन्दर समझ रहा है वह कोई जंगली जानवर तो नहीं ! किसी तरह हिम्मत जुटा कर देखा ! लगता तो  बन्दर ही है ! कुछ जान पर जान आयी ! लेकिन  l यह भी कम खतरनाक नहीं ! क्या करूँ वापस भी जाता हूँ तब भी मुशीबत ... आगे तो यह है ही ! क्या  करूँ ... माँ ... हर मुश्किल घड़ी में तुम ही साथ देती हो ! काश मैंने तुम्हारा ही कहना माना होता ! अचानक उसे याद आया  आते समय माँ  ने बस अड्डे में  मना करने के बाबजूद भी कुछ सेब  रख दिए थे ! बेटा रख ले रास्ते में काम आयेंगे ! क्या पता यही सेव  आज मेरी  जान बचा लें !  मन में बिचार आया बैग से निकाल कर इसे सेव  दे दूंगा तो यह चला जायेगा ! लेकिन फिर दूसरा बिचार आया कंही मैंने ऐसे किया तो यह बैग ही लेकर भाग जायेगा !अक्सर शहरों के बन्दर एसे ही करतें हैं !  फिर विचार आया जान बची लाखों पाए ! बैग ले जाये तो ले जाने दो ! धीरे से बैग की पहली चैन खोली उसमे से जरूरी कागजात निकाल कर चुपके से जैकेट की जेब में डाल दिए ! पुनः बैग की दूसरी चैन खोली सुक्र  है अभी सेव  ऊपर ही  पड़े थे  ! चुपके से एक सेव  निकाल कर नीचे की तरफ फ़ेंक दिया जो पेरुल में लुढ़कता  हुआ काफी नीचे जा पंहुचा  ! बन्दर भी उसके साथ - साथ घिसटता हुआ वंही पंहुच गया ! कुछ सुकून मिला ! अब चलने की रफ़्तार  तेज हो गयी ! पैरों में चुभ रहे पत्थरों का भी पता नहीं चल रहा था ! अभी कुछ दूर ही पंहुचा था कि वह बन्दर फिर आकर उसी मुद्रा में आगे  बढे से पत्थर के ऊपर  बैठ गया !  जगत बीर ने दूसरी बार भी वही किया  ! बन्दर वेसे ही सेव  के पीछे घिसटता चला गया ! जगत बीर ने इसी बीच कुछ और दूरी तय कर ली  ! तीसरी बार फिर बन्दर  पंहुच गया ! लेकिन इस बार उसका स्वभाव कुछ अलग सा लग रहा था ! इस बार वह बीच रास्ते में नहीं बल्कि रास्ते को छोड़ कुछ दूर बैठ गया ! शायद दो बार उतरने - चढ़ने से वह थक गया था ! अब जगत बीर ने सेव  दूर नहीं बल्कि उसके काफी नज़दीक फ़ेंक दिया ! जिसे उसने आराम से कैच कर खाते - खाते आगे बढ़ने लगा ! जगत बीर  की भी हिम्मत बढ़ गयी ! अब दोनों ने एक दूसरे   के स्वभाव  को कुछ कुछ पहचान लिया !  दोनों को ही बिश्वास  हो  गया कि वे एक दुसरे को नुकसान नहीं पंहुचाने वाले  ! अब बन्दर आगे - आगे और जगत बीर उसके पीछे पीछे चलने लगा  और कंही भी उसने पीछे मुढ़कर जगत बीर की तरफ नहीं देखा ! अक्सर बन्दर अँधेरा होते ही अपने - अपने ठिकानो  पर बैठ जाते  हैं लेकिन उसने एसा नहीं किया ! ना ही  जगत बीर को नुक्सान पंहुचाने के कोशिश की ! जगत बीर के दिमाग में यही मंथन चल रहा था कि आज के समय में जन्हा इंसान इंसान का साथ नहीं देता वंहा यह जानवर  ! जरूर दाल  में कुछ काला  नज़र आ रहा है ! कंही आगे चलकर यह कोई बड़ी चाल न चल दे  ..... ! तभी उसे सामने गाँव की रोशनी  और  कुत्तों के भोंकने की आवाजें सुनाई   दी  ! अब बन्दर आगे रास्ते से हटकर नीचे खेत में जाकर खड़ा हो गया ! जैसे कि अब जगत बीर को अलविदा कर रहा हो ! जगत बीर  ने अपने आप  को  धिक्कारा  हम  इंसान  भी कितने  स्वार्थी हैं और एक यह जो इस अँधेरे  में भी मेरे साथ  यंहा तक ! अब इसे पता है कि यह इससे आगे नहीं जा पायेगा इसलिए मुझे अलविदा कह रहा है ! जगत बीर ने अपने दोनों  हाथ ऊपर उठाकर उसका धन्यबाद किया और बाकी बचे सेवों  की पन्नी रास्ते के छोर बड़े पत्थर पर रख दी !
 - दोस्त मै तुम्हारा आभारी हूँ ! ध्यान से जाना ..... दूसरे दिन मुलाकात होगी !
बन्दर ने सेवों  की पन्नी पकड़ी और सरपट जंगल की ओर वापस   भाग गया !
 अब जगत बीर चीड़ू  गाँव पंहुच  गया ! भगवान् , अपनी माँ और बन्दर का  सुक्रिया अदा किया जिनकी वजह से वह सही सलामत  यंहा  पंहुच पाया   ! अँधेरा और ठण्ड की वजह से गाँव में सन्नाटा पसरा था  कोई भी बाहर नहीं दिखाई दे रहा था लेकिन कुछ घरों  में जरूर टिमटिमाती रौशनी दिखाई  दे रही थी  ! जंगल के बाद रास्ता ठीक एक घर के आँगन में ही पंहुचा यूं समझो कि रास्ता ही घर का आँगन भी था ! घर की छोटी - छोटी खिडकियों और दरवाजों के छिद्रों से रोशनी बाहर आ रही थी ! भले ही अन्दर से किसी की आवाज नहीं आ रही थी फिर भी जगत बीर ने सहम कर आवाज लगाई !
- भाई साहब ...... भाई साहब ...... कोई है ...... हाँ ....भाई साहब ..... !
कुछ देर बाद घर्रर -घर्रर से दरवाजा खुला ! एक आदमी  ने  लालटेन  से बाहर की तरफ झांकते हुए कहा !
-को छै भारे .....
- मै हूँ जी ....
- अरे ! को मी .... गढ़व्ली नि आंदी त्वे....
- जी ........  नया   मास्टर आया हूँ स्कूल में !
- अच्छा .....
 अन्दर वापस लौटते हुए !
- हे ! मनू जरा भैर देख .... क्वी नयु मास्टर .... इनी ब्व्ल्नु कुछ ... तू देख जरा !
  एक छोटा सा लड़का   लालटेन लेकर बाहर आँगन में पंहुचा !
- बेटा मै नया मास्टर आया हूँ तुम्हारे गाँव में ! तुम्हे पता है  परंडे  जी कंहा रहते हैं !
- हाँ एक मिनट !  भीतर जाकर ' बुबा मी नया मास्टर जी तैं  परंडे  गुर्जी घौर छोड़ी ..अबी आन्दु '
- आवा गुर्जी ...मी दगडी !
-जगत बीर की सांस बुरी तरह फूल रही थी ! ठीक से बोल भी नहीं पा रहा था !
- क्या नाम है .... ....तुम्हारा .....
-गुरूजी मेरा नाम मनू ..... मनबर सिंग है ....!
-कौन सी क्लास में .... पढ़ते  हो ....
-गुरूजी मै नवीं कक्षा में हूँ !
  सुनसान गाँव के रास्ते में चुप - चाप मनू लालटेन दिखाते हुए नए गुरूजी को ले जा रहा था ! मनू को लग रहा था नए मास्टर जी बढे सख्त और हिम्मत वाले भी लगते हैं ! तभी तो इस अँधेरे में उस जंगल के रास्ते आये  जन्हा से आने में हम गाँव वाले भी डरते हैं ! बाप रे बाप .... ! बच कर रहना पड़ेगा इनसे तो ज्यादा बात भी नहीं कर रहे हैं और गढ़वाली तो इन्हें आती भी नहीं ! लगता है देशी हैं !
- गुरूजी ........ परंडे  गुरूजी का कमरा आ गया !
- अच्छा ...
- गुरूजी .... गुरूजी .... मनू आँगन से चिल्लाया ....
- को छै रै ..... यीं राती .... (  परंडे  जी ने कमरे के अन्दर से ही कहा )
- गुरूजी मी ... मनू ..... नया गुरूजी अंया.....
- नया गुरूजी  ..........! अभी आया  !
   शाल लपेटकर  परंडे  जी  ने दरवाजा खोला !
- नमस्कार   परंडे   जी ! मै हूँ जगत बीर नया फिजिक्स का टीचर . ..!
- नमस्कार !  चलो अन्दर चलो !
- अच्छा गुरूजी मी जांदू छों !
-अच्छा बेटा ! कहकर परंडे जी जगत बीर को लेकर कमरे में चले गए ! उस शर्दी में भी वह पसीने से चू रहा था  !  घबराहट के मारे ठीक से बोल भी नहीं पा रहा था !  परंडे  जी सब समझ गए  और उन्हें  चारपाई पर आराम से बैठने को कहकर ! कमरे में ही चादर के पार्टीसन के पीछे छोटे वाले गैस जिसे वह कभी कभी पेट्रोमेक्स के रूप में भी इस्तेमाल कर लेते थे ,  में एक पतीली में गरम पानी किया जिसमे से एक गिलास गुनगुना पानी जगत बीर को दे दिया ! लो अब बिलकुल फिकर न करो ! उसने पानी पिया ! अब  परंडे  जी ने गरम पानी साबुन और तौलिया बाहर बाथ रूम में  रख दिया !
-चलो मास्टर जी अब थोडा हाथ मुंह धो लो .... कपडे बदल लो कुछ  फ्रेश हो जाओगे !
 जगत बीर अभी भी घबराया हुआ  हांप रहा था !  परंडे  जी जानते थे उस जंगल से  होते हुए रात को गाँव में आना  आसान बात नहीं ! यह  बेचारा  कैसे आया होगा और वह भी पहली बार ! मै होता तो कभी भी हिम्मत नहीं कर पाता ! गाँव में अक्सर लोग सात बजे तक खाना खाकर सोने लगते हैं !  परंडे  जी भी खाना खाकर सोने की तैयारी में थे ! लेकिन उसकी किस्मत से आज सब्जी भी ज्यादा बन गयी थी इसलिए बच गयी ! आटा भी गुंदा  हुआ पडा था ! जब तक जगत बीर   हाथ मुंह धोकर  फ्रेश हुआ तब तक  परंडे  जी चार रोटियों में घी लगाकर  सब्जी के साथ ले आये !
- लो मास्टर अब तुम ये रोटी खा लो ! बातें बाद में होती रहेगी !
- नहीं मेरा मन नहीं कर रहा है !  आप तकलीफ ....
-मैंने  बना दी हैं अब तो आपको खानी ही पड़ेगी !
किसी तरह  दो रोटी जगत बीर ने खा ही ली ! उसके बाद  परंडे  जी ने  दोनों कुर्सियां  और टेबल  एक तरफ किये  !  पार्टीसन के अन्दर से दूसरा  फोल्डिंग पलंग लाये और  उसमे बिस्तर लगा दिया !
- अब मास्टर जी आप इधर आ जाओ और रजाई के अन्दर बैठ  कर आराम से काफी पियो  !
  परंडे  जी ने दरवाजा बंद कर दिया और खुद भी दूसरे पलंग पर बैठकर काफी पीने लगे ! जो  ठण्ड और बिस्तर लगाने की वजह से जल्दी ठंडी हो गयी थी !
अब तक जगत बीर कुछ रिलेक्स हो चुका था !
-  हम तो कब से सुन रहे थे नए मास्टर जी आने वाले हैं !  चलो दे आये दुरुस्त आये ! कंहा से आये आप !
- जी मेरी  नयी जोइनिंग है ! झबरेडा  से आया हूँ !
- अच्छा किया आपने ! अब तो वेसे भी दस - बारह दिन बाद शर्दियों की छुट्टियां पड़ने वाली हैं ! जोइनिंग के बाद चार - पांच दिन में घर चले जाना  ! यंहा सब चलता है ! अभी तुम बहुत थक चुके हो सो जाओ ! कल स्कूल में बातें करेंगे !
कहते हुए  परंडे  जी लालटेन की लोउ काफी  धीमी कर  लेट गए और जगत बीर भी लेट गया ! इतना सुनसान और शांत वातावरण उसने अपनी जिन्दगी में पहली बार देखा ! कंही से कोई आवाज नहीं ! काफी देर तक उसके  दिमाग में पूरे दिन की भली बुरी सारी तस्बीरें  घूम रही थी ! गाँव में माँ भी फिकर कर रही होगी ! कर भी क्या कर सकता हैं  !  सोचते - सोचते आँख लग गयी !
-मास्टर जी मास्टर जी उठो .... चाय पी लो .....
एक बार तो जगत बीर को लगा कि वह कोई सपना देख रहा है ! तभी देखा उसके सामने  परंडे  जी चाय का कप लेकर खड़े हैं ! दरवाजे से ठीक  सामने पहाड़ी नज़र आ रही थी ! पहाडी सूरज की सुनहरी धूप से खिल रही  थी ! पहाडी में कंही - कंही पर हीरे जेसे कुछ चमक रहे थे !
- बाप रे बाप ! इतनी दोपहर .....
- नहीं मास्टर जी दोपहर नहीं ! अभी तो सुबह के आठ बज रहे हैं !नींद तो ठीक से आयी न .....!
-हाँ जी .... यंहा तो कुछ पता ही नहीं चला !  परंडे  जी सामने पहाडी कितनी सुन्दर दिख रही है ! और वो हीरे जेसे क्या चमक रहे हैं !
- वो पत्थर हैं...... गंथर बोलते है उन्हें ! अभी सूरज की किरणे सीधी उन पर पड़ रही है ! ओंस भी अटकी होगी न उन पर !
- बहुत ही सुन्दर .....  आप किस बक्त उठे !
- मै रोज छ बजे उठ जाता हूँ ! नहा भी गया और नाश्ता भी तैयार कर लिया !
- आपने मुझे जल्दी क्यों नहीं उठाया !
- मैंने सोचा मास्टर जी थके हैं सोने दो ! अब चाय पीकर नहा लो आपके लिए एक बाल्टी गर्म पानी  बाथ रूम में रख दी है !
   कुछ देर बाद दोनों स्कूल पंहुंच गए ! स्कूल कक्षा छ से लेकर बारहवीं तक था ! सुबह प्रयेर देख कर ही जगत बीर ने  विद्यार्थियों का अंदाज़ा लगा दिया था !  बिद्यार्थी भी दो ढाई सौ के आस - पास रहे होंगे ! प्रेयेर के बाद  परंडे  जी ने सभी बिध्यार्थियों और स्टाफ के सम्मुख नए टीचर का परिचय कराया ! उसके बाद सभी बिद्यार्थी अपनी - अपनी कक्षाओं में चले गए और टीचर स्टाफ रूम में ! बुधबार होने की बजह से लगभग सारा ही स्टाफ वंहा मौजूद था सिवाय प्रिंसिपल साहब के ! प्रिंसिपल साहब सुना लखनऊ गए हैं ! बेसिक  शिक्षा अधिकारी की दौड़ में उनके नाम की भी चर्चा चल रही थी ! वेसे तो पद के हिसाब से देखा जाय तो दोनों में कोई  खास अंतर नहीं ! लेकिन बात है रुतबे और माल पानी की ! उनके अपनों के साथ - साथ अपना और अपनों की नय्या  तो पार लगा ही देंगे इस दौरान !  स्कूल के  व्वाइस प्रिंसिपल थे   परंडे  जी ! इसलिए प्रिंसिपल की गैर मौजूदगी में  परंडे  जी के पास ही प्रिंसिपल का चार्ज होना स्वाभाविक था ही  !  परंडे  जी की पत्नी भी आस - पास ही किसी स्कूल में अध्यापिका थी ! बच्चे माँ बाप के साथ शहर में रहते  थे ! पत्नी का स्कूल मोटर हेड पर  होने के कारण  परंडे  जी  प्रत्येक सुक्रबार को  वंहा मोटर साइकिल खड़ी कर पत्नी के साथ  शहर चले जाते बस से ! और फिर लौटते थे मंगल बार को ! पिछले दो साल से उनका यही क्रम जारी था !  स्टाफ के अन्य सदस्यों से जगत बीर की मेल मुलाकात चल ही रही थी ! तभी  परंडे  जी ने उससे कहा
- जगत बीर जी चलो आपको आपकी क्लास दिखा देता हूँ ....
परंडे जी जगत बीर को लेकर बारहवीं साइंस की कक्षा में ले गए !
- बच्चो ये हैं तुम्हारे नए फिजिक्स के सर ! वेसे तो फिजिक्स के सर हैं लेकिन साथ ही यह तुम्हे केमेस्ट्री भी पढ़ाएंगे जब तक कोई केमेस्ट्री के सर आते हैं ! अच्छे से पढाई करना ! तुम्हारे बोर्ड एक्जाम भी अब नजदीक हैं ! और हाँ मास्टर जी थोडा दसवीं कक्षा को भी देख लेना ! उन्हें वेसे तो प्रिंसिपल साहब ही देखते हैं लेकिन .... आजकल थोडा वे ब्यस्त हैं ! कहते - कहते  परंडे  जी बाहर चले गए ! जगत बीर ने पहले सभी बच्चों का नाम पूछा फिर उनसे फिजिक्स  केमिस्ट्री के बारे में कुछ पूछा ... लेकिन वह सर पकड़ कर बैठ गए ! बच्चों को कुछ भी नहीं आता था ! यंहा तक कि उन्हें नवी दसवीं का भी कुछ याद   नहीं !
- एक बात बताओ तुम लोगो ने दसवीं  - ग्यारहवीं पास कैसे किया ! कैसे सोल्व किया प्रश्नपत्र !
- गुरूजी प्रश्न पत्र तो हमारे मास्टर जी ने हल करके दिया !  हमने तो सिर्फ उसे उतारा  ! यंहा गाडी तो आती नहीं इसलिए  फ्लाइंग भी नहीं आती  !
एक  बच्चा अनायास ही बोल उठा !
- लेकिन सर राम की कृपा से  हमारे स्कूल का रिजल्ट हमेशा अच्छा रहता है !
दूसरे बच्चे ने कहा !
   जगत बीर को पूरी बस्तुस्थिति को समझने में ज्यादा देर नहीं लगी !  बारहवीं के साथ - साथ दसवीं और ग्यारहवीं  कक्षा की जिम्मेदारी भी जगत बीर को दे दी गयी ! आज उसने तीनों कक्षाओं को कुछ बेसिक बातें समझाई और एक चेप्टर घर से पढने के लिए यह कहकर  दे दिया कि कल उसी  चेप्टर को पढ़ाएंगे   और  प्रश्न भी  पूछेंगे !
      छूटी  के बाद  परंडे  जी और जगत बीर साथ - साथ गाँव के बीच से होते हुए  आ रहे थे ! रास्ते  में गाँव का जो भी मिलता वही  परंडे  जी को आदर सहित  नमस्कार कर जगत बीर के बारे में पूछता ! एक ही दिन में समझो कि उस  गाँव के सारे ही लोग जगत बीर को पहचान गए  जो स्कूल के पास था !  परंडे  जी ने जगत बीर को बताया कि उस स्कूल में छ गाँवों के बच्चे पढ़ते हैं जो एक किलोमीटर से लेकर सात   किलोमीटर तक दूर से आते हैं ! कक्षा छ से लेकर आठ तक एक - एक सेक्सन तथा नौवीं से लेकर बारहवीं कक्षा तक दो- दो  सेक्सन हैं  ! एक सेक्सन आर्ट तथा दूसरा साइंस ! कामर्स यंहा होता नहीं ! इसीलिये यंहा के लोग ब्यापार से थोड़ा दूर ही भागते हैं ! बातें करते - करते दोनों कमरे तक पंहुच गए ! सुबह नास्ते के बाद दिन में दो बार चाय और  हल्का नाश्ता स्कूल में मिल गया था ! पहाड़ों में शर्दियों के दिन कुछ ज्यादा ही छोटे लगते हैं ! कमरे में पंहुचते - पंहुचते पांच बज गए थे ! सूरज  पूरी लालिमा लिए पहाडी के उस पार उतर रहा था ! गाँव की घसेरी घास, बांस की बनी बड़ी बड़ी टोकरियाँ  जिसे डालू बोलते हैं सर में रख कतार बध सी  बातें करते - करते अपने घरों की ओर लौट रही थी !  स्कूल के ही दो बच्चे पानी से भरे दो  बर्तन लेकर पंहुच गए ! एक ने एक बंठा पानी बाथ रूम की दो बाल्टियों में पल्टा तो दूसरे ने किचन के बर्तनों में ! फिर दोनों ने मिलकर बर्तन धोए, सब्जी काटी और आटा गूंदने के बाद  परंडे  जी से कहा !
गुरूजी अभी कुछ और काम तो नहीं  ! हम जा रहे हैं !
-ठीक है बेटा !
कहकर वे दोनों चले गए ! जगत बीर यह सब बड़े  अचरज से  देख रहा था !
 अगले दिन जब जगत बीर स्कूल गया ! बच्चों को पढ़ाया ! उसे पढने के प्रति बच्चों की अभिरुचि देख  प्रसन्नता हुई ! ज्यादातर  बच्चे पूरा चेप्टर बड़ी अच्छी तरह पढ़कर आये थे ! जो - जो प्रश्न उनसे पूछे उनका भी एक दम सही आंसर !  उन बच्चों को देख उसे  झबरेडा  में अपने भतीजे की याद आ गयी ! जो ठीक उनसे उलट था ! सुविधा संपन्न होते हुए भी पढाई पर ध्यान नहीं देता ! दोस्तों के साथ घूमने  खेलने कूदने के अलावा उसका कोई काम ही नहीं होता ! स्कूल से आये दिन शिकायतें अलग ! कितने दुखी हैं    भाई साहब उसे लेकर ! बारहवीं में पंहुच गया लेकिन अभी तक पढने के नाम पर जरा सी भी सीन्सिअर नहीं हुआ !
- बहुत अच्छा बच्चो .... मुझे अपने आप पर गर्व हो रहा है ! जो मुझे  तुम जैसे बच्चे मिले ! लेकिन मै भी प्रण करता हूँ ! इस बार दसवीं बारहवीं में तुम लोग खुद ही अपना प्रश्न पत्र सोल्व करोगे ! वो भी बिना किसी सहारे के !
 अगले  दिन  परंडे  जी स्कूल में हाजिरी लगाने के बाद शहर जाने के लिए तैयार हो गए  !
-मास्टर जी मैं शहर  जा रहा हूँ ! कुछ लाना तो नहीं आपके लिए !
- परंडे  जी मैं सोच रहा हूँ  मैं भी घर हो कर आ जांऊ ! मेरे पास ठीक से कपडे भी नहीं हैं !
- यह तो अच्छी बात है ...चलो बाज़ार तक एक साथ ही चलते हैं !
- नहीं आज तो नहीं लेकिन सोच रहा हूँ कल  ! आज लेट हो जायेगी ! समय से पंहुच नहीं पाऊंगा  !
- ठीक है तुम चले जाना !
- मै अप्लिकेसन ऑफिस  में दे दूंगा !  दो दिन की छुट्टी  के लिए !
- अगले  दिन सुबह - सुबह जगत बीर अपने घर   के लिए निकल गया !
 सुबह का बक्त होने के कारण रास्ते में गाँव के लोग मिल  गए ! उनके  साथ धीरे  - धीरे  जाते हुए उसे रास्ते  का पता ही नहीं चला !
घर से  वह मात्र तीन जोड़ी कपड़े लेकर ही चला था  ! पानी की सुबिधा भी न थी जो एक - दो जोड़ी धो लेता ! बच्चे बहुत दूर से उनके लिए पानी लाते थे वह भी उनको अच्छा नहीं लगता ! पानी कपड़े धोने के लिए भी मंगवाए तो यह तो नाइंसाफी हुई !   उस दिन की अपेक्षा आज बाज़ार में काफी लोग नज़र आ रहे थे ! दुकाने भी सारी खुली थी ! वह सीधे काका के होटल में जाकर बैठ गया  !  परंडे  जी ने काका के बारे में जगत बीर को सब बता दिया था तथा यह भी  बताया  कि गाँव में जिस मकान में वे रहते हैं वह उसी काका का है ! मकान में तीन चार कमरे हैं लेकिन  यूं समझो कि पूरा मकान ही खाली पड़ा रहता है ! काका कभी  साल छ महीने में किसी ख़ास काम की वजह से ही गाँव आते हैं ! वह भी बड़ी मुस्किल से ! बेचारों को सांस की प्रॉब्लम जो है  ! उस चढ़ाई को चढ़ना उनके लिए कष्टदायी  होता है   !
- माफ करना बेटा ! सुबह से बर्तन पड़े थे धो ही नहीं पाया था ! क्या करूं आजकल कोई लड़का मिलता ही नहीं ! कुछ दिन एक नेपाली लड़का भी रखा  ! खूब  खिलाया पिलाया ! आखिर में मुझे ही चूना लगा कर चला गया ! आजकल तो किसी पर बिश्वास  करना भी मुश्किल हो गया है ! चाय तो पियोगे !
-  हाँ काका   जरूर पियूँगा ! साथ में गर्म - गर्म  पकोड़ी भी दे देना !
 जब तक काका चाय बनाने लगे   तब तक जगत बीर अखबार पढने लगा ! तीन दिन से उसने अखबार ही नहीं  देखा  ! वेसे तो समाचार  परंडे  जी के रेडियो में सुन ही लेता था ! कभी - कभी उसकी भी जरूरत नहीं पड़ती थी ! गाँव में यदि एक भी ट्रांजिस्टर या  टेप रेकॉर्डर बज रहा हो तो दूसरे को अपने रेडिओ ऑन करने की जरूरत नहीं पड़ती थी ! सारा गाँव ही उसे सुन लेता था !
-लो बेटा चाय - पकोड़ी ! और सुनाओ केसे लगा हमारा गाँव !
- बहुत बढ़िया !
-रहने की दिक्कत हो रही हो तो दूसरा कमरा खुलवा दूं ! उसमे मैंने किचन भी बनवा रखा है !
- वो तो और भी अच्छा रहेगा ! किराया कितना होगा !
- किराया क्या लेना है  तुमसे  ! वेसे भी तो खाली ही  पड़ा रहता है !
- नहीं काका किराया तो आपको लेना ही पड़ेगा ! मै सोच रहा हूँ भतीजा मान गया तो उसे भी साथ लेकर आ जाऊँगा ! उसमे चारपाई वगैरह ....
- तुम फिकर न करो मै चारपाई, बिस्तर,कुर्सी , मेज़   का इंतजाम कर दूंगा ! तुम आ जाना भतीजे को लेकर ! रही किराये की बात सौ रूपये महीने दे देना ! अब आगे कुछ मत बोलना ! तुम भी मेरे बेटे समान हो !
 जगत बीर ने अभी चाय पूरी पी भी नहीं थी की बस आ गयी ! जगत बीर ने दस  रूपये काका को थमाए
-काका  मैं मंगल बार को आऊंगा ! जो भी जरूरी सामान होगा भिजवा देना ! पैसे आकर दे दूंगा ! घर से कुछ नहीं लेकर आऊंगा....!
 कहते कहते वह बस  में बैठ गया !
दिन भर  पहले पैदल फिर बस में सफ़र  के बाद जगत बीर अपने घर  पंहुच गया !  वंहा   पंहुच कर आज उसे खास अच्छा, नहीं लगा ! कंहा गाँव का शांत सुन्दर वाताबरण और कंहा शहर  की भीड़ - भाड़ ! जैसा गाँव का वाताबरण शांत था उतने ही शांत प्रवर्ति के वंहा के लोग भी थे ! घर में पंहुचते ही जगत बीर की माँ ... भाई ...भाभी ....भतीजा ...भतीजी   और छोटा भाई बढे खुश हुए ! चिंता के मारे सबकी जान सूख रही थी !
- आ मेरे लाल ! कैसा है तू ! तरस गयी थी तुझसे बात करने को ! अच्छा किया तूने जो वापस आ गया ! क्या रखा है ऐसी नौकरी में !
- अरे ! माँ मैं तो छुट्टी लेकर आया हूँ दो दिन की ! बहुत अच्छा  है वंहा तो ! लोग भी इतनी इज्ज़त देते हैं  तुझे क्या बताऊँ ! और स्कूल के बच्चे तो क्या कहना बहुत मेहनती हैं ! पढने की लालसा उनमे बहुत ज्यादा है लेकिन उन्हें पढ़ाने वाला कोई नहीं !
- जगत बीर तू तो सचमुच का मास्टर बन गया है रे !
 बढे भाई ने गले लगाते हुए उसे कहा !
- भय्या मैं बिलकुल सत्य बोल रहा हूँ और मैंने सोच लिया है .... इस पप्पू की छुट्टियाँ पड़ गयी होगी ..... इसे भी अपने साथ लेकर चला जाऊं !
- नहीं चाचा .... मैं नहीं आने वाला तुम्हारे साथ वंहा ...... मुझे बख्स दो .... !
कहता हुआ पपू बाहर मोटर साइकिल पर किक मार कर रफूचक्कर हो गया !
- भय्या किसी तरह मना लो  इसको .....यदि एक महीना भी  वंहा रह गया ... न ...तो लाइफ बन जायेगी        इसकी !
- कोशिश करते हैं .......और  हाँ .....ये लड़का किसी का कहना माने या न माने  ..... दादी का कहना तो जरूर मानेगा !
- मै तो नहीं भेजने वाली अपने नाती को ! तुझे इतना ही अच्छा लग रहा है तो खुद ही रह ले ! मेरे फूल जैसे नाती को  मत बना अपने जैसा .... वह जैसा है उसको वेसे ही रहने दो .....मुझे तो अच्छा लगता है वो ..... !
- माँ तूने ही ज्यादा सर चढ़ाया दिया  है उसे !
जगत बीर ने कुछ गुस्सा हो कर  कहा !
- जाओ देवर जी अब तुम हाथ मुह धो लो...... थक गए होंगे ! कुछ खा पीकर आराम से बातें कर लेना !
 दो दिन यार - दोस्तों से मिलने .... जरूरी कपड़े खरीदने ... और छोटे मोटे काम निपटाने के बाद मंगल बार को सुबह जगत बीर अपने स्कूल जाने के तैयार हो गया ! पपू भी भी आखिर मान ही गया ! भले ही पपू से ज्यादा उसकी प्यारी सी दादी को मनाना पढ़ा !  दोनों सुबह छ बजे  झबरेडा  से बस में बैठने के बाद तीन बजे वे चीड़ू गाँव के बाज़ार में पंहुच गए ! काका उनकी इंतजार ही कर रहे थे !
- काका प्रणाम !
   पपू की तरफ देखते हुए
- दादा जी को प्रणाम करो बेटा
- दादा जी प्रणाम !
- चिरंजीवी भव ! मैं तो तुम्हारी राह देख ही  रहा था ...... तुम्हारा कमरा ठीक करा दिया है ....एक छोटा गैस का स्टोव भी भेज दिया है ! अब भी किसी चीज़ की जरूरत होगी तो किसी बच्चे के हाथ संदेशा भिजवा देना ! पंहुचा दूंगा ! चाय तो पियोगे !
- हाँ चाय तो पियेंगे ही ! पकोड़ी भी खायेंगे ! लेकिन आज जल्दी चलेंगे .... उस दिन ....रात हो गयी थी  !
चाय पकोड़ी खाने के बाद ! दोनों ने गाँव  के  लिए चढ़ाई  चढ़ना आरम्भ कर दिया ! जगत बीर ने पहले ही पपू  को सारी हिदायतें दे दी थी कैसे चलना है ! जगत बीर ने घर में माँ को उसके दिए हुए सेवों की पूरी कहानी बताई की कैसे उन सेवों की वजह से वह गाँव तक पंहुचा ! इसलिए इस बार भी माँ को सेव रखने के लिए कह दिया था  कुछ दूर चलने के बाद उसका दोस्त बन्दर फिर मिल गया ! दोनों चुप चाप आगे बढ़ते रहे !   आज बन्दर आगे की बजाय पीछे - पीछे चलने लगा !  पपू   डर गया ! लेकिन जगत बीर ने उसे समझा दिया ! डरने की कोई बात नहीं ! कुछ दूर चलने के बाद दोनों सुस्ताने बैठ गए ! बन्दर भी बैठ गया ! जगत बीर ने अपने झोले से एक सेव निकाल कर उसे दे दिया तथा  एक - एक खुद खाने लगे ! बन्दर ने जल्दी ही अपने हिस्से का सेव खा लिया ! इसलिए जगत बीर ने उसे एक सेव और निकाल कर दे दिया तथा आगे बढ़ने लगे   !
- लो दोस्त .......आराम से खा लेना ! हम चलते हैं !
- चाचा आपने ने तो  दो ही दिन में यंहा पूरी रिश्तेदारी बना दी ! चाय वाला काका...... बन्दर दोस्त .....और अभी न जाने गाँव में क्या -क्या ....
- चुप ....बहुत बिगड़ गया .... !
 शाम ढलते ढलते दोनों गाँव पंहुच गए ! मनू उन्हें आता देख पहले ही रास्ते में चला गया ! उनके हाथ से झोला लेकर आगे - आगे कमरे में पंहुच गया !
- मनू ......  परंडे  जी अभी आये नहीं ?
- नहीं गुरूजी !
- मनू बेटा यह मेरा भतीजा है ... पपू नाम है इसका ! बारहवीं में पढता है ! इसे भी अपने साथ ले आया !
देखते - देखते गाँव के और भी  बच्चे आ गए !पपू उन सब बच्चों को बड़ी अचरज से देख रहा था ! किसी ने स्कूल की ड्रेस .... किसी ने पजामा कमीज तो किसी ने निक्कर और कुर्ता  पहन रखा था ! मन ही मन सोचने लगा हे ! भगवान् अब यही शक्लें देखनी पढ़ेंगी रोज - रोज   ! देखते - देखते सारे बच्चे काम में जुट गए ! चाय ...... पानी  से लेकर रात के खाने तक की ब्यवस्था कुछ ही देर में कर सारे बच्चे  अपने - अपने घर चले गए ! खाना खाने के बाद दोनों थके हुए थे इसलिए जल्दी सो गए !
      सुबह उठकर जगत बीर तो स्कूल चला गया ! पपू अकेला कमरे में बैठा - बैठा दिन भर  सामने खड़े पहाड़ को और उसकी धार में कतार बध पेड़ों को ही निहारता रहा ! मन ही मन सोच रहा था हे ! भगवान् कंहा आकर फँस गया ! क्यों मान ली होगी मैंने चाचा की बात ! दादी तो वेसे भी नहीं भेज रही थी ! इसी चाचा को हो रही थी परेशानी ...... न टेलेफोन ... न बिजली .... न टीवी .... न दोस्त ....  क्या करूँ....... यंहा तो एक ही दिन में नानी याद आ गयी ! शाम साढ़े चार बजे जगत बीर स्कूल से लौटा ! आज सभी ने उसे टोका ! मास्टर जी  चार दिन बाद तो छुट्टियां पड़ रही है ! क्यों आये  ! एक सर ने मजाक भी कर दी .... अभी कुंवारे हैं बेचारे..... इसलिए घर में मन भी नहीं लग रहा होगा ! कमरे में पपू ने भी  चाचा को देखकर मुह दूसरी और कर दिया ! जगत बीर सब  समझ गया ! पपू का नाराज होना स्वाभाविक है !
- पपू बेटा मैं जानता हूँ तुम्हे यंहा अच्छा नहीं लग रहा है ! दरअसल मुझे भी अकेले - अकेले यंहा अच्छा नहीं लग रहा था !
- इसीलिये मुझे भी ले आये इस जंगल में !
- जंगल नहीं कहते बेटा ! यह गाँव है ..... ! कौन से हमने हमेशा यंहा रहना है...... जल्दी ही घर लौट जायेंगे  !
कुछ ही देर में  वंहा चार पांच बच्चे अपना बस्ता घर में रख पंहुंच गए ! काम - काज निपटाने ! जगत बीर को  अपने स्टुडेंट से काम कराना बिलकुल  अच्छा नहीं लग रहा था ! लेकिन इस मजबूरी का उसने हल निकाल दिया ! उसने काम करने के बाद बच्चों को पढ़ाना आरम्भ कर दिया ! बच्चे भी खुश और मास्टर जी भी !
        चार दिन बाद स्कूल की छुट्टियां पढ़ गयी ! जगत बीर ने दशवीं और बारहवीं के बच्चों को बोल दिया कि रोज की तरह स्कूल आयेंगे और अपनी परीक्षा की तैयारी करेंगे ! सभी बच्चों के साथ - साथ मास्टर लोगों को भी अचम्भा हुआ ! कोई मास्टर तो यंहा तक कह रहा था कि अभी नया - नया मुर्गा है ना ! इसीलिये जोर से बांक दे रहा है !  जगत बीर चाहता तो घर में ही गाँव के बच्चों को पढ़ा लेता  ! लेकिन उस स्कूल  में दूसरे गाँवों  के बच्चे भी तो पढ़ते थे   !  परंडे  जी भी आखिरी दिन थोड़ी देर के लिए  स्कूल आये और चले गए ! प्रिंसिपल साहब तो आये ही नहीं !  परंडे  जी से संदेशा भिजवा दिया कि वे  अब छुट्टियों के बाद ही स्कूल आयेंगे हो सकता है दो चार दिन के लिए ही आयेंगे ! बेसिक शिक्षा अधिकारी के रूप में उनकी नियुक्ति लगभग निश्चित ही है  !
         पपू भी यू.पी. बोर्ड का बिद्यार्थी होने के कारण अगले दिन से स्कूल में बारहवीं के अन्य बच्चों के साथ ही पढने लगा क्योंकि घर पर बैठे - बैठे वेसे भी वह बोर हो रहा था ! छुट्टियों के दौरान ही दसवीं बारहवीं के बच्चों के साथ - साथ पपू की भी पूरी तैयारी होने लगी ! बच्चों के साथ - साथ उनके माता पिता भी जगत बीर के इस उपकार की प्रसंसा करते नहीं थक रहे थे !   बीच - बीच में बारहवीं के बच्चों को आगे क्या करना के बारे में ही चर्चा होती रही ! इसलिए कुछ बच्चों ने बारहवीं के बाद क्या करना है तय कर लिया !  अभी तक उस स्कूल का कोई भी बच्चा आगे हायर स्टडी नहीं कर पाया ! कारण सिर्फ यह था कि उन्हें कोई जानकारी थी ही नहीं  और न ही कोई उनको गाइड करने वाला था ! पहली बार उस स्कूल के बच्चों में करियर संबंधी जागरूकता आयी ! सबसे अच्छी बात तो यह रही कि अब बच्चों ने अपने - अपने स्तर पर इंजिनीअरिंग , पोलिटेक्निक , आई .टी.आई  तथा बी.एस.सी . तक की जानकारी जुटानी शुरू कर दी तथा इस बारे में भी जगत बीर से पूछने लगे  !  बच्चों की अभिरुचि देख जगत बीर उन्हें फिजिक्स ...केमिस्ट्री  के साथ - साथ  मेथ्स में भी मदद करने लगा ! अब छुटियाँ ख़त्म होने को आ गयी पपू को भी अपने स्कूल जाना था इसलिए जगत बीर छुट्टियों के आखिरी चार - पांच दिन के लिए अपने घर चला गया लेकिन इस बीच भी दशवीं - बारहवीं के बच्चे नियमित स्कूल आते रहे तथा एक दुसरे की मदद से बचा हुआ स्लेबस भी ख़त्म करने लगे !
      आखिर छुट्टियों के बाद स्कूल खुल गया ! जगत बीर  भी अपने घर में पपू को छोड़ कर आ गया ! ठण्ड बहुत ज्यादा हो रही थी ! गाँव के ऊपर की सभी पहाड़ियां  अभी भी बर्फ की सफेद शाल ओड़कर मानो अपने - अपने घूंघट  से गाँवो की पत्थरों की चमचमाती छतों को निहार रही थी ! स्कूल में बच्चे भेड़ों की ऊन से बनी मोटी - मोटी काली और सफेद रंग की   स्वेटर पहन कर आये हुए थे ! उस दिन जब जगत बीर अपनी कक्षाओं में गया तो बच्चों कि परफोर्मेंस देख दंग रह गया ! उसे बिस्वास हो गया कि जरूर आगे चलकर यही बच्चे अपने गाँव के साथ - साथ देश का नाम रोशन करेंगे ! आज उसे अपने टीचर बनने के फैसले और अपने फ़र्ज़  पर गर्व हो रहा था !  देखते - देखते बोर्ड एक्जाम आ गए .....परीक्षाएं शुरू हो गयी .......और  ख़त्म हो गयी तथा  पिछले बर्षों की तरह स्कूल का रिजल्ट भी अच्छा रहा फर्क था तो मात्र इतना कि कुछ बच्चों में     छोटी -  मोटी नौकरी के बजाय आगे पढ़ने की चाह जागृत हो गयी ! और कहते हैं न जंहा चाह वंहा राह !
कॉपी राईट@२०१२ विजय मधुर  

रविवार, 25 दिसंबर 2011

सबकी अपनी मर्जी

         बदलाव सृष्टि का एक नियम है ! मनुष्य ही नहीं प्रकृति एवं समस्त प्राणियों में भी यह देखने को मिलती है !  कई बार ऊंचे ऊंचे पहाड़ों में खुदाई के दौरान रेत-बजरी मिलना यह दर्शाता है कि वंहा कभी कोई बड़ी नदी रही होगी या कभी - कभी किसी नदी में खंडहर के अवशेष मिलना इस बात के प्रमाण हैं कि वंहा कभी बस्ती रही होगी ! दिन प्रति दिन बदलती जलवायु एवं बैज्ञानिक प्रयोगों से पेड़ पौधो की बनावट ... फल ... फूल .... का आकार और उनके स्वाद में भी परिवर्तन होता  आया है ! आज आधुनिकता का  सर्वाधिक प्रभावित  पक्ष है मनुष्य की सभ्यता एवं संस्कृति  !  पीढ़ी  दर पीढ़ी बिचारों की भिन्नता ! जिसे आधुनिक पीढ़ी नाम देती है जनरेशन गेप का !  बुजुर्ग लोग जब कभी भी अपने जीवन रूपी ग्रन्थ के ध्र्रोहर रूपी पन्ने नव पीढ़ी के सम्मुख उलटने की कोशिश करते हैं ! कैसे  आज उन्होंने यह  मुकाम पाया ..... किन परिस्थितियों जीवन यापन किया .... परिवार कैसा होता था ..... ग्रामीण परिवेश कैसा था  ....परस्पर स्नेह भाव .... छोटे - बढे का आदर सम्मान .... रिश्तों की पहचान.... आदि ! लेकिन  काले चश्मे और मोबाइल  के एयर फ़ोन की वजह से उन्हें उस बक्त कुछ भी  न  दिखाई देता है... न सुनाई ! उन्हें दिखाई देती है सिर्फ  अपनी मंजिल  ! सुनाई देती है मंदिर की नहीं मंजिल की घंटी ! अच्छी बात है ! लेकिन सिक्के के हमेशा दो पहलू होते हैं ! एक पक्ष के साथ - साथ दूसरे पक्ष  के बारे में सोचना भी उतना ही आवश्यक है जितना मंजिल के लिए लक्ष्य निर्धारण ! बाकी बातों को निरर्थक  समझना समझदारी नहीं  ! समय का पहिया कभी स्थिर नहीं रहता ! घूमता रहता है ! जो कुछ आज है जरूरी नहीं कि वह कल भी होगा ! जो आज मिल रहा है आवश्यक नहीं वह कल भी मिलेगा ! चाहे वह मान - सम्मान हो या बुजुर्गों द्वारा आशीर्वाद स्वरूप दिया हुआ ज्ञान  ! कहते हैं ना बुजुर्ग के बोल एवं आंवले का स्वाद बाद में आता है ! एक दिन नए को पुराने की जगह लेनी  ही पढ़ती  है और तब सिवा हाथ मलने के कुछ भी हाथ नहीं लगता ! सारे रिश्ते नाते  दादा - दादी .... नाना - नानी ....चाचा - चाची ..... ताऊ - ताई ......मामा - मामी .... फूफा - फूफी .... बूबा - बूबी .... मौसा - मौसी .....जिठब्वे - जिठबबा .....समदी -समदन....जेठू .... भदया.आदि सब गुम हो जाते है  ! रिश्तों की ताशिर क्या होती है उसका उसे कुछ भी पता नहीं होता और तब याद करता है वह  उन पन्नो को जिनको उसने अपने सामने दफन होते देखा है !  आज तो रिश्ते कुछ चंद शब्दों तक ही सिमट गए हैं -माम - पा.... आंटी - अंकल .... ब्रदर - दी  ! रिश्ते बनाना तोड़ना एक सभ्यता सी बन गयी है ! जो ब्यक्ति अपनी सभ्यता और संस्कृति को समेटे बैठे हैं उन्हें नाम दिया जाता है रूढ़िवादी  या कुछ और ... ! अभी कुछ  दिन पहले की ही बात है  नित आधुनिकता का  लबादे ओढने में ब्यस्त   इसी शहर की अलग - अलग घटनाओं ने जनमानस को हिला कर रख दिया तथा सोचने को बिबस कर दिया कि आज के बदलते मूल्यों में बृध जनों एवं अहम् के लिए नित टूटते रिश्तों का यही शिलशिला चलता रहा तो आगे न जाने क्या होगा ! सचमुच चिंता का बिषय है ! उन्हें तो  कोई  परवाह नहीं जिनको करनी चाहिए  !  आखिर समाज और  सरकार की भी कोई  नैतिक जिम्मेदारी बनती है इस बिषय पर विचार करने की  ! हमारा देश उन विकशित देशो में भी शामिल  तो है नहीं जंहा सीनियर सिटीजंस  के लिए एक सुद्रढ़ नीति है  ! बात है असुरक्षा की ! देश के एक छोटे से शहर में पिछले छह माह लगभग कई  घटनाएँ जन्हा  एक ओर यह दर्शाती  है कि  हमारे   बृध जन असुरक्षित तो हैं ही वंही आसपास का समाज व तंत्र भी उनके प्रति उदासीन  है ! कुछ घटनों का जिक्र है ! एक  सेवानिवृत प्रोफ़ेसर बृध के शव की  जानकारी दूसरे तीसरे दिन नौकरानी से मिली ! दूसरी घटना शहर के भीड़ - भाड़ इलाके में एक बृध महिला के घर  लूट पाट कर उसकी निर्मम हत्या की गयी ! उसकी खबर भी दुसरे दिन सुबह काम वाली से मिली ! तीसरी घटना शहर से कुछ दूर पहाडी पर बसे एक छोटे से गाँव की है जंहा हिंदी , संस्कृत , अंग्रेजी व गढ़वाली भाषा के दक्ष ,१९७२ में दिल्ली विश्वविध्यालय से डाक्टर की उपाधि प्राप्त ,  ४० से अधिक पुस्तकों के लेखक , साहित्यकार डा . उमाशंकर सतीश का देहांत  एकांतवास में हुआ    ! सभी के अपने परिवार थे ! लेकिन आखिरी बक्त में उन्हें दो बूँद गंगा जल देने वाला भी कोई न था  ! बाद में सभी  अपने आ गए  ! आंसू बहाने .....एक - एक चीज़ की छान - बीन करने ! लगता है इन हालातों की जिम्मेदार है सबकी अपनी मर्जी ! जब  सभी अपनी मर्जी के मालिक हो गए तो परिवार नाम का अर्थ आखिर कंहा रह गया ! दिन प्रतिदिन त्याग - बलिदान की भावना ऐसे बिलुप्त होती जा रही है जेसे गधे के सर से सींग ! परिवार के बलिदानी अपनी जर्र - जर्र काया व धंसती आँखों से इन्तजार कर रही हैं जीर्ण - क्षीण मकान के नाम पर खडी चारदीवारी के ढहने का या शिकार बन रही हैं उन लालची आदमखोर मानव रुपी दानवों का जिनके के लिए मानवीय मूल्यों का  कोई अर्थ नहीं  !
कॉपी राईट @ २०११ विजय मधुर


बुधवार, 21 दिसंबर 2011

गौरय्या (कहानी)


                                             गौरय्या
       आज पूरे पांच साल बाद पहली बार बहुमंजिले फ्लेट के  चोथे माले में गौरी को एक छोटी सी  गौरय्या दिखाई दी !  उसके सामने अतीत की सारी यादें मंडराने लगी ...वही छोटी सी  बच्ची की जो आँगन में खेलते खेलते बढ़ी हुई ! कभी गुड्डे गुड़ियों के साथ तो कभी छोटी छोटी गोरयाओं के साथ ! गौरय्या कभी अकेले नहीं आती थी उसके साथ होता था उसका पूरा कुनबा ! छोटी बच्ची जिसका नाम था गौरी शायद गौरी नाम के कारण ही उसे गौरय्या से इतना प्यार हो गया था !जैसे ही ! गौरय्याओं का झुण्ड आता गौरी की खुशी का ठिकाना नहीं रहता ! वह भाग भाग कर अन्दर रसोई में जाती माँ ....माँ ...... चिड़ियों के लिए दाना दे दो ! शुरू शुरू में माँ कुछ आना कानी करती ! नहीं कन्हा रखा है रोज - रोज इनके लिए दाना ! मत डाल इनको बुरी आदत ... ! लेकिन गौरी कंहा मानने वाली ... ! कभी कभी तो वह अपने हिस्से की भात की थाली भी उनके आगे रख देती .... ! इतनी जिद्दी हो गयी थी किसी के समझाने में आती ही थी ... ! गौरय्याओं की भी गौरी से दोस्ती हो गयी थी .... आते ही बरामदे में कपड़ों के लिए टंगी रस्सियों पर जोर जोर से चूं....चूं .... करने लग जाती वो भी तब तक जब तक गौरी बाहर उनके लिए कुछ लेकर जाती ! यदि कभी गौरी नहीं आती तो बेचारी काफी देर इंतजार कर निरास होकर लौट जाती! समझ जाती कि आज गौरी घर पर नहीं है  ! जैसे जैसे गौरी बड़ी होती गयी ! लडकी होने के नाते उसपर  स्कूल के साथ -साथ रसोई .... झाड़ू .... बर्तन .... बगैरह दैनिक घरेलू कार्यों का भी दबाव पड़ता रहा जबकि उसके  बढे भाई रमण के साथ एसा था ! वह दोनों स्कूल से साथ- साथ घर आते .. रमण स्कूल का बस्ता एक तरफ तो ड्रेस दूसरी तरफ फ़ेंक ! माँ ... माँ .... भूख लगी है जल्दी से खाना दे दो ! माँ उसे खाना देती और खाना खा कर वह चम्पत दोस्तों के साथ ! जबकि गौरी के साथ एसा था ! स्कूल से आकर अपनी खुद की और रमण की ड्रेस भी संभालती ! कई बार खाना खाने से पहले नलके से पानी भर कर भी लाती ... खाने के बाद झाड़ू ... बर्तन में भी माँ का हाथ बंटाती या कभी-कभी खुद ही करती ....! कई बार माँ से इस बात का बिरोध भी जताया .... पिताजी से  भी शिकायत की लेकिन उल्टा माँ से डांट सुनने को मिलती ! कल पराये घर जायेगी तब भी एसा ही करेगी ... ! जितना ज्यादा घर का काम सीखेगी उतना ही आगे चलकर फायदा होगा तुझे .... ! माँ मुझे तो पढना है ....! बस- बस हमें नहीं बनाना तुझे कलेक्टर .... ! गौरी मन मासोट कर बैठ जाती ! माँ का यह शौतेला ब्यवहार उसे कभी अच्छा नहीं लगता था ! गौरी इस बात से अक्सर उदास हो जाती थी ! अपना दुःख आखिर किस के सामने ब्यक्त करे ! कई बार दादी - नानी से माँ की शिकायत की परन्तु वंहा से भी जबाब मिलता गौरी तेरी माँ बिलकुल ठीक कहती है ... ! लडकी जितनी ल्दी अपने घर यानी ससुराल जाये उतना ही अच्छा ! और गौरी उदास होकर बैठ जाती ! उसकी उदासी की खबर जैसे कि  गौरय्याओं को लग जाती थी ! पंहुच जाती थी वे अपने दल - बल के साथ ! और तब तक चुप नहीं होती जब तक गौरी बाहर नहीं आ जाती कुछ लेकर ! उसके बाद भी वे सब मिल गौरी के आगे उछल कूद और जैसे कि लय बध होकर  चूं ... चूं .... ... करती मानो जैसे कोई गाना गा कर गौरी को रिझा रही हों ... ! गौरी भी उनके साथ खिलखिला उठती और गौरय्याओं का झुण्ड फुर्र से उड़ जाता गौरी मुस्कराते हुए तब तक उनको निहारती रहती जब तक वे आँखों से ओझल नहीं हो जाती ! जब तक गौरी अपने अतीत से बाहर आयी ! तब तक गौरय्या न जाने कंहा गुम हो गयी ! उसे बड़ा दुःख हुआ कि गौरय्या को कुछ दाना न खिला सकी ! उसके बाद कितने ही दिनों तक बालकोनी में किस्म - किस्म के दाने भी डाले ! लेकिन वह वेसे का वेसे ही पड़ा रहता ! पुनह उसे कभी भी गौरय्या नहीं दिखाई दी !
कॉपी राईट@२०११ विजय मधुर 

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

साधारण आदमी

             एक दिन शहर के पॉउस इलाके से होता हुआ रमेश कंही जा रहा था ! एक बड़े से बंगले के सामने  लोगों की भीड़ जमा थी ! उसने सोचा चलो देख लूं क्या हो रहा है यंहा ! स्कूटर एक तरफ खड़ा कर बहुत बड़े गेट के पास खड़े बहुत से संतरियों में से एक से पूछा " भाई साहब यह किसका बंगला है " संतरी ने एक नज़र में ऊपर से नीचे उसे देखा ! फिर पूछा कंहा से आये हो ! बस यंही रहता हूँ ! अब्लू वाला में ! क्या करते हो ! मकानों में पुताई का ठेका लेता हूँ   ... क्या नाम है ..... मेरा नाम रमेश है ! रमेश ने सोचा मै बेकार ही यंहा आया .... आ बैल मुझे मार ...! संतरी ने कहा ... जब तुम यंही रहते हो तो इतना भी नहीं जानते यह ... गरीवों के मसीहा जबलु साहब का  बंगला है ... आज ही बिलायत से लौटे है .... इसी लिए इतनी भीड़ लगी है ... ! मै जा सकता हूँ उन्हें देखने ...! रमेश ने सोचा रोज ही तो कभी मजदूरों ... कभी दुकानदारों ...... तो कभी मकान बनाने वाले से किच-किच होती रहती है .... वेसे भी कम्बख्क्त पुताई वाले का नंबर तब आता है जब तक ठेकेदार .... सीमेंट वाला ....सरिया वाला ...ईंट बजरी वाला ...नलके वाला  ... बिजली वाला .... सभी उसकी जेब खाली कर चुके होते हैं ! सारा गुस्सा मालिक को हमारे ऊपर ही उतरने को मिलता है .... पैसे के लिए झक झक सो अलग ! संतरी ने अपनी ड्यूटी निभाते हुए जरूरी तलाशी ली और रमेश को अन्दर भेज दिया ! बंगले के सामने बहुत बड़े लॉन में भीड़ जमा थी .... आगे दो कुर्सियां लगी थी जो अभी खाली पडी थी ! लोग दूर से ही कुर्सियों को निहार रहे थे ! रमेश बाद में आया इसलिए उसे काफी पीछे खडा होना पडा ! लेकिन वंहा से भी दिखाई देगा इसलिए संतुष्ट होकर मन ही मन चलेगा ... ! भीड़ के साथ ही कुछ हठे कठे ... सफारी सूट पहने ... लोग घूम रहे थे ... जो बीच बीच में लोगों से पूछ रहे थे ... !  रमेश से थोडा आगे एक बुजुर्ग के पास एक आया .... बाबा कंहा से आये हो .... क्या काम है ... अर्जी लाये हो लिखकर .... हाँ यह रही ..... ! अपने पास ही रखो जब साहब आ जायेंगे तो उन्हें ही अपनी बात बताना और यह अर्जी भी दे देना ! हाथ जोड़ता हुआ .. मेहरवानी साहेब .... वेसे कितनी देर में आयेंगे साहब .... ! बस आने ही वाले थे तब तक दिल्ली से एक मंत्री जी आ गए .....! इसलिए थोडा बिलम्ब हो गया ! बस थोड़ी देर में आ जायेंगे .....! तभी भीड़ की खुसर पुसर शुरू हो गयी ! आ गए साहब .... वो रहे बरांडे में .... इधर ही आ रहे हैं ....  क्षण भर में ही वह वंहा पंहुच गए ! उनके साथ दांये बांये हाथ में फाइल लिए एक महिला और एक पुरुष मौजूद थे ! दोनों हाथ ऊपर कर ... सभी का अभिवादन करते हुए ..... बैठ जाओ  ....बैठ जाओ ..... सभी लोग नीचे लॉन पर बैठ गए ! सभी बड़े खुश हुए शायद मन ही मन सोच रहे थे कंहा हम धुल- मिट्टी में बैठने वाले गरीबों को इस बिदेशी घास में बैठने का मौका मिल रहा है !  क्योंकि लौन में आने से पहले कोई कह रहा था यह विदेशी घास है ..... ! अधिकतर लोग तो जूते  निकाल कर विदेशी घास पर आये .....! यूं समझो विदेशी घास नहीं  बल्कि हमारे यंहा के मखमल के गद्दे हों ... एक आदमी कह रहा था ! हाँ भई देखो.... पैर कैसे ......! सचमुच मखमली घास तो लग ही रही थी ... इससे पहले भी कई कोठियों में रमेश ने घास देखी थी .... लेकिन इस बिदेशी   घास की बात है ही खास ! जब सारी भीड़ जमीन पर बैठ गयी ... तो रमेश को लगा कि जैसे उसने इन साहब को कंही देखा है ... वो भी काफी नजदीक से .... ! अपने सर पर हाथ मारता हुआ ...नहीं -  नहीं  रमेश यह एसे कैसे   हो सकता है तू एक मामूली सा ठेकेदार ... ! कंहा राजा भोज और कंहा गंगू तेली ! लगता है रात को फौज  की असली  रम अभी तक  उतरी नहीं ! अभी लोगों की समस्या सुनने से पहले साहब अपनी समस्या बता रहे थे .... ! किन किन हालातों में उन्हें गरीबों के हक  के  लिए लड़ना पड़ता   है ... कंहा कंहा से धन जुटाना पड़ता है ....! आज हमारे गरीब भाइयों की स्थिति में सुधार आया है ... सस्ते दर पर उनको राशन पानी मिल रहा है .... उनके बच्चों के लिए कितने सुन्दर -सुन्दर स्कूल हैं .... भोजन ..... बर्दी से लेकर .... अच्छे अच्छे अनुभवी मास्टर हैं वंहा .... हमारी बहिने आत्म निर्भर हुई है .... आज वह किसी की मोहताज नहीं ! जैसे ही जबलु साहब ने बहिनों का जिक्र किया  रमेश को झट से याद आया ! बारह-तेरह साल पाहिले की सारी तस्बीर उसके सामने स्पस्ट नजर आने लगी ! मन ही मन अरे ! ये तो पका वही है ... जो  बारह साल पाहिले गुंथा वाले में उस मैडम के साथ आता था जिसके मकान में मैंने पुताई कराई थी ! यह तो अधिकतर उसी मैडम की गाडी में आता था ! एक दिन उसने मैडम से बात करते सुना था ! वह कह रही थी तुम अपने आप नहीं आ सकते थे ! तब साहब ने कहा था उनके पास कोई गाडी थोड़े न है ! यह इतनी जल्दी इतना बड़ा आदमी ! शायद कोई अल्लाद्दीन का चिराग हाथ लग गया होगा ! भगवान् एसे चिराग हरेक को दे देते तो कितना अच्छा होता ! तभी तो कहते है पुरुष का भाग बदलने में कंहा देर लगती है भला ! सोचा एक बार जाकर मै भी मिल लूं .... अब काफी लोग उसे घेर चुके थे .... ! पहचानता है भी या नहीं ... ! उस मकान में काम करने वाला एसा भला कोई होगा जिसको उसका पूरा पैसा मिला होगा ! जो मेन ठेकेदार था उसकी तो इन साहेब ने  इतनी धुनाई करवा दी थी इन साहेब ने कि बिचारा पूरे हफ्ते अस्पताल में पडा रहा  !   फिर मै ही क्या ? भला  किसीकी हिम्मत होती  पैसे मांगने की ! सुना था इन साहेब की बहिन थी वह! क्या नाम था..... ! छोड़ो न भई  न  अब इनके सामने जाना ठीक नहीं  दो रोटी कम से ही अपने बच्चो को पाल लूँगा .... ! नहीं ..... नहीं .... गलती कर दी मैंने यहाँ आकर ! लेकिन गलती नहीं करता तो पता कैसे चलता ....! स्कूटर हाथ बिना स्टार्ट किये  रमेश दबे क़दमों से बाहर जाने लगा !  गेट पर वही संतरी मिल गया ... बड़ी जल्दी साहब से भेंट हो गयी ....देखा कितने भले इंसान है .....! रमेश .... हाँ भय्या ! एक बात पूछता हूँ तुमसे बुरा तो नहीं मानोगे .......!  नहीं बोलो ... मै भी तो तुम्हारे ही जैसा .....! वो ...वो.... गुंथा वाले में इन साहब की बहिन रहती है न क्या नाम है उसका .....! संतरी रमेश को कोने में ले जाते हुए .... ! किसी के सामने मत बोल देना भाई .... और सुनो  .... धीरे से बुदबुदाया वह साहब की बहिन नहीं ..... खास म ख़ास .... है ..! दो....स्त !  लेकिन तुम्हे कैसे मालूम ........!   ठीक है भाई राम .... राम .....  कहता हुआ रमेश स्कूटर लेकर बाहर आ गया ! स्कूटर स्टार्ट कर सीधे फौजी भाई के मकान के लिए जाने लगा ! आज उसे अपने साधारण आदमी  होने पर  ही गर्व हो रहा था !
*विजय मधुर