शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

कविता : नींद हराम

सपनों के भंवर में
एसा उलझा
हो गयी
नींद हराम
मै क्या करूँ
मेरे राम ...... ।

बाल्यकाल के
स्वर्णिम पलों को
रखा है अभी
बड़े संजोकर
लगा न पाया
अब तक कोई
उन क्षणों के दाम

मै क्या करूँ
मेरे राम ......।

यौवन  के देखे
अनेक रूप
चंचल चपला
पेट की भूख
तारतम्य के
दोनों में
हो गयी
सुबह से शाम

मै क्या करूँ
मेरे राम ......।

गाडी ...
बंगला ..
नौकर चाकर
तब भी अधूरा
सपना पाकर
अभिलाषा के
सागर में
हो गया
अब बदनाम

मै क्या करूँ
मेरे राम ...... ।

@2013 विजय मधुर


 

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