रविवार, 2 सितंबर 2012

कहानी : बेरंग बादल

          गाडी से उतरने के बाद रमतू ने छोटे से बाज़ार में इधर उधर देखा आज उसे अपने गाँव का कोई भी नज़र नहीं आया । गाँव पंहुचने  की  जल्दी में वह  चाय पीने भी नहीं रुका   । आज पहली बार उसके साथ एसा हुआ । एक नौजवान  कंधे में झोला लटका कर उनके गाँव के रास्ते की ओर    जाता  दिखाई दिया । जान पर जान आई । लगा गाँव का ही लड़का होगा ...सालों बाद कभी कभी तो आना होता है कंहा से पहचानेगें एक दूसरे को ।
अरे ! भय्या सुनो ... रनू गाँव के लिए आज कोई गाडी नहीं होगी क्या ?
अंकल गाडी तो आज वंहा के लिए बंद है । कल ही जगह - जगह सड़क टूट गयी । लड़के ने बड़े आदर के साथ जबाब दिया ।
तुम्हे भी वंही जाना होगा ...।
नहीं नहीं .....।
आज हमारे गाँव का भी कोई नहीं दिखाई दे रहा है .....।
 कंहा से दिखाई देगा ।
 क्यों ....
अंकल आजकल पैदल कौन आता है । हमारी तो मजबूरी है  । मेरे साथ चलना है पुराने रास्ते  तो चलो मैं सीलू गाँव का हूँ ।
चलो इसी बहाने पुरानी यादें ताज़ा हो जायेंगी ...लगभग दस बर्ष हो गए होंगे इस रास्ते पर चले हुए ।
दोनों बातें करते करते उस  छोटी सी नदी के पास पंहुच गए जंहा से उनके रास्ते अलग अलग हो जाते हैं । नौजवान ने हाथ जोड़ते हुए
अच्छा अंकल .... नमस्ते ।  कहते हुए   अपने सीधे - सपाट रास्ते  पर चल दिया । 
अच्छा बेटा   .. थकी हारी आवाज में रमतू ने कहा और पुल के किनारे बनी पुलिया पर बैठ गया ।  साथी भी आँखों से ओझल हो गया जन्हा तक नज़र पंहुचती थी कोई भी तो नज़र न आ रहा था। अब उसके सामने अचानक खडी हो गयी करीब डेढ़ किलोमीटर की खडी चढ़ाई ।जिसे देख आज रमतू  को  दिन में  ही  चाँद तारे नज़र  आने लगे । मन ही मन अपने आप आप को कोसने लगा ।  न जाने किस घड़ी में गाँव आने की सूझी । मेरे से तो अच्छी सुमती ही रही । दो टूक में कह दिया था । बर्षात के मौसम में वो भी गाँव ...तुम्हे जाना है तो जाओ .. मुझे नहीं आना । क्या हुआ अगर चाचा जी  बीमार हैं । उनके बच्चे तो उनके पास पंहुच ही गए होंगे  न । मेरी सलाह मानो  तो रहने दो तुम भी । बाद में देखी जायेगी । तब तक मौसम भी ठीक हो जायेगा ।  कास उसकी ही बात मान ली होती ...नहीं .. नहीं ... पहले भी उसकी बात मानकर .. मै .....पछता रहा हूँ   उन चाचा जी को मै कैसे भूल सकता हूँ जिनकी बदौलत अपने भले पूरे परिवार   के  साथ दिल्ली  जैसे शहर में    ठीक     ठाक झोपड़े में चैन की दो रोटी खा रहा हूँ।   दो दिन पहले  जब से जीनू 
ने बताया कि  चाचा सख्त बीमार  हैं  बचने  की कोई  उम्मीद  नहीं तब से   मन में  बस यही इच्छा  हुई कम से कम   आखिरी क्षणों में उनके दर्शन कर पांऊ ।  अफसोस सब कुछ होते हुए भी उनके लिए कुछ नहीं कर पाया । एक बार ले जाता दिल्ली तो क्या हो जाता । जिसको बुरा लगता ... लगने  देता .....स्टेटस ... पड़ोसी ... गंवार ...छि ....छि ... ।  उस दिन कैसी  दबी जुबान और हिम्मत जुटाकर कर  कहा था चाचा ने  आज भी उनके कहे एक - एक शब्द याद हैं  
 बेटा । वो क्या है  ....तेरी चाची भी न  .... इन औरतों का भी .... जन्हा चार कट्ठी  हुई नहीं .. ले आती हैं नयी - नयी मुशीबतें । (लम्बी सी सांस लेते हुए ) ...  छब्बीस  जनबरी देखने के लिए .... कह रही है  ।
इतनी सी  बात के लिए आप इतना .....  क्यों नही मै जनबरी पहले - दूसरे सप्ताह  आऊँगा  और ले जाऊँगा आप दोनों को  अपने साथ ।  एक आध हफ्ते आराम से घूमना  दिल्ली  ......आप और ... चाची  ।   उस बक्त कितनी सहजता से बोल दिया था । पहली बार इतना खुश होकर चाची को  तेज़ी से  सीढियां चढ़ते देखा । उन्होंने शायद पूरी  बात सुन ली थी ।पूरे चार  सालों तक चाची  छब्बीस जनबरी का सपना देखती रही और   - एक दिन खबर आयी कि चाची चल बसी । अपने आप को धिक्कारते हुए उसने पुरानी आदत से मजबूर एक बढ़ा सा पत्थर उठाकर नदी में फ़ेंक दिया । जो नदी की तेज़ धारा में न जाने कंहा बिलीन हो गया ।  वेसे तो उस छोटी सी नदी में बहुत कम पानी होता । स्कूल आते  - जाते जब कभी पेट ख़राब होता तो पानी की तलाश में नदी में काफी ऊपर जाकर  कंही पानी मिलता  ।  आज वही  नदी अपने  पूरे उफान पर थी । उसके शोर के आगे उस पत्थर की छप्प तक न सुनाई दी  । अब हिम्मत का सामना करने के लिए खडी थी चढ़ाई ।  यह वही चढ़ाई थी जिसे वह पच्चीस साल पहले स्कूल से आते हुए रोज़ घर जाता  । कभी ध्यान से देखा ही नहीं । यह छोटी सी नदी ...... यह रास्ता .....और ..... यह चढ़ाई आज इतनी डरावनी कैसे हो गयी । सड़क को भी कल ही टूटना था । हे! भगवान् । मन में कोफ़्त ..... एसा लगता है इस रास्ते   पर कोई बर्षों से चला  ही  नहीं । फिर दिमाग में वही पुराना आइडिया आया । उस समय जब कभी टाइम  पास करना होता  या  घर जल्दी नहीं जाना होता  तब रास्ते में हर तीसरे कदम पर घोड़े का बाल ढूँढ़ते थे .... और वह मिल भी जाता था । ऊपर धार में पंहुच कर उन्हें गिनते थे किसने कितने बाल इकट्ठे किये । जिसमे वह हमेशा फर्स्ट आता था । लेकिन आज तो उस बंजर सड़क पर खच्चरों को चले हुए भी बर्षों बीत गए । जबसे गाँव तक सड़क पंहुची । खच्चर वालों ने अपने अपने खच्चर बेच दिए । फिर भी दस - पंद्रह  कदम पर आज भी कोई बाल मिल ही रहा था । इस प्रकार धार में पंहुचते पंहुचते काफी बाल इकठ्ठा हो गए जिन्हें उसने गिना नहीं  । अब रमतू ने राहत की लम्बी सांस ली ... चलो एक जंग तो जीत गया । अब तो सीधा रास्ता है । धार में अपने पुराने दिनों की तरह उस बड़े से पत्थर के ऊपर लेटा वह आसमान को निहार रहा था । आज कम से कम मौसम ने उस पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखी ।  सूरज दिन भर बादलों के पीछे छुपता छुपाता आखरी पहाड़ी पर जा पंहुचा था । बादल रंग बिरंगे रंगों से अलग - अलग आकृतियाँ बनाने में ब्यस्त थे । लगता है आज उन्हें भी कोई मस्ती सूझी है । बढ़ा बादल छोटे बादल को दबाकर अपने में समाहित कर रहा था । छोटे बादल बेचारे कितना अपने आप को बचाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन सारे प्रयास पल भर में भी बौने साबित हो जाते ।रमतू कुछ क्षणों के लिए भूल ही गया कि वह कंहा है तभी कुछ जानी पहचानी घंटियों की आवाज कानों में आयी । वह एकदम हडबडा कर उठ बैठा । सामने देखा तो सीढी नुमा दो खेतों के बीच बनी पगडंडी पर घास चरते चरते ... टन ..टन घंटी बजाते छोटी नस्ल के बैलों की जोड़ी उसके तरफ बढी जा रही थी । खुशी का कोई ठिकाना न रहा इस नज़ारे को देखने के न जाने कब से आँखे लालायित थी । बैल एक दम करीब आ पंहुचे थे लेकिन अभी तक उनके साथ कोई नहीं दिखाई दिया । एसा हो ही नहीं सकता कि अचानक हाथ में लम्बी सी   स्व्ट्गी लिए उनका मालिक भी आ पंहुचा ।
भाई साहब नमस्कार ! कहते - कहते सबरू रमतू के गले लग गया ।
परिवार में सब कुशल मंगल .......
हाँ ...
काका को देखने आये होंगे ........
हाँ !  कैसी है उनकी तबियत ......?
तबियत अब कंहा ......
मतलब क्या हुआ उन्हें .....?
हुआ तो अभी कुछ नहीं ....लेकिन कह नहीं सकते .....कितनी देर के मालिक हैं ।
भाई ! आप तो जानते ही मेरे लिए तो पिताजी से बढ़कर हैं वो ... बस एक बार आखिरी दर्शन ...
यह सब बस उस ऊपर वाले का खेल है ...जो तुम्हारी किश्मत में होगा .....
अब दोनों के बीच बर्तालाप में पसरे सन्नाटे को तोड़ रही थी तो सिर्फ स्वरबद्द   तरीके से बजती बैलों की घंटिया । कुछ दूर तक दोनों यूंही चलते रहे । फिर सबरू ने रास्ते के ऊपर  से कुछ पत्तियां तोड़ी  । उनसे  चिलम बनाई ।  कंधे में टंगे झोले से तम्बाकू उसमे भरी । दो  सफेद पत्थरों के बीच सफेद रूई जैसे कुछ खास पत्तों की निचली सतह रखी ।   लोहे के खास टुकड़े से उन्हें जोर से रगडा । हो गयी आग तैयार । उसे चिलम में भरी तम्बाकू के ऊपर रख जोर - जोर से  कस  मारने लगा । धुंवे का एक बड़ा सा गोला मुंह से छोड़ते हुए खूं .......खूं .......खूं ....... खांसते खांसते ...
क्या करें भाई साहब बेकार है यंहा की जिन्दगी .... मैंने तो अपने पैरों खुद ही कुल्हाड़ी मारी .....बाप ने अच्छा भला धक्का दे दिया  था .... वो भी दो दो बार ...... मै ही उलटे पैर यंहा लौटा । देहरादून जिस बिभाग में मै लगा था आज साथ वाले  सारे पक्के हो गए ... ऐस कर रहे हैं ...आपकी तरह .....। कहते -कहते अब उसने दूसरा कस पहले से ज्यादा जोर से खींच लिया । जो स्पस्ट दिखाई दे रहा था उसके भिंचे गालों एवं गले की खिंची मोटी मोटी नसों से । उम्र में रमतू से तीन साल छोटा था परन्तु लगता तेरह साल बढ़ा । इस  बार धुंवे का गुब्बार पहले से कंही ज्यादा होने के साथ - साथ खांसी भी देर तक रही । खांसते - खांसते अब उसकी आँखे लाल सुरक हो गयी थी । अब वंहा से गाँव स्पष्ट दिखने लगा । गाँव में पहले की अपेक्षा मकान बढ़ गए थे । मकानों के बीच की दूरियां कम हो गयी थी ।
लो भाई साहब गाँव भी आने वाला है । जब से सड़क बनी तब से इधर कोई झांकता भी नहीं । नहीं तो अब तक पूरे गाँव में खबर पंहुच गयी होती कि आज फलां परदेशी पंहुच गया । मै भी सीलू गाँव गया था इस जोड़ी को लाने । इसके मालिक भी समझो यंहा से पैक करके गए ......।
रमतू को अब सबरू की  बातों में कुछ भी दिलचस्पी नहीं रही । उसका मन तो बस इस बात से ज्यादा भयभीत था कि हमेशा जो  गाँव कभी बच्चों किलकारियों ....कभी जोर से बजते रेडियो - टेपरिकार्ड .....कभी किसी के आपसी झगड़े ...या कभी किसी के नुक्सान होने पर गालियों से गूंजता ही रहता था आज खामोश क्यों है । गाँव के नजदीक पंहुचते अब रमतू को अपना घर भी दिखने लगा जिसमे लोगों की हलचल भी उसे दिखने  लगी । वह  यह सब ध्यान से देख ही रहा था कि उसी घर से जोर - जोर से रोने की आवाजें आने लगी । रमतू ठोकर खा कर नीचे खेत में गिरने ही वाला था की सबरू ने उसे थाम लिया । अब बैलों  की घंटिया उनसे दूर जा चुकी थी । सूरज भी पहाड़ी के पार से देखने की कोशिश कर रहा था परन्तु उसकी दृष्टि अब आसमान तक ही सीमित रह गयी थी । जो अब अपनी लालिमा से सिर्फ आसमान मे पसरे बेरंग बादलों में रंग भरने की कोशिश कर रही थी ।
 
@2012 विजय मधुर 
 
 
 

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