जीवन की गहराईयों को समझना
कितना मुश्किल है | छोटा सा कार्य सम्पादित कर लेने से लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो
जाती | लक्ष्य निर्धारण एवं उसकी पूर्ति की कोई तय उम्र या सीमा नहीं होती | जीवन के उतार
चढ़ाव इसके मानक तो परिस्थितियां भी किसी हद तक इसके लिए जिम्मेदार होती हैं | पिछले
वर्ष १ मार्च २०१४, आज के ही दिन अपने पूज्य पिता स्व. झब्बन लाल विध्यावाचस्पति
के जीवन मूल्यों का अपने विवेकानुसार पुस्तक “प्रसिद्ध समाजसेवी, शिक्षाविद एवं
साहित्यकार - स्व. झब्बन लाल विध्यावाचस्पति”
के लोकार्पण के रूप में संपन्न किया | ३०० पृष्ठों की यह पुस्तक स्व. पिता
के परिचितों एवं समाज से जुड़े बुद्धिजीवियों द्वारा बहुत सराही गयी | पुस्तक की एक
प्रति माननीय मुख्यमंत्री, उत्तराखंड सरकार – श्री हरीश रावत जी को इस आशय के साथ भेंट की
गयी कि वह उस समाजसेवी, जिन्होंने अपना
सम्पूर्ण जीवन ही समाज के लिए समर्पित कर दिया हो के आदर्शों को समझने – जानने और
प्रेरणा स्वरुप नव पीढ़ी के लिए उत्तराखंड सरकार के माध्यम से विभिन्न स्कूल
कालेजों के पुस्तकालयों के लिए अग्रसारित करें तो यह उस कर्मठ सामाजसेवी,
शिक्षाविद, पत्रकार , साहित्यकार के लिए सच्ची श्रधांजलि होगी | लेकिन यह अभी तक
संभव नहीं हो पाया |
अत्यधिक व्यस्तता इंसान को
दिशाहीन बना देती हैं | पुस्तक लोकार्पण के पश्चात दिल्ली आना पड़ा |देहरादून की सुंदर वादियों
से दिन रात के शोरगुल के मध्य एक वर्ष बीतने को आ गया | सामाजिक साहित्यिक
गतिविधियां मन के भीतर कंही दब सी गयी हैं | लेखनी भी लगता है भीड़ का हिस्सा बन गयी |
किन शब्दों में स्मरण करूँ उस पुण्य आत्मा को उनके जन्मदिवस के अवसर पर | कैसे स्मरण करूँ उन सुदृढ़ हाथों को जिन्होंने नन्ही सी उँगलियों को थाम मंजिल तक पंहुचाया | जीवन पर्यन्त सामाजिक विसंगतियों के लिए निर्भीक बुलंद तर्क संगत टिप्पणी करती वह वाणी जिसके अनेक रूप देखने को मिलते थे | घर परिवार के लिए स्नेह जिनके मन में कूट – कूट कर भरा था | भावुकता इतनी कि किसी भी गाँव की रोती हुई ससुराल जाती बेटी को देख लेते तो उनके आंसू रुकने का नाम ही नहीं लेते थे |
२३ जनवरी १९८८ उनकी ही डायरी में दर्ज एक कविता से पिता स्व. झब्बन लाल विध्यावाचस्पति का सादर स्मरण |
किन शब्दों में स्मरण करूँ उस पुण्य आत्मा को उनके जन्मदिवस के अवसर पर | कैसे स्मरण करूँ उन सुदृढ़ हाथों को जिन्होंने नन्ही सी उँगलियों को थाम मंजिल तक पंहुचाया | जीवन पर्यन्त सामाजिक विसंगतियों के लिए निर्भीक बुलंद तर्क संगत टिप्पणी करती वह वाणी जिसके अनेक रूप देखने को मिलते थे | घर परिवार के लिए स्नेह जिनके मन में कूट – कूट कर भरा था | भावुकता इतनी कि किसी भी गाँव की रोती हुई ससुराल जाती बेटी को देख लेते तो उनके आंसू रुकने का नाम ही नहीं लेते थे |
२३ जनवरी १९८८ उनकी ही डायरी में दर्ज एक कविता से पिता स्व. झब्बन लाल विध्यावाचस्पति का सादर स्मरण |
मुझे बिकने दो अब मेरा क्या काम
मिली अंक मसी तन छेद दिया
मन भाव छिपे सब लेख लिया
पढ़ पाठ लिया परिणाम मिला
मुझ फ़ेंक परे नहीं मान रहा
पाती फाड़ फ़ेंक रद्दी टुकिया
या धूल शूल में जलने दे
पढ़े मूल मन्त्र जो मन में हैं
मेरी याद उसी में रहने दे
अब नयन नेह तज त्याग मेरा
पुनि पुण्य पाप का जाप जगा
रख रद्दी की गड्डी बिकने दे
हो पुनर्जन्म पाती लिख दे |
@२०१५ विजय मधुर
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