रविवार, 30 दिसंबर 2012

कविता - जिन्दा पिशाच

बचपन में
भूत का डर
बताकर
माँ बुला लेती थी
घर में
सांझ ढलते ही ।

मन में भूत का डर
इस कदर कर गया घर
कि लघुशंका के लिए भी जाते
तो माँ की उंगली पकड़कर ।

जब आ गए शहर
तो देखा कंही
अँधेरा ही नहीं
सुनसान सड़क पर भी
दमक रही है रोशनी
तो भूत का डर
भाग गया
और मै
डरपोक से
निडर बन गया ।

निडरता की देन से
शराबियों से पिटा
सिरफिरों से लुटा
बेलगाम गाड़ियों से ठुका
लेकिन अक्ल न आना
थी मजबूरी
फैक्ट्री और घर में थी
अमीरी - गरीबी सी दूरी ।

समझ आ गया
यह वह  गाँव नहीं
जन्हा माँ के हाथों
चुटकी भर  बभूत
या दादू की
रखवाली से
भाग जाता था
अद्रश्य भूत ।

यंहा शहर में तो
जिन्दा  पिशाचों  की
है बहुत बड़ी जमात
जो बिचरती है दिन रात
किसी को भी बना लेती हैं
बसों - ट्रेनों - घरों - भरे बाज़ार
चौराहों पर अपना शिकार ।

लगता है
सरंक्षण के संग संग
है इनसे किसी की
कुटिल  करार
तभी तो तांत्रिक 
सौ में से एक को
बस   कर पाते हैं
बाकी  निनान्ब्बे फरार ।









@2012 विजय मधुर







 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आभार