गुरुवार, 15 नवंबर 2012

कहानी - दिवाली का नया सपना


           आज सुबह से ही  नमन का  मन  उखड़ा -  उखड़ा था । आफिस भी गया लेकिन वंहा भी माहौल फीका फीका लगा  । उसके  अलावा ऑफिस में कुछ स्थानीय कार्मिक ही आज उपस्थित थे । वे भी दोपहर बाद एक - एक कर गधे के सर से सींग की तरह गायब होते नज़र आये । सोचने लगा कंहा जाऊँ  कमरे में जाकर भी क्या करूंगा । दोस्त लोग भी अपने - अपने परिवार के साथ दीपावली की तैयारी में जुटे होंगे । बीबी के लिए साड़ी , बच्चों के लिए के लिए  पठाखे घर के लिए दीये .... लड़ियाँ  ...... । हाँ लड़ियों से  याद आया भला हो यह नयी लड़ियाँ बनाने  वाली कम्पनी  का   जिसकी  वजह से आज सारे घर जगमगा रहे हैं । पहले एक - एक बल्ब को जोड़ कर जो लड़ियाँ बनाई जाती   थी बाप रे बाप कितना समय लगता था उन्हें जोड़ने में । छोटे छोटे बल्ब लाओ तार लावो फिर एक - एक कर उन्हें जोड़ो । किसी बल्ब की छोटी सी पतली त़ार कंही टूट गयी तो सारी  मेहनत फिर दुबारा । टेस्टर से एक - एक बल्ब को चैक करो ।   और अब तो झट - पट का जमाना आ गया । पैकेट पन्नी खोलते ही  मिनटों में ही रंग बिरंगी रोशनी हाज़िर । लड़ियों  से लेकर खिलौने तक  गली के कोने कोने में आलू प्याज़ से भी  कम दामों में खूब  मिल जाते हैं  । अपने देश के  नहीं हैं तो क्या हुआ ?  अपने देश की वह   बल्ब खिलोनों की  फेक्टरियाँ बंद हो गयी तो क्या ......? मजदूर बेगार हो गए तो क्या ...? मैं क्यों अपना सर खपाऊ  ?  इन  लड़ियो से घर तो कम से कम आज सबके जगमगा ही रहे हैं ।  चाहे मंहगे सरसों के तेल से भरे दीयों से न सही  । क्यों न  अपने कमरे में  भी दो  चार लड़ियाँ टांक ही दूं   । घर लौटते सड़क के किनारे रुकते हुए उसने कहा ।पचास रूपये में अच्छी खासी दो लड़ियाँ मिल गयी वो भी बटन वाली । एक बार बटन दबावो तो एक छोर से लड़ी जलती हुई दुसरे छोर पंहुच जाती । दूसरी बार बटन दबावो तो बीच से जलती हुई दोनों छोरों तक । तीसरी बार टिम - टिम करके जलती बुझती । कुछ समय तो उस बटन को बार - बार दबाने में बीत गया । लेकिन रह - रह कर घर की याद सताने लगी  काश आज  इन लड़ियों के साथ अपने गाँव में होता तो कितना अच्छा होता । कितने खुश होते बच्चे .... माँ  बाबू और वह ... । आज भी  याद है वह दिन जब वह  सज धज कर  दीयों की जगमगाती थाल लेकर  चौखट पर आयी थी । असंख्य दीपों की रोशनी मानों उसके मुख मंडल में समां गयी हो । फोटो खींचने के बहाने न जाने कब तक उसे  उसी मुद्रा में खड़े रहने को कह दिया था ।  मन की बात वह भांप पायी या नहीं  लेकिन  उसके खिंचे ओंठो से दोनों गालों पर पड़े गोल - गोल पिलों से कुछ - कुछ तो  प्रतीत हो रहा था ।  उसी ने क्या माँ ने भी .....। वह भी जानबूझकर अनजान बन एक तरफ जाकर   मंद मंद मुस्करा दी थी  । जिसका  कुछ दिनों बाद पता चला । जब माँ ने एक दिन बात - बात में बोल ही दिया । सचमुच बड़ी लज्जा  आयी । और वह  तो ........ पल्लू दांतों तले दबाकर आँगन से दबे पाँव ऐसे गायब हुई जैसे उसकी कोई  बड़ी भारी चोरी पकड़ी गयी हो । एक अदना सा बहाना बनाकर  वंहा से फूटना पड़ा । भला हो  बाबू जी का जिनकी खांसी ने उस दिन सपने से जगा दिया  । हाँ सपना ही तो था वो । वह सपना देखे बर्षों बीत गए लेकिन लगता है आज क्या जैसे अभी वह सपना पुनह  घटित हो रहाहो । एकदम ताज़ा । भले ही फोटो सही न खिंची हो दरशल  फोटो खींचने में ध्यान ही  किसका था । एक लम्बी साँस छोड़ते हुए मन ही मन उसने कहा । अब क्या यही तो यादें बाकी हैं जिनके सहारे जिन्दगी चल रही है  ।  बच्चे  बड़े हो गए   । परिस्थितिया बदल गयी हैं । माँ - बाबू दोनों चल फिर नहीं पाते । कोल्हू की बैल की तरह जुता हूँ ..... । खैर अब देखो ...चाह कर भी घर नहीं जा सकता ।  आखिर एक ही दिन की तो छुट्टी है । एक दिन जाने  में ....एक दिन आने  में .... और कम से कम दो दिन तो घर पर चाहिए ही । वेसे तो घर पर दो दिन में तो उसकी कहानी भी पूरी नहीं हो पायेगी । यूं समझो कि  एक सप्ताह तो कम से कम चाहिए ही ।  एक सप्ताह की छुट्टी मिलना तो संभव नहीं ।  छुट्टी मिल  भी जाती  तो पगार .......। पगार कटने से बढ़िया तो .......। अचानक एक जोर से पटाखे की आवाज ने उसे  हिला दिया कान बंद हो गए । पतली - पतली दो कांच की  पत्तियों को  खांचों  में अटका कर बनी आलमारी ही समझो  में सजाये एक  दो बर्तन फर्श पर लुढ़क गए । उन्हें सँभालने के बजाय अध् टूटी बालकोनी से नीचे गली  की तरफ झाँका  तो धुंवा उसकी ओर बढ़ रहा था । न जाने उसे क्यों एसा लगा कि   देशी बल्बों की लड़ियों की तरह  यह पटाखे भी एक दिन बंद हो जायेंगे । बना देंगे लड़ियों वाले ही सस्ते पटाखे जो  पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित होंगे । पालीथीन की थैलियों के बजाय नामी  ब्रांडो के पाउचों की पैकिंग की तरह  । अभी धुंवा छंटा भी न था कि शी .......  सीटी बजाता एक रोकेट  चौथे माले में खड़ी युवती को बाल - बाल बचाता हुआ आसमान में जाकर एक धमाके के साथ फूट पड़ा । उससे निकली रंग - बिरंगी रोशनियों ने कुछ क्षणों के लिए  उस घनी बस्ती जगमगा   दिया   । उसी  क्षणिक जगमगाहट में उसकी  नज़र  गली के उस पार उसी युवती की ओर टिक गयी जो चौथे मंजिल की बालकोनी पर अब भी बेफिक्र खड़ी थी । एक बार उसका   मन हुआ कि जाकर पूछे  उससे ......? लेकिन नहीं ?  आज पहली बार तो  देखा वो भी आधुनिक लड़ियों और रोकेट से बिखरी रंग बिरंगी   जगमगाहट में । भले ही उसे चेहरा स्पस्ट नज़र न आया हो । लेकिन डील - डौल में बिलकुल उसी की तरह  । इस गली में रहते हुए नमन पूरा साल होने को आया लेकिन अभी तक मकान मालिकों के अलावा उसने  किसी को ठीक से देखा ही  नहीं । सुबह सात बजे घर से नकलने के बाद  आठ बजे से पहले कभी लौटना होता । छुट्टी के दिन भी कभी कोई आ जाता है तो कभी कोई  अपना - अपना राग अलापने ।  नमन यह सब सोच ही रहा था कि देखा सामने बालकोनी पर खड़ी  युवती का पल्ला पकड़े एक बच्चा कुछ जिद्द सा  रहा है । शायद पटाखों की मांग कर रहा हो ।  गली के शोरगुल के कारण बस मम्मी ...... मम्मी ....  सुनाई दिया ।  और वह उसका सर मलासती - पुचकारती अपने साथ अन्दर ले गयी । छोटी दिवाली होने के कारण बच्चों ने बम फोड़ने बंद कर दिए । कुछ देर इधर - उधर नज़र दौड़ाने के बाद दरवाजा बंद कर नमन  कमरे के बीचों - बीच इकलौती फोल्डिंग चारपाई पर निढाल होकर पसर गया । कमरे में सामने वाली बालकोनी की तरह ही लड़ियाँ टिमटिमा रही थी । दिवाली के नए सपने के साथ न जाने कब उसकी आँख लगी पता ही न चला ।
@2012 विजय मधुर

 

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