आज सुबह से ही नमन का मन उखड़ा - उखड़ा था । आफिस भी गया लेकिन वंहा भी माहौल फीका फीका लगा । उसके अलावा ऑफिस में कुछ स्थानीय कार्मिक ही आज उपस्थित थे । वे भी दोपहर बाद एक - एक कर गधे के सर से सींग की तरह गायब होते नज़र आये । सोचने लगा कंहा जाऊँ कमरे में जाकर भी क्या करूंगा । दोस्त लोग भी अपने - अपने परिवार के साथ दीपावली की तैयारी में जुटे होंगे । बीबी के लिए साड़ी , बच्चों के लिए के लिए पठाखे घर के लिए दीये .... लड़ियाँ ...... । हाँ लड़ियों से याद आया भला हो यह नयी लड़ियाँ बनाने वाली कम्पनी का जिसकी वजह से आज सारे घर जगमगा रहे हैं । पहले एक - एक बल्ब को जोड़ कर जो लड़ियाँ बनाई जाती थी बाप रे बाप कितना समय लगता था उन्हें जोड़ने में । छोटे छोटे बल्ब लाओ तार लावो फिर एक - एक कर उन्हें जोड़ो । किसी बल्ब की छोटी सी पतली त़ार कंही टूट गयी तो सारी मेहनत फिर दुबारा । टेस्टर से एक - एक बल्ब को चैक करो । और अब तो झट - पट का जमाना आ गया । पैकेट पन्नी खोलते ही मिनटों में ही रंग बिरंगी रोशनी हाज़िर । लड़ियों से लेकर खिलौने तक गली के कोने कोने में आलू प्याज़ से भी कम दामों में खूब मिल जाते हैं । अपने देश के नहीं हैं तो क्या हुआ ? अपने देश की वह बल्ब खिलोनों की फेक्टरियाँ बंद हो गयी तो क्या ......? मजदूर बेगार हो गए तो क्या ...? मैं क्यों अपना सर खपाऊ ? इन लड़ियो से घर तो कम से कम आज सबके जगमगा ही रहे हैं । चाहे मंहगे सरसों के तेल से भरे दीयों से न सही । क्यों न अपने कमरे में भी दो चार लड़ियाँ टांक ही दूं । घर लौटते सड़क के किनारे रुकते हुए उसने कहा ।पचास रूपये में अच्छी खासी दो लड़ियाँ मिल गयी वो भी बटन वाली । एक बार बटन दबावो तो एक छोर से लड़ी जलती हुई दुसरे छोर पंहुच जाती । दूसरी बार बटन दबावो तो बीच से जलती हुई दोनों छोरों तक । तीसरी बार टिम - टिम करके जलती बुझती । कुछ समय तो उस बटन को बार - बार दबाने में बीत गया । लेकिन रह - रह कर घर की याद सताने लगी काश आज इन लड़ियों के साथ अपने गाँव में होता तो कितना अच्छा होता । कितने खुश होते बच्चे .... माँ बाबू और वह ... । आज भी याद है वह दिन जब वह सज धज कर दीयों की जगमगाती थाल लेकर चौखट पर आयी थी । असंख्य दीपों की रोशनी मानों उसके मुख मंडल में समां गयी हो । फोटो खींचने के बहाने न जाने कब तक उसे उसी मुद्रा में खड़े रहने को कह दिया था । मन की बात वह भांप पायी या नहीं लेकिन उसके खिंचे ओंठो से दोनों गालों पर पड़े गोल - गोल पिलों से कुछ - कुछ तो प्रतीत हो रहा था । उसी ने क्या माँ ने भी .....। वह भी जानबूझकर अनजान बन एक तरफ जाकर मंद मंद मुस्करा दी थी । जिसका कुछ दिनों बाद पता चला । जब माँ ने एक दिन बात - बात में बोल ही दिया । सचमुच बड़ी लज्जा आयी । और वह तो ........ पल्लू दांतों तले दबाकर आँगन से दबे पाँव ऐसे गायब हुई जैसे उसकी कोई बड़ी भारी चोरी पकड़ी गयी हो । एक अदना सा बहाना बनाकर वंहा से फूटना पड़ा । भला हो बाबू जी का जिनकी खांसी ने उस दिन सपने से जगा दिया । हाँ सपना ही तो था वो । वह सपना देखे बर्षों बीत गए लेकिन लगता है आज क्या जैसे अभी वह सपना पुनह घटित हो रहाहो । एकदम ताज़ा । भले ही फोटो सही न खिंची हो दरशल फोटो खींचने में ध्यान ही किसका था । एक लम्बी साँस छोड़ते हुए मन ही मन उसने कहा । अब क्या यही तो यादें बाकी हैं जिनके सहारे जिन्दगी चल रही है । बच्चे बड़े हो गए । परिस्थितिया बदल गयी हैं । माँ - बाबू दोनों चल फिर नहीं पाते । कोल्हू की बैल की तरह जुता हूँ ..... । खैर अब देखो ...चाह कर भी घर नहीं जा सकता । आखिर एक ही दिन की तो छुट्टी है । एक दिन जाने में ....एक दिन आने में .... और कम से कम दो दिन तो घर पर चाहिए ही । वेसे तो घर पर दो दिन में तो उसकी कहानी भी पूरी नहीं हो पायेगी । यूं समझो कि एक सप्ताह तो कम से कम चाहिए ही । एक सप्ताह की छुट्टी मिलना तो संभव नहीं । छुट्टी मिल भी जाती तो पगार .......। पगार कटने से बढ़िया तो .......। अचानक एक जोर से पटाखे की आवाज ने उसे हिला दिया कान बंद हो गए । पतली - पतली दो कांच की पत्तियों को खांचों में अटका कर बनी आलमारी ही समझो में सजाये एक दो बर्तन फर्श पर लुढ़क गए । उन्हें सँभालने के बजाय अध् टूटी बालकोनी से नीचे गली की तरफ झाँका तो धुंवा उसकी ओर बढ़ रहा था । न जाने उसे क्यों एसा लगा कि देशी बल्बों की लड़ियों की तरह यह पटाखे भी एक दिन बंद हो जायेंगे । बना देंगे लड़ियों वाले ही सस्ते पटाखे जो पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित होंगे । पालीथीन की थैलियों के बजाय नामी ब्रांडो के पाउचों की पैकिंग की तरह । अभी धुंवा छंटा भी न था कि शी ....... सीटी बजाता एक रोकेट चौथे माले में खड़ी युवती को बाल - बाल बचाता हुआ आसमान में जाकर एक धमाके के साथ फूट पड़ा । उससे निकली रंग - बिरंगी रोशनियों ने कुछ क्षणों के लिए उस घनी बस्ती जगमगा दिया । उसी क्षणिक जगमगाहट में उसकी नज़र गली के उस पार उसी युवती की ओर टिक गयी जो चौथे मंजिल की बालकोनी पर अब भी बेफिक्र खड़ी थी । एक बार उसका मन हुआ कि जाकर पूछे उससे ......? लेकिन नहीं ? आज पहली बार तो देखा वो भी आधुनिक लड़ियों और रोकेट से बिखरी रंग बिरंगी जगमगाहट में । भले ही उसे चेहरा स्पस्ट नज़र न आया हो । लेकिन डील - डौल में बिलकुल उसी की तरह । इस गली में रहते हुए नमन पूरा साल होने को आया लेकिन अभी तक मकान मालिकों के अलावा उसने किसी को ठीक से देखा ही नहीं । सुबह सात बजे घर से नकलने के बाद आठ बजे से पहले कभी लौटना होता । छुट्टी के दिन भी कभी कोई आ जाता है तो कभी कोई अपना - अपना राग अलापने । नमन यह सब सोच ही रहा था कि देखा सामने बालकोनी पर खड़ी युवती का पल्ला पकड़े एक बच्चा कुछ जिद्द सा रहा है । शायद पटाखों की मांग कर रहा हो । गली के शोरगुल के कारण बस मम्मी ...... मम्मी .... सुनाई दिया । और वह उसका सर मलासती - पुचकारती अपने साथ अन्दर ले गयी । छोटी दिवाली होने के कारण बच्चों ने बम फोड़ने बंद कर दिए । कुछ देर इधर - उधर नज़र दौड़ाने के बाद दरवाजा बंद कर नमन कमरे के बीचों - बीच इकलौती फोल्डिंग चारपाई पर निढाल होकर पसर गया । कमरे में सामने वाली बालकोनी की तरह ही लड़ियाँ टिमटिमा रही थी । दिवाली के नए सपने के साथ न जाने कब उसकी आँख लगी पता ही न चला ।
@2012 विजय मधुर
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