गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

एक और प्रथा का बोझ

अंधेर नगरी चौपट राजा
            प्रथाओं का भारी बोझ ढोते उसकी  कमर ही झुक गयी | उसके कई दोस्त तो लाठी के सहारे चल रहे हैं तथा कितनो की तो बेचारी कमर टूट ही  गयी |  जी हाँ मै बात कर रहा हूँ एक नयी प्रथा की जो आजकल कुछ  लोगों को तो खूब फल फूल रही है | दिन दूनी रात चौगुनी कमाई हो रही उनकी | लेकिन इस प्रथा के जो बलि के बकरे है  जरा उनका हाल तो जाने | कल का पता नहीं है उनका | काम करते करते आँखे फूट गयी कमर टूट गयी | झोपडी में दिन  बिता रहे हैं | बीबी लोगों के घरों में झाड़ू पोचा लगा रही है | बच्चे अच्छी शिक्षा के लिए तरस रहे हैं | न तो वह अपने आप को भिखारी समझते ना ही कामगार | अच्छे लोगो के बीच काम जो  करते हैं | इसलिए अपनी लाचारी का बोझ तब तक सीने में लिए घुमते हैं जब तक शरीर में जान होती है | कभी सुना था कु प्रथाओं का जन्म अज्ञानता व अशिक्षा से होता है | परन्तु यंहा तो एसा भी नहीं है | एक नाटक मुझे बड़ा अच्छा लगता है | मैंने खुद उसके दो तीन शो करवाए | नाम है अंधेर नगरी चौपट राजा ....|  नाटकों में आजकल किसको दिलचस्पी | टेलीविजन में सीरियल तरह - तरह के आते हैं | जो मज़ा उनमे है वह नाटको में कहाँ | रंगकर्मी तो बेचारे महीनो भर नाटक की रेहेल्सल करते हैं | लोगो के आगे हाथ पसार - पसार कर मंचन के लायक धन जुटाते हैं | दर्शकों का टोटा सो अलग | टिकेट की बात तो दूर पास देने पर भी नहीं आते | भले ही कुछ बड़े - बड़े शहरों की परिस्थिति भिन्न हो | लेकिन जिस प्रथा की मै बात कर रहा हूँ उसकी शुरुआत ही बड़े - बड़े शहरों के बड़े - बड़े लोगो से ही हुई | कहते हैं ना ऊंचे लोग  की ऊंची बात | तभी तो खूब धड़ल्ले से चल रही बल्कि दौड़ रही है | चलती का नाम गाडी |  लगता नहीं अब इसकी रफ़्तार कभी धीमी होगी | स्कूल , कॉलेज , अस्पताल , होटल ,कूड़ेदान , पार्किंग , फैक्ट्री, दफ्तर लगभग सभी जगह खूब चल रही है यह प्रथा | 
 नाम तो बता दो दोस्तों ....???????
Copyright © 2011 विजय मधुर

3 टिप्‍पणियां:

  1. विजय मधुर जी!
    आपने नाटक के कलाकारों की दयनीय स्थिति के संबंध में बड़ी बेबाक टिप्पणी की है। सभी कलाओं के क्षेत्र के कला -कारों की लगभग यही स्थिति है। यह जमीनी सच्चाई है। इस सच्चाई से मुख नहीं मोड़ा जा सकता है। प्राचीन काल में कलाकारों को राजाश्रय मिल जाता था। अब वैसा नहीं है। आज की अधिकांश सरकारें इस दिशा में उदासीन हैं। फिल्म और टीवी की इस क्षेत्र में पैठ से सब कुछ बदल गया है। कुछ कलाकारों को छोड़ दीजिए। आज के युग में जिस आम कलाकार के पास आजीविका का यदि सटीक साधन नहीं है तो उसका और उसकी कला का आगे बढ़ पाना बहुत कठिन है। इसलिए संर्घष-काल में अपनी कला को जीवित रखने के आर्थिक पक्ष पर प्रबल होना जरूरी है। विशेष बात इस संबंध में कहना चाहता हूँ कि नाट्य-कला व्यक्तित्व को निखारने में अत्यन्त उपयोगी है। इस उद्देश्य को ध्यान में रख कर इसमें रमने वालों को आगे चल कर निराश नहीं होना पड़ता है।
    सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी

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  2. डॉक्टर साहब रंगमंच के प्रति आप के आशावादी द्रष्टिकोण
    एवं आर्थिक पक्ष जो आपने इंगित किया है अवश्य ही
    प्रेरणा दायक है | आपका धन्यबाद...

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आभार