शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

परछाई

          परछाई से  कभी कभी बड़ा डर लगता है  |आगे , पीछे , दांये  कंहा नहीं होती है यह   | जैसा करो उसकी हू ब हू नक़ल | नकलचियों की तो वेसे भी आज कल खूब हो रही है बल्ले बल्ले | दो सौ रूपये की ब्रांडेड चीज पचास रूपये में , ढाई तीन हजार की चार पांच सौ रूपये में | असली नकली का जल्दी से कोई फर्क ही नहीं कर पाता | खाने में मिलावट, पीने में मिलावट, तेल में  घी में सब में मिलावट | नकल में भला कोई किसी से पीछे क्यों रहे वो भी तब जब उसमे खर्चा चव्वनी आमदानी रुपया | संया भई कोतवाल तो डर काहे का |  आज प्रातः  खिड़की की तरफ पीठ करके कुछ लिख रहा था यही परछाई मेरे शब्दों को ढक रही थी जैसे कह रही हो क्या जरूरत है  एसे ऊट पटांग लिखने की | आज की भागम भाग दुनिया में किसे फुरसत है यह सब पढने की | कुछ लोग तो एसे भी हैं जिन्हें अपनी परछाई तक भी नहीं  दिखाई देती | अतीत तक को भी वह बड़ी जल्दी भुला भुला देते हैं अपनी शान सौकत में | भला इंसान चाहे बुरा बन जाय , साधू चाहे हैवान बन जाय | प्रलोभन , पलड़ा -भारी , मौका परस्ती उसकी फितरत में नहीं है | लोग अक्सर दूसरों को कहते हैं खाली हाथ आये थे खाली हाथ जाना है | सभी कुछ यंहा छूट जाना है | साथ कुछ भी नहीं जाना है | तब वह सब करते हैं जो करना नहीं चाहिए | परन्तु यह कटु सत्य है परछाई कभी साथ नहीं छोड़ती |  चाहे सुख  हो या  दुःख , चाहे कोई कितना बदल जाये या नीचे गिर जाय |यह हमेशा  साथ निभाती है | यंहा तक कि  अंत में भी उसी काया के साथ बिलीन हो जाती है | यह आज तक सुनने में नहीं आया कि फलां चला गया और रह गयी उसकी परछाई |
Copyright © 2011 विजय मधुर

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