tag:blogger.com,1999:blog-1952704056818993872.post3000195460697111977..comments2023-07-02T20:34:41.943+05:30Comments on गढ़_चेतना: एक और प्रथा का बोझविजय मधुरhttp://www.blogger.com/profile/18352162092513110671noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-1952704056818993872.post-28152678354974113992011-02-12T20:24:14.390+05:302011-02-12T20:24:14.390+05:30डॉक्टर साहब रंगमंच के प्रति आप के आशावादी द्रष...डॉक्टर साहब रंगमंच के प्रति आप के आशावादी द्रष्टिकोण <br />एवं आर्थिक पक्ष जो आपने इंगित किया है अवश्य ही <br />प्रेरणा दायक है | आपका धन्यबाद...विजय मधुरhttps://www.blogger.com/profile/18352162092513110671noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1952704056818993872.post-23301723149694700152011-02-12T00:40:12.331+05:302011-02-12T00:40:12.331+05:30विजय मधुर जी!
आपने नाटक के कलाकारों की दयनीय स्थित...विजय मधुर जी!<br />आपने नाटक के कलाकारों की दयनीय स्थिति के संबंध में बड़ी बेबाक टिप्पणी की है। सभी कलाओं के क्षेत्र के कला -कारों की लगभग यही स्थिति है। यह जमीनी सच्चाई है। इस सच्चाई से मुख नहीं मोड़ा जा सकता है। प्राचीन काल में कलाकारों को राजाश्रय मिल जाता था। अब वैसा नहीं है। आज की अधिकांश सरकारें इस दिशा में उदासीन हैं। फिल्म और टीवी की इस क्षेत्र में पैठ से सब कुछ बदल गया है। कुछ कलाकारों को छोड़ दीजिए। आज के युग में जिस आम कलाकार के पास आजीविका का यदि सटीक साधन नहीं है तो उसका और उसकी कला का आगे बढ़ पाना बहुत कठिन है। इसलिए संर्घष-काल में अपनी कला को जीवित रखने के आर्थिक पक्ष पर प्रबल होना जरूरी है। विशेष बात इस संबंध में कहना चाहता हूँ कि नाट्य-कला व्यक्तित्व को निखारने में अत्यन्त उपयोगी है। इस उद्देश्य को ध्यान में रख कर इसमें रमने वालों को आगे चल कर निराश नहीं होना पड़ता है। <br />सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवीडॉ० डंडा लखनवीhttps://www.blogger.com/profile/14536866583084833513noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1952704056818993872.post-39226236791833730482011-02-11T22:47:36.691+05:302011-02-11T22:47:36.691+05:30THEKEDAAREETHEKEDAAREEAnonymousnoreply@blogger.com