रविवार, 7 जुलाई 2019

कविता : मेरा अक्स

जीवन दुखों का पहाड़ है
सुख ढूँढना काम है
कब तक चलना पड़े
पथरीले डगर पर
पैरों के छालों का
यहाँ क्या दाम है ?
 
दिखते हैं मकान ऊंचे
बाहर से ...
भीतर से
खिड़की दरवाजे बंद हैं
टकराती है जहरीली हवा
दीवारों से ....
पत्तियों की सरसराहट का  
यहाँ क्या काम है ?

आज कल करते-करते
जिंदगी निकल जाती है
जख्म नासूर् बन जाते हैं
ठेस मात्र से ही
पहुँच जाती है 
वेदना चरम पर ...
भला मरहम
कौन सी बला का नाम है ?

मेरा अक्स ढूड़ोंगे
उन कंदराओं
पगडंडियों में
जहाँ से पंछी भी कर चुके होंगे
पलायन ...
कर पाओंगे 
फर्क वहां
सुबह दोपहर या शाम है ?
@२०१९ विजय मधुर

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