जीवन दुखों का पहाड़ है
सुख ढूँढना काम है
कब तक चलना पड़े
पथरीले डगर पर
पैरों के छालों का
यहाँ क्या दाम है ?
दिखते हैं मकान ऊंचे
बाहर से ...
भीतर से
खिड़की दरवाजे बंद हैं
टकराती है जहरीली हवा
दीवारों से ....
पत्तियों की सरसराहट का
यहाँ क्या काम है ?
आज कल करते-करते
जिंदगी निकल जाती है
ठेस मात्र से ही
पहुँच जाती है
वेदना चरम पर ...
भला मरहम
कौन सी बला का नाम है ?
मेरा अक्स ढूड़ोंगे
पगडंडियों में
जहाँ से पंछी भी कर चुके होंगे
पलायन ...
कर पाओंगे
फर्क वहां
सुबह दोपहर या शाम है ?
@२०१९ विजय मधुर
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