शुक्रवार, 4 नवंबर 2016

कविता : हादसों का शहर

दिलवालों का नहीं 
हादसों का शहर 
बन गया है यह 
बदलते मौसम में 
बीमारियों का घर 
बन गया है यह |

कूड़े के ढेरों पर 
लगे हैं ... 
स्वच्छता के 
इश्तेहार .....
शहर अब यह 
राजनीति का 
अखाड़ा बन गया है |

आन्दोलन चला 
जंहा से 
बेटियों की रक्षा का 
वंही बेटियों को 
शरेआम 
कुचला जा रहा है |

दिलवालों का  नहीं 
हादसों का शहर 
बन गया है यह |

@२०१६ विजय मधुर 























कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आभार