पिछले एक साल से जिस कार्य पर जुटा था १ मार्च २०१४ को उसके सम्पन्न होने पर सुखद अनुभूति का होना स्वाभाविक बात है । अच्छे कार्य को करने में रुकावटें बहुत आती हैं मुसीबतें अंत तक पीछा छुड़ाने का नाम ही नहीं लेती । लेकिन बढ़े बूढ़ों का आशीर्वाद यदि साथ रहे तो कार्य सम्पन्न हो ही जाता है ।
कर्म करना हमारे हाथों में है फल देना उसके हाथ में । १ मार्च २०१३ को अपने पिता स्व. श्री झब्बन लाल 'विद्यावाचस्पति' के जन्म दिवस पर उनके पचास वर्षीय सामाजिक संघर्ष को जब उनकी डायरियों के पन्नों और उनके द्वारा संगृहीत सामाग्री में टटोलना आरम्भ किया तो कई बार मन में यह ख्याल आया कि क्या मैं इस कठिन कार्य को कभी पूर्ण कर भी पाउँगा ? क्योंकि यह तो किसी शोध कार्य से कम नहीं । उस सामाजिक इंसान की जीवन गाथा है जिसने अपने देश, प्रदेश, क्षेत्र और समाज के उत्थान के लिए मात्र ३१ वर्ष की उम्र में सरकारी सेवा अध्यापन कार्य से त्याग पत्र दे दिया । दो बार निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में तत्कालीन समय विधान सभा क्षेत्र एकेश्वर , पौड़ी गढ़वाल से वर्ष १९६७ एवं वर्ष १९६९ के विधान सभा चुनाव में किश्मत आजमाई । जबकि वह इस बात से अनविज्ञ न थे कि चुनाव खाली विचारों और योग्यता के बल पर नहीं जीता सकता । उसके कई मापदंड पहले भी होते थे आज भी होते हैं और शायद हमेशा रहेंगे । चुनाव तो वह जरूर हार गए और सामाजिक परिदृश्य को देखते हुए उन्होंने यह धारणा भी बना ली कि कभी चुनाव नहीं जीत सकते । इसलिए जिन उदेश्यों के खातिर उन्होंने नौकरी छोड़कर जो बलिदान दिया उन्ही उदेश्यों की पूर्ती हेतु अपना जीवन समर्पित कर दिया । चाहे वह भूमिहीनों की भूमि सम्बन्धी मांग हो या उन पर हो रहे अत्याचारों की बात हो, एक सिपाही की भांति जीवन पर्यन्त उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते रहे । पंद्रह वर्ष की आयु में शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े गाँव के खलिहान में स्कूल चलाने और गाँव वालों को स्कूल खोलने की प्रेरणा की जो जोत उन्होंने जलाई थी उस ज्योति को आस - पास के गाँवों में , जनपद में व प्रदेश में फैलाने की मशाल अब उन्होंने अपने हाथों में थाम ली । स्कूल कालेज विश्वविद्यालय की मांग जो साथियों के संग उठाई उन्हें पूर्ण करने में सफल रहे । सड़क बिजली पानी मूलभूत समस्याओं के लिए निरंतर संघर्षशील रहे । १९६७ से १९६९ तक भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के जिलाध्यक्ष , १९७० से १९९६ के दौरान कांग्रेस पार्टी से जुड़े रहने के दौरान उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यकारिणी सदस्य, जिला महामंत्री , जिला उपाध्यक्ष के साथ साथ १९७२ में भूमि व्यवस्था जांच समिति के सदस्य , निदेशक गढ़वाल मंडल विकास निगम आदि पदों पर रहते हुए उन्होंने सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन किया । १४ अगस्त १९९६ को वह अपने जीवन के तमाम विचारित कार्यों को अधूरा छोड़ वह सब के बीच से हमेशा के लिए विदा हो गए । लेकिन सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षिक और साहित्यिक क्षेत्र में उपलब्ध दस्तवेजों को यदि हम देखते हैं तो लगता नहीं है कि वह इस मायारूपी संसार से विदा हुए हैं बल्कि अभी भी अपने उच्च एवं आदर्श विचारों के रूप में हमारे मध्य किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं ।
इन्ही सामाजिक सरोकारों से जुड़े महानायक की जीवनी के रूप में आज पाठकों के बीच उपलब्ध है पुस्तक "प्रसिद्ध समाजसेवी , शिक्षाविद एवं साहित्यकार स्व.झब्बनलाल 'विद्यावाचस्पति' स्मृति ग्रन्थ " सात अध्यायों में विभक्त इस ग्रन्थ के बारे में बुद्धिजीवियों क्या अभिमत हैं
स्मारक साहित्य के दस्तावेजी कोलाज़ से उभरता एक नायक : पुस्तकें बहुत सी लिखी जाती हैं , किन्तु सभी पुस्तकें इतना नहीं बाँध पाती हैं कि अपनी एक - एक पंक्ति को पढ़वा लेने में समर्थ हों । प्रस्तुत पुस्तक की पाण्डुलिपि ने अपनी एक - एक पंक्ति पढ़ने के लिए मुझे आदि से अंत तक बांधे रखा । पठनीयता की कसौटी पर यह पुस्तक खरी उतरती है ।
स्व. झब्बनलाल 'विद्यावाचस्पति' के पुत्र श्री विजय मधुर द्वारा अपने दिवंगत पिता से जुड़े पत्रों, स्मरणों, डायरी के अंशों, अखबारों की कतरनों, लेखों, यात्रावृत्तों को एक साथ संकलित किये जाने के फलस्वरूप एक दस्तावेजी कोलाज़ के रूप में यह पुस्तक हमारे सामने है । इस कोलाज़ से उभरता हुआ सामाजिक संघर्ष का एक नायक हमारे सामने जीवंत रूप में खड़ा होता है और हम उसके जुझारू व्यक्तित्व के बरबस कायल हो उठते हैं ।
इस पुस्तक की पाण्डुलिपि मुझे संयोगवश पढ़ने को मिली । इसे मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ । पाण्डुलिपि को पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि हमारी राजनैतिक पार्टियां अपने स्वार्थ के लिए किसी व्यक्ति का उपयोग कर उसे किस तरह भुला बैठती हैं - इसका एक उदाहरण है श्री झब्बनलाल 'विद्यावाचस्पति' । इसके बावजूद वे अपने सामजिक संघर्षों और सरोकारों के कारण जन जन के हृदय में आज भी जीवित हैं ।
यह पुस्तक सामाज के अंतिम आदमी की पीड़ा को लेकर सवालों से जूझते नायक की कथा है , रेखाचित्र है , संस्मरण है और भी बहुत कुछ है जिसमे एक शिक्षक, समाजसेवी, राजनैतिक कार्यकर्ता व साहित्यकार के विभिन्न रूपों में हमें श्री झब्बनलाल 'विद्यावाचस्पति' के दर्शन होते हैं ।
मुझे विश्वास है पुस्तकाकार प्रकाशित होने के बाद यह पुस्तक स्मारक विधा के एक मह्तवपूर्ण पुस्तक के रूप में गिनी जायेगी ।
इस पाण्डुलिपि को पढ़कर परम संतोष का एक भाव और आशा की एक किरण उभरी है। विजय भाई द्वारा स्व. झब्बनलाल जी के व्यक्तित्व व कृतित्व को जनमानस के समक्ष प्रस्तुत करने का यह प्रयास वस्तुतः स्तुत्य है। मुझे लगता है कि स्व. श्री झब्बनलाल जी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व, कृतित्व, अविराम संघर्ष, शैक्षिक अवदान, राजनैतिक अन्र्तदृष्टि और इन सबसे ऊपर उनके रचना संसार और पीढि़यों को दिये गए उनके संस्कारों का लेखा जोखा करने के लिये ऐसी कई पुस्तकें अपर्याप्त होंगी। इस छोटी सी पाण्डुलिपि में 50 वर्षों का राजनैतिक इतिहास है तो एक शिल्पी के संघर्षों की दास्तान भी। शैक्षिक अन्र्तदृष्टि है तो कर्म व आध्यात्म से लबरेज जीवनदर्शन भी। एक लोक कवि व लोक गायक की स्वर माधुरी है तो एक क्रान्तिकारी योद्धा के हाथों में जलती मशाल भी। किंबहुना। मुझे तो यह भाई विजय द्वारा अपने पुण्य पूर्वज को समर्पित एक श्रृद्धा सुमन सा प्रतीत होता है और ऐसा करके विजय ने अपनी पीढ़ी के लिये अमरत्व का बीज तो बोया ही सम्पूर्ण उत्तराखण्ड के नागरिकों में पितृ प्रसाद भी बांटा है।
प्रिय मित्रो ! मुझे आपके सहयोग की परम आवश्यकता है | कृपया इस स्मृति ग्रन्थ की प्रति डाक से मंगवा कर अवश्य पढ़े और बताये कि मै इस प्रयास में कंहा तक सफल हो पाया |अपने बहुमूल्य सुझाव एवं विस्तृत जानकारी हेतु कृपया अवश्य संपर्क करें |
विजय मधुर
email : garhchetna@gmail.com
Mob : 09968602384
कर्म करना हमारे हाथों में है फल देना उसके हाथ में । १ मार्च २०१३ को अपने पिता स्व. श्री झब्बन लाल 'विद्यावाचस्पति' के जन्म दिवस पर उनके पचास वर्षीय सामाजिक संघर्ष को जब उनकी डायरियों के पन्नों और उनके द्वारा संगृहीत सामाग्री में टटोलना आरम्भ किया तो कई बार मन में यह ख्याल आया कि क्या मैं इस कठिन कार्य को कभी पूर्ण कर भी पाउँगा ? क्योंकि यह तो किसी शोध कार्य से कम नहीं । उस सामाजिक इंसान की जीवन गाथा है जिसने अपने देश, प्रदेश, क्षेत्र और समाज के उत्थान के लिए मात्र ३१ वर्ष की उम्र में सरकारी सेवा अध्यापन कार्य से त्याग पत्र दे दिया । दो बार निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में तत्कालीन समय विधान सभा क्षेत्र एकेश्वर , पौड़ी गढ़वाल से वर्ष १९६७ एवं वर्ष १९६९ के विधान सभा चुनाव में किश्मत आजमाई । जबकि वह इस बात से अनविज्ञ न थे कि चुनाव खाली विचारों और योग्यता के बल पर नहीं जीता सकता । उसके कई मापदंड पहले भी होते थे आज भी होते हैं और शायद हमेशा रहेंगे । चुनाव तो वह जरूर हार गए और सामाजिक परिदृश्य को देखते हुए उन्होंने यह धारणा भी बना ली कि कभी चुनाव नहीं जीत सकते । इसलिए जिन उदेश्यों के खातिर उन्होंने नौकरी छोड़कर जो बलिदान दिया उन्ही उदेश्यों की पूर्ती हेतु अपना जीवन समर्पित कर दिया । चाहे वह भूमिहीनों की भूमि सम्बन्धी मांग हो या उन पर हो रहे अत्याचारों की बात हो, एक सिपाही की भांति जीवन पर्यन्त उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते रहे । पंद्रह वर्ष की आयु में शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े गाँव के खलिहान में स्कूल चलाने और गाँव वालों को स्कूल खोलने की प्रेरणा की जो जोत उन्होंने जलाई थी उस ज्योति को आस - पास के गाँवों में , जनपद में व प्रदेश में फैलाने की मशाल अब उन्होंने अपने हाथों में थाम ली । स्कूल कालेज विश्वविद्यालय की मांग जो साथियों के संग उठाई उन्हें पूर्ण करने में सफल रहे । सड़क बिजली पानी मूलभूत समस्याओं के लिए निरंतर संघर्षशील रहे । १९६७ से १९६९ तक भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के जिलाध्यक्ष , १९७० से १९९६ के दौरान कांग्रेस पार्टी से जुड़े रहने के दौरान उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यकारिणी सदस्य, जिला महामंत्री , जिला उपाध्यक्ष के साथ साथ १९७२ में भूमि व्यवस्था जांच समिति के सदस्य , निदेशक गढ़वाल मंडल विकास निगम आदि पदों पर रहते हुए उन्होंने सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन किया । १४ अगस्त १९९६ को वह अपने जीवन के तमाम विचारित कार्यों को अधूरा छोड़ वह सब के बीच से हमेशा के लिए विदा हो गए । लेकिन सामाजिक, राजनैतिक, शैक्षिक और साहित्यिक क्षेत्र में उपलब्ध दस्तवेजों को यदि हम देखते हैं तो लगता नहीं है कि वह इस मायारूपी संसार से विदा हुए हैं बल्कि अभी भी अपने उच्च एवं आदर्श विचारों के रूप में हमारे मध्य किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं ।
इन्ही सामाजिक सरोकारों से जुड़े महानायक की जीवनी के रूप में आज पाठकों के बीच उपलब्ध है पुस्तक "प्रसिद्ध समाजसेवी , शिक्षाविद एवं साहित्यकार स्व.झब्बनलाल 'विद्यावाचस्पति' स्मृति ग्रन्थ " सात अध्यायों में विभक्त इस ग्रन्थ के बारे में बुद्धिजीवियों क्या अभिमत हैं
स्व. झब्बनलाल 'विद्यावाचस्पति' के पुत्र श्री विजय मधुर द्वारा अपने दिवंगत पिता से जुड़े पत्रों, स्मरणों, डायरी के अंशों, अखबारों की कतरनों, लेखों, यात्रावृत्तों को एक साथ संकलित किये जाने के फलस्वरूप एक दस्तावेजी कोलाज़ के रूप में यह पुस्तक हमारे सामने है । इस कोलाज़ से उभरता हुआ सामाजिक संघर्ष का एक नायक हमारे सामने जीवंत रूप में खड़ा होता है और हम उसके जुझारू व्यक्तित्व के बरबस कायल हो उठते हैं ।
इस पुस्तक की पाण्डुलिपि मुझे संयोगवश पढ़ने को मिली । इसे मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ । पाण्डुलिपि को पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि हमारी राजनैतिक पार्टियां अपने स्वार्थ के लिए किसी व्यक्ति का उपयोग कर उसे किस तरह भुला बैठती हैं - इसका एक उदाहरण है श्री झब्बनलाल 'विद्यावाचस्पति' । इसके बावजूद वे अपने सामजिक संघर्षों और सरोकारों के कारण जन जन के हृदय में आज भी जीवित हैं ।
यह पुस्तक सामाज के अंतिम आदमी की पीड़ा को लेकर सवालों से जूझते नायक की कथा है , रेखाचित्र है , संस्मरण है और भी बहुत कुछ है जिसमे एक शिक्षक, समाजसेवी, राजनैतिक कार्यकर्ता व साहित्यकार के विभिन्न रूपों में हमें श्री झब्बनलाल 'विद्यावाचस्पति' के दर्शन होते हैं ।
मुझे विश्वास है पुस्तकाकार प्रकाशित होने के बाद यह पुस्तक स्मारक विधा के एक मह्तवपूर्ण पुस्तक के रूप में गिनी जायेगी ।
गंभीर सिंह पालनी , कथाकार
अभिमत
जयन्तु ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वरा।
नास्ति तेषां यशःकाये जरामरणजं भयं।।
इस श्लोक की सच्चाई मुझे स्व0 श्री झब्बनलाल ‘विद्यावाचस्पति’ जी जैसे एक सामाजिक संघर्ष के महायोद्धा के व्यक्तित्व व कृतित्व को उनकी ही डायरी के पन्नों, उनके द्वारा किये गये पत्राचार और उनके सम्पर्क में रहे कतिपय भद्रजनों की सम्मतियों के आलोक में उजागर करती इस पाण्डुलिपि के एक-एक पृष्ठ पर लिखी मिली जिसे भाई विजय ने यह कह कर मुझे दिया था कि दीदी मैंने कुछ लिखने की कोशिश की है, पढ़कर बताइयेगा और अपने सुझाव भी लिखियेगा। आद्योपांत पढ़ने के बाद भी मैं वह शब्द श्रृंखला नहीं जोड़ पा रही हूं जो इस संकलन के प्रति मेरा सम्पूर्ण अभिमत अभिव्यक्त कर सके। मैं समझ नहीं पा रही हूं कि समाज की विषमताओं और पीड़ाओं को अपनी लेखनी का विषय बनाने वाले उस कवि, पत्रकार व लेखक को अपने अकिंचन शब्दकोष में कैसे समा लूं जिसका हिन्दी व गढ़वाली दोनों भाषाओं पर अच्छा अधिकार था जो डायरी, रिपोर्ताज, यात्रावृतान्त, पत्र और बहुत ही शक्तिशाली विचारात्मक गद्य लेखन के पुरोधा थे। ‘‘रूपेण सौम्यः मनसा मरालो’’ उस अध्यापक व शिक्षा की अन्र्तदृष्टि रखने वाले गुरु को नमन करने का कौन सा जतन करूं , जिसने गढ़वाल के सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक विद्यालयों की स्थापना कर जन-जन में शिक्षा की अलख जगाई। कैसे अपने प्राणों पर खेलकर शिल्पकारों, दलितों, शोषितों, मजदूरों और भूमिहीनों के विरुद्ध हो रहे अन्याय और शोषण का डट कर मुकाबला करने वाले उस क्रांतिकारी मसीहा के स्वर में स्वर मिला कर उद्घोष करूं कि -
भूख से पीडि़त भूमिहीनों उठो।
आज तुम्हें धरती का निमंत्रण है।।
मैं उस प्रखर व दूरदर्शी राजनीतिज्ञ को आज के राजनीतिक दृश्यपटल पर उकेरना चाहती हूं जो निश्वार्थ व निरभिमानी होकर दूसरों के दर्द को अपना दर्द समझने वाले और दूसरों के लिये जीना मरना जानते थे। मैं उनके समय के उन राजनीतिक दिग्गजों से पूछना चाहती हूं कि 26 वर्षों तक निरन्तर कांग्रेस पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता, पदाधिकारी और गढ़वाल के जन मन में पार्टी के लिये आस्था व विश्वास जगाने वाले इस सच्चे सिपाही को उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के राजनैतिक परिदृश्य में कोई स्थान न देने जैसी कृत्घ्नता उनसे कैसे हुई ?
1994 के आन्दोलन को पृथक उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के रूप में मुकाम तक पंहुचाने की स्व. झब्बनलाल जी की जैसी अन्र्तदृष्टि थी उसे यदि उत्तराखण्ड के जननायकों ने अपनाया होता तो उत्तराखण्ड सचमुच में आज एक सुशिक्षित, समृद्ध, सांस्कृतिक व सामाजिक परम्पराओं और स्वस्थ राजनैतिक पर्यावरण वाला पर्वतीय राज्य होता। उनका विस्मरण हम सबका दुर्भाग्य है।
इस पाण्डुलिपि को पढ़कर परम संतोष का एक भाव और आशा की एक किरण उभरी है। विजय भाई द्वारा स्व. झब्बनलाल जी के व्यक्तित्व व कृतित्व को जनमानस के समक्ष प्रस्तुत करने का यह प्रयास वस्तुतः स्तुत्य है। मुझे लगता है कि स्व. श्री झब्बनलाल जी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व, कृतित्व, अविराम संघर्ष, शैक्षिक अवदान, राजनैतिक अन्र्तदृष्टि और इन सबसे ऊपर उनके रचना संसार और पीढि़यों को दिये गए उनके संस्कारों का लेखा जोखा करने के लिये ऐसी कई पुस्तकें अपर्याप्त होंगी। इस छोटी सी पाण्डुलिपि में 50 वर्षों का राजनैतिक इतिहास है तो एक शिल्पी के संघर्षों की दास्तान भी। शैक्षिक अन्र्तदृष्टि है तो कर्म व आध्यात्म से लबरेज जीवनदर्शन भी। एक लोक कवि व लोक गायक की स्वर माधुरी है तो एक क्रान्तिकारी योद्धा के हाथों में जलती मशाल भी। किंबहुना। मुझे तो यह भाई विजय द्वारा अपने पुण्य पूर्वज को समर्पित एक श्रृद्धा सुमन सा प्रतीत होता है और ऐसा करके विजय ने अपनी पीढ़ी के लिये अमरत्व का बीज तो बोया ही सम्पूर्ण उत्तराखण्ड के नागरिकों में पितृ प्रसाद भी बांटा है।
मुझे विश्वास है कि जब यह संकलन पुस्तकाकार प्रकाशित होगा तो हाथों हाथ लिया जायेगा और स्व. झब्बनलाल जी को जानने वालों की स्मृति-मंजूषा से उनके व्यक्तित्व के कुछ और नये रत्न निकल आयेंगे। हम जैसे बहुसंख्यक पाठक जिन्होंने स्व. श्री झब्बनलाल जी को देखा तो नहीं पर इस पुस्तक के माध्यम से उनसे परिचित होंगे, उनके बारे में अधिकाधिक जानने की जिज्ञासा को रोक नहीं पायेंगे। यह भी संभव है कि कुछ शोधार्थी उन पर शोध के लिए आगे आयें। ऐसे में हमारे राज्य के राजनीतिज्ञों और प्रशासकों का कर्तव्य बनता है कि वे स्व. श्री झब्बनलाल जी पर आने वाली हर पुस्तक के प्रकाशन का दायित्व लें और प्रदेश ही नहीं वरन देश भर के जिज्ञासु पाठकों को इस विराट व्यक्तित्व से परिचित करवाकर उत्तराखण्ड की एक चिरस्मरणीय सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक और राजनीतिक विरासत को नष्ट होने से बचायें। अस्तु।
कमला पन्त
भाषाविद एवं
उप निदेशक (से.नि.)
विद्यालयी शिक्षा, उत्तराखण्ड
रचना : स्व0 झब्बनलाल ‘विद्यावाचस्पति’
बोल : मेरी बैणीं तू बिराणी जा बैणीं सासुर (गढ़वाली)
बोल : मेरी बैणीं तू बिराणी जा बैणीं सासुर (गढ़वाली)
स्वर : श्री संतोष खेतवाल(प्रसिद्ध गायक)
रचना : स्व0 झब्बनलाल ‘विद्यावाचस्पति’
बोल : पंचमी पंचनामा देवा पौंछीगेन धरतीमा (गढ़वाली)
स्वर : श्री चन्द्र दत्त सुयाल(प्रसिद्ध गायक)
विजय मधुर
email : garhchetna@gmail.com
Mob : 09968602384
मधुर जी आपने अपने भागीरथ प्रयत्न द्वारा प्रसिद्ध समाजसेवी, शिक्षाविद एवं साहित्यकार स्व.झब्बन लाल 'विद्यावाचस्पति'जी की स्मृति को चिरस्थायी रखने के हेतु तथा भावी पीढ़ी को एक नई सोच, नई दिशा देने जो दस्तावेज तैयार किया है , यह भागीरथ प्रयत्न ही तो है | राजा भागीरथ भी अपने पूर्वजों के ऋण से मुक्त होने हेतु हई गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाये थे | और पूर्वजों को सच्ची श्रद्धांजली ही यह कृति है | यह रचना है |
जवाब देंहटाएंस्मृति ग्रन्थ लोकार्पण समारोह भव्य एवं गरिमामय था | इसके लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामना | आशा है आपका लेखन कार्य भविष्य में जारी रहेगा क्योंकि यह तो मात्र शुरुआत है | समाज आप से आशा करता है कि भविष्य में आपकी अन्य कृतियां भी प्रकाशित होंगी , पुनः साधुवाद |
चंडीप्रसाद 'व्यथित', पत्रकार , लैंसडौन
प्रिय
जवाब देंहटाएंभाई विजय सादर नमस्ते | परिवार में सबको यथायोग्य नमस्ते | आशा करता हूँ आप सपरिवार कुशल पूर्वक से होंगे | पुस्तक “प्रसिद्ध समाजसेवी, शिक्षाविद एवं साहित्यकार स्व. झब्बन लाल ‘विद्यावाचस्पति’ प्राप्त हुई | पुस्तक को पढ़ा तो मुझे आपकी प्रसंसा हेतु अपने शब्द कोष में शब्द नहीं मिले | आपका महा प्रयास एतिहासिक तो है ही साथ ही अनुकरणीय भी है | पुस्तक मेरे जैसे पाठक के लिए संग्रह करने हेतु है | जिसमे मुझे सामान्य ज्ञान , एतिहासिक विषय जो समय – समय पर मेरा भी मार्ग दर्शन करने में एक मील का पत्थर साबित होगा |
पुस्तक में गीत “नोटू की बहार मा वोट ना बिकै दिन्या, लड्डू दाणी धोती मा अफू ना बिकी जन्या” मुझे अपने बाल्यकाल की यादें याद आ गयी क्योंकि तब हम भी बौंदर, नाई, कांडई, मल्कोट आदि गाँवों तक प्रचार के लिए गए थे | और सभी बच्चे इस गीत को गाकर प्रचार कर रहे थे | पृष्ठ संख्या १४० पर नौगाँवखाल अस्पताल का विषय कि डाक्टर तो यंहा आते नहीं , एक कम्पाउण्डर था जो छुट्टी चला गया और अस्पताल का कार्यभार चौकीदार (उनका नाम सीताराम जी ग्राम नौगाँव था) को दे दिया | जिससे देखने को मिला कि चौकीदार की पद्दोनति डाक्टर के पद पर हो गयी | यह घटना मुझे आज भी याद आती है उस समय यह समाचार काफी चर्चा का विषय था नौगाँवखाल में |
पृष्ठ संख्या १५१ पर एक पिता द्वारा पुत्र को लिखा गया प्रेरणा दायक पत्र जो निश्चय ही दिल को छू गया है | आधुनिक युग की अंधी दौड़ में शायद ही कोई पिता अपने पुत्र को एसा पत्र लिखता हो ?
पुस्तक के अंत में डा. नन्द किशोर ढौंडियाल “अरुण” जी द्वारा स्व. झब्बन लाल ‘विद्यावाचस्पति’ जी के साहित्य पर जो शोधपूर्ण लेख लिखा गया वह निश्चय ही पुस्तक को और अधिक रुचिकर बना देता है | जैसा कि उन्होंने लिखा ‘ इस साहित्य सेवी ने गोलोक में प्रवेश किया तब मातृलोक में रह गया था उनका प्रकाशित तो कुछ अप्रकाशित साहित्य | जिसके अवलोकन से यह ज्ञात हुआ कि श्री झब्बन लाल ‘विद्यावाचस्पति’ साहित्य की अनेक विधाओं के चिन्तक और सृजक थे |
तमाम लोगों के संस्मरणों से काफी कुछ समझने को मिला | उनके जीवन पथ के तमाम संघर्षों व समाज सेवा जिनकी मुझे भी जानकारी नहीं थी क्योंकि मैं भी मई १९६८ को अपनी आठवीं तक की शिक्षा के बाद दिल्ली चला गया | उसके बाद बम्बई तथा १९७८ में लखनऊ “हिंदुस्तान ऐरोनेटिक्स” में | पूज्य चाचा जी स्व. झब्बन लाल “विद्यावाचस्पति” जी लखनऊ आते रहते थे कई बार उनसे मिलना भी हुआ दो बार वह हमारे घर भी आये | स्मरणों में श्री माणिक लाल वर्मा जी जिन्हें समझो मैं भूल ही बैठा था , श्री हीरा सिंह रावत जी पूर्व प्रधानाचार्य के स्मरण पढ़कर अपने छात्र जीवन की काफी खट्टी मीठी यादें ताजा हुई | इसके लिए भाई विजय मैं व्यक्तिगत आपका आभारी हूँ कि आपने एक साहसिक व एतिहासिक कार्य किया है | चाचा जी की आत्मा जंहा कंही भी होगी उनका आशीर्वाद व उनके द्वारा ईश्वरीय शक्ति आपको सदैव मिलती रहेगी ऐसा मेरा विश्वास है | साथ ही आप तो साहित्य जगत से जुड़े हैं भविष्य में भी आपसे आशा करता हूँ आपकी कलम इसी प्रकार चलती रहेगी |
मैं आपके उज्वल भविष्य , स्वस्थ जीवन व दीर्घायु की कामना दयालु प्रभु से सदैव करता रहूंगा | इसी आशा व विश्वास के साथ |
*विनोद कुमार, इन्दिरा नगर, लखनऊ १५-०४-२०१४