रविवार, 25 दिसंबर 2011

सबकी अपनी मर्जी

         बदलाव सृष्टि का एक नियम है ! मनुष्य ही नहीं प्रकृति एवं समस्त प्राणियों में भी यह देखने को मिलती है !  कई बार ऊंचे ऊंचे पहाड़ों में खुदाई के दौरान रेत-बजरी मिलना यह दर्शाता है कि वंहा कभी कोई बड़ी नदी रही होगी या कभी - कभी किसी नदी में खंडहर के अवशेष मिलना इस बात के प्रमाण हैं कि वंहा कभी बस्ती रही होगी ! दिन प्रति दिन बदलती जलवायु एवं बैज्ञानिक प्रयोगों से पेड़ पौधो की बनावट ... फल ... फूल .... का आकार और उनके स्वाद में भी परिवर्तन होता  आया है ! आज आधुनिकता का  सर्वाधिक प्रभावित  पक्ष है मनुष्य की सभ्यता एवं संस्कृति  !  पीढ़ी  दर पीढ़ी बिचारों की भिन्नता ! जिसे आधुनिक पीढ़ी नाम देती है जनरेशन गेप का !  बुजुर्ग लोग जब कभी भी अपने जीवन रूपी ग्रन्थ के ध्र्रोहर रूपी पन्ने नव पीढ़ी के सम्मुख उलटने की कोशिश करते हैं ! कैसे  आज उन्होंने यह  मुकाम पाया ..... किन परिस्थितियों जीवन यापन किया .... परिवार कैसा होता था ..... ग्रामीण परिवेश कैसा था  ....परस्पर स्नेह भाव .... छोटे - बढे का आदर सम्मान .... रिश्तों की पहचान.... आदि ! लेकिन  काले चश्मे और मोबाइल  के एयर फ़ोन की वजह से उन्हें उस बक्त कुछ भी  न  दिखाई देता है... न सुनाई ! उन्हें दिखाई देती है सिर्फ  अपनी मंजिल  ! सुनाई देती है मंदिर की नहीं मंजिल की घंटी ! अच्छी बात है ! लेकिन सिक्के के हमेशा दो पहलू होते हैं ! एक पक्ष के साथ - साथ दूसरे पक्ष  के बारे में सोचना भी उतना ही आवश्यक है जितना मंजिल के लिए लक्ष्य निर्धारण ! बाकी बातों को निरर्थक  समझना समझदारी नहीं  ! समय का पहिया कभी स्थिर नहीं रहता ! घूमता रहता है ! जो कुछ आज है जरूरी नहीं कि वह कल भी होगा ! जो आज मिल रहा है आवश्यक नहीं वह कल भी मिलेगा ! चाहे वह मान - सम्मान हो या बुजुर्गों द्वारा आशीर्वाद स्वरूप दिया हुआ ज्ञान  ! कहते हैं ना बुजुर्ग के बोल एवं आंवले का स्वाद बाद में आता है ! एक दिन नए को पुराने की जगह लेनी  ही पढ़ती  है और तब सिवा हाथ मलने के कुछ भी हाथ नहीं लगता ! सारे रिश्ते नाते  दादा - दादी .... नाना - नानी ....चाचा - चाची ..... ताऊ - ताई ......मामा - मामी .... फूफा - फूफी .... बूबा - बूबी .... मौसा - मौसी .....जिठब्वे - जिठबबा .....समदी -समदन....जेठू .... भदया.आदि सब गुम हो जाते है  ! रिश्तों की ताशिर क्या होती है उसका उसे कुछ भी पता नहीं होता और तब याद करता है वह  उन पन्नो को जिनको उसने अपने सामने दफन होते देखा है !  आज तो रिश्ते कुछ चंद शब्दों तक ही सिमट गए हैं -माम - पा.... आंटी - अंकल .... ब्रदर - दी  ! रिश्ते बनाना तोड़ना एक सभ्यता सी बन गयी है ! जो ब्यक्ति अपनी सभ्यता और संस्कृति को समेटे बैठे हैं उन्हें नाम दिया जाता है रूढ़िवादी  या कुछ और ... ! अभी कुछ  दिन पहले की ही बात है  नित आधुनिकता का  लबादे ओढने में ब्यस्त   इसी शहर की अलग - अलग घटनाओं ने जनमानस को हिला कर रख दिया तथा सोचने को बिबस कर दिया कि आज के बदलते मूल्यों में बृध जनों एवं अहम् के लिए नित टूटते रिश्तों का यही शिलशिला चलता रहा तो आगे न जाने क्या होगा ! सचमुच चिंता का बिषय है ! उन्हें तो  कोई  परवाह नहीं जिनको करनी चाहिए  !  आखिर समाज और  सरकार की भी कोई  नैतिक जिम्मेदारी बनती है इस बिषय पर विचार करने की  ! हमारा देश उन विकशित देशो में भी शामिल  तो है नहीं जंहा सीनियर सिटीजंस  के लिए एक सुद्रढ़ नीति है  ! बात है असुरक्षा की ! देश के एक छोटे से शहर में पिछले छह माह लगभग कई  घटनाएँ जन्हा  एक ओर यह दर्शाती  है कि  हमारे   बृध जन असुरक्षित तो हैं ही वंही आसपास का समाज व तंत्र भी उनके प्रति उदासीन  है ! कुछ घटनों का जिक्र है ! एक  सेवानिवृत प्रोफ़ेसर बृध के शव की  जानकारी दूसरे तीसरे दिन नौकरानी से मिली ! दूसरी घटना शहर के भीड़ - भाड़ इलाके में एक बृध महिला के घर  लूट पाट कर उसकी निर्मम हत्या की गयी ! उसकी खबर भी दुसरे दिन सुबह काम वाली से मिली ! तीसरी घटना शहर से कुछ दूर पहाडी पर बसे एक छोटे से गाँव की है जंहा हिंदी , संस्कृत , अंग्रेजी व गढ़वाली भाषा के दक्ष ,१९७२ में दिल्ली विश्वविध्यालय से डाक्टर की उपाधि प्राप्त ,  ४० से अधिक पुस्तकों के लेखक , साहित्यकार डा . उमाशंकर सतीश का देहांत  एकांतवास में हुआ    ! सभी के अपने परिवार थे ! लेकिन आखिरी बक्त में उन्हें दो बूँद गंगा जल देने वाला भी कोई न था  ! बाद में सभी  अपने आ गए  ! आंसू बहाने .....एक - एक चीज़ की छान - बीन करने ! लगता है इन हालातों की जिम्मेदार है सबकी अपनी मर्जी ! जब  सभी अपनी मर्जी के मालिक हो गए तो परिवार नाम का अर्थ आखिर कंहा रह गया ! दिन प्रतिदिन त्याग - बलिदान की भावना ऐसे बिलुप्त होती जा रही है जेसे गधे के सर से सींग ! परिवार के बलिदानी अपनी जर्र - जर्र काया व धंसती आँखों से इन्तजार कर रही हैं जीर्ण - क्षीण मकान के नाम पर खडी चारदीवारी के ढहने का या शिकार बन रही हैं उन लालची आदमखोर मानव रुपी दानवों का जिनके के लिए मानवीय मूल्यों का  कोई अर्थ नहीं  !
कॉपी राईट @ २०११ विजय मधुर


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आभार