गढ़_चेतना
......छोटा सा प्रयास ...प्रोत्साहन आपका ...
शुक्रवार, 22 मई 2020
रविवार, 10 मई 2020
कोरोना काल
१ मई १८८६ को मजदूर दिवस का आरम्भ अमेरिका से कार्य करने के आठ घंटे निर्धारित करने को लेकर हुआ था | इस आन्दोलन में कुछ मजदूरों ने जानें गंवाई और बलिदान स्वरूप अमेरिका में मजदूरों के कार्य करने के आठ घंटे निर्धारित किये गए | भारत में इसकी शुरुआत १ मई १८२३ में चेन्नई से आरम्भ हुई | तब से हर वर्ष संपूर्ण विश्व के साथ पूरे भारत में मजदूर दिवस मनाया जाता है |
इस बार मजदूरों के साथ-साथ मजदूर दिवस कोरोना वायरस की भेंट चढ़ गया | असंगठित क्षेत्र के मजदूर कोरोना की गिरफ्त में ऐसे फंस गए हैं जैसे किसी अजगर की चपेट में उसका शिकार | मजदूर वह धुरी है जिस पर देश का जनजीवन और अर्थव्वस्था सुचारू रूप से चलती है | धुरी चरमरा गयी कमजोर पड़ गयी है | फिर से अपने स्थान पर आने कार्य करने में समय कितना लगेगा प्रश्न समय के गर्त में है |
मजदूर
जिनके बूते
महामारी के
इस दौर में
घरों में अपने
सुरक्षित हैं
आप हम
वह बेचारे
भूखे प्यासे
भटक रहे हैं
दर ब दर
तोड़ रहे हैं
राह में दम |
१ मई 2020
मनुष्य जाति अपने से ज्यादा दिमागदार किसी को नहीं समझती | देखने में कोआ एक पक्षी है | खिड़की से देख रहा हूँ कि उनके घोसले में अभी कोई हलचल नहीं | कौवी बीच - बीच में उड़ कर जाती है तो कोआ घोसले की चोकिदारी करता है | कौवी के वापस लौटने पर ही कहीं जाता है | जनबरी माह से उनके घोसला बनाने की प्रक्रिया को देख रहा हूँ | इससे पहले स्थान चुनने में भी उन्हें समय लगा होगा | योजनावद्ध कार्य शैली क्या होती है इन पक्षियों से सीखने की जरुरत है | भले ही पक्षियों की जमात में इनका स्थान खास नहीं | फिर भी पितृ पूजा के दिन उन्हें भोग लगाने के लिए बेसबरी से ढूँढा जाता है |
आज अन्तर्राष्ट्रीय मातृ दिवस है | एक मां की साधना का प्रत्यक्ष उदाहरण है नारियल के पेड़ पर कोवी का घोसला | आये दिन तेज़ आंधी और बौछारे चलती है लेकिन वह अपने कर्तब्य से तनिक भी बिमुख नहीं होती | डटी रहती है अपना घोसला बचाने में | कल उसमें अंडे देगी .... उन अण्डों से छोटे-छोटे बच्चे निकलेगें .... अपनी चोंच पर उनके लिए चुनिन्दा दाना लायेगी ... उन्हें पाल पोस कर बढ़ा करेगी .... और जैसे ही उन बच्चों के पर निकल जायेगें ....... उड़ कर कहीं दूर चले जायेगें ..... बचे रह जायेगें डाल पर कोआ और कौवी | यही सृष्टि का नियम भी है |
आत्मविश्वास
दूर ही सही
हर पल मेरे
रहती हो पास
हार जाता हूँ
जब जग से
देती असीस
बंधती आस |
@2020 विजय मधुर
शनिवार, 25 अप्रैल 2020
कोरोना से डोरोना
२८ जनबरी के अपने लेख 'किसे कहूं मन की बात' में मैंने कोरोना की बढ़ती आशंका के प्रति अपनी चिंता व्यक्त की थी | जनबरी के पश्चात फरवरी आयी मार्च आया और अब अप्रैल माह | जल्दी ही मई का महीना आरम्भ हो जायेगा | मार्च अंतिम सप्ताह में विश्व के साथ-साथ भारत को भी कोरोना महामारी ने अपनी गिरफ्त में ले लिया | अचानक लॉकडाउन की घोषणा की गयी | जो जिस हाल में जहां था वहीं रुकने पर विवस हो गया | प्रतिस्पर्धा के दौर में खुद को ताकतवर साबित करने वाले दिग्गज बचाव की स्थिति में आ गए | विश्व अर्थव्यवस्था और विलासिता पूर्ण जीवन चार दीवारी में सिमट गया | असहाय, मजबूर, मजदूर सभी भिखारियों की पंगत में खड़े हो गए | अस्पताल-अस्पताल कर्मी, स्वास्थ्य-स्वास्थ्य कर्मी, सुरक्षा-सुरक्षा कर्मी और आवश्यक सेवा प्रदान करने वाले कर्मियों ने कमर कस ली छुआ-छूत की इस बीमारी से लड़ने के लिए | लॉकडाउन हुए आज महीना बीत चुका है | जिस तरह रोजगार बिहीन लोग किस हाल में है अंदाजा लगाना नामुकिन है उसी तरह महामारी से प्रभावित आंकड़ें उन अलग-अलग न्यूज़ चैनलों के विचारों की तरह हैं जो पल-पल बदलते रहते हैं | अभी फिलहाल ३ मई तक देश में लॉकडाउन है | राहत सामग्री, उपचार, मास्क, साफ-सफाई, सामाजिक दूरी बनाये रखने लिए जनता और प्रशासन मुस्तैद है | नियमों के पालन, खुद के बचाव और सावधानी में ही भला है | प्रायः पहाड़ों में सरपट दौड़ती गाड़ियों के लिए हर मोड़ पर निर्देश देखने में आते हैं - जैसे गाड़ी धीरे चलायें, आगे तीव्र मोड़ है, दुर्घटना प्रभावित क्षेत्र, सावधानी हटी-दुर्घटना घटी | इन निर्देशों पालन आज हर क्षेत्र में अनिवार्य हो गया है | इसी में जनता और देश की सुरक्षा निहित है |
- कोरोना से डरो ना
- छींटाकसी करो ना
- दिनों-दिन बदलता
- है रंग आसमान
- जहां मिले ठिकाना
- कुछ दिन कैसे भी
- वहीँ ठहरो ना |
चार-पांच दिनों से रोज बारिश और तेज हवाएं चल रही हैं | कौवा-कौवी अपने कर्म क्षेत्र में अडिग हैं | कोयल अपने मधुर कंठ की सुरीली आवाज से कानों में मिस्री घोलती, नयी आस जगा रही है | मेरे मन की बात आखिर किसी ने तो सुनी | व्यथित न हो सब ठीक हो जाएगा |
मंगलवार, 28 जनवरी 2020
किसे कहूं मन की बात
पिछले कुछ दिनों से मन बहुत परेशान है | किसके आगे अपना दुखड़ा रोऊँ | सारे लोग तो मेरी ही तरह बाहर से खुश नज़र आते हैं | भीतर की व्यथा कोई किसी की नहीं जानता | लगता है इस सृष्टि में जो जन्मा है उसे संघर्षों से जूझना ही पड़ता है | कुछ दिन पहले ही अपने कमरे की खिड़की से बाहर देख रहा था | तीव्र गति से हवाएं खिड़की के शीशे से टकरा रही थी | उतर दिशा वाली खिड़की से कुछ दूर नारियल और सुपारी के पेड़ आपस में टकरा रहे थे | जैसे ही लगता पतले तने वाला कमजोर सा सुपारी का पेड़ अब गिरा तब गिरा तभी नारियल का पेड़ सहारा बन जाता | कितनी ही बार एसा भी हुआ कि हवा ने अपना रुख बदल लिया | लेकिन ऐसी दशा में भी नारियल का पेड़ सारा दबाव अपने ऊपर ले लेता | बिजातीय होने के बाबजूद आज दोनों पेड़ खुश हैं और दोनों में उत्पति अंकुर फूटने लगे हैं |
जब से वहां आया हूँ सुख-दुःख के साथी यही पेड़ तो हैं जो तीसरी मंजिल के फ्लैट के कमरे से दोनों खिडकियों से चंद दूरी पर हैं | कई बार तो लगता है जैसे वह सुबह-शाम मानो इस प्रतीक्षा में खड़े रहते हैं कि कब खिड़कियाँ खुले और हम कमरे में बंद अपने दोस्त का दीदार करें | खिड़की खुलते ही उनमें हलचल शुरू हो जाती है एक ओर नारियल के पेड़ की नुकीली पतियाँ हल्की-हल्की लहराने लगती हैं वहीँ गर्मियों के दिनों हाथ से झलने वाले पंखे के आकृति वाली सुपारी के पेड़ कि पत्तियां मानो मेरे परेशान चेहरे पर पंखा झल रही हों और कह रही हों मत परेशान हो मित्र ! अमावस की काली रात चाहे कितनी डरावनी क्यों न हो सुबह सूरज की स्वर्णिम किरणों के दर्शन मात्र से ही सब कुछ सुहावना लगने लगता है |
इन दो पेड़ों के अतिरिक्त एक तीसरी प्रजाति का पेड़ है जो पूर्व दिशा में खुलने वाली खिड़की से कुछ दूर नारियल के पेड़ों से कुछ हट कर है | उसका स्वभाव दोनों से भिन्न है | मोर की टांगों की तरह जमीन में टिके दो तने और पत्तियों में चमक | दूर से देखने पर दोनों अलग-अलग लगते हैं लेकिन हैं एक ही | लगता है वो अलग-थलग पड़ गया है | भले ही नजदीक से नहीं | कास वो अपने मन की बात कह पाता | पिछले कई महीनों से बारी-बारी दोनों खिडकियों से इन पेड़ों को देखता आ रहा हूँ | सुपारी के बालियों की तरह फूल और पीले छोटे - छोटे गुच्छे में फल देखे, नारियल के पेड़ पर फूल फल देखे | फूलों से कीट-पतंगों को दूर भगाते उसके बड़े पत्तों को देखा | उनका सुकून और संघर्ष देखा | गिलहरियों को दोनों पेड़ों पर सरपट दौड़ते चहल कदमी करते देखा | कागों को काँव-काँव करते देखा | लेकिन काले-सफेद तनों वाले तीसरे पेड़ पर इन दोंनो की तरह कुछ भी नहीं देखा | लगता है कुछ तो गूढ़ रहस्य छुपा है इसमें | वरना घनी आवादी के मध्य इतने ऊँचे भला उसे कौन उठने देता |
बसंत ने अपनी दस्तक दे दी | जिस पेड़ को नारियल सुपारी से अलग देख रहा था उसकी घनी चमकदार पतियों के बीच छुपकर कोयल कूह ... कूह ... के मधुर स्वर में जगाने लगी है | लेकिन जैसे ही खिडकियां खोलता हूँ वह न जाने कहां गायब हो जाती है | नहीं चाहती कि मैं करीब से उसे कूह ... कूह... करते देखूं | कई बार दो कोयलों को बात करते भी मैं सुनता हूँ | दोनों के दरमियान फासला होता है लगभग एक मील का | एक दूर पेड़ से कुछ बोलती है तो दूसरी पास वाले पेड़ से कुछ और | कास उनकी भाषा या दूरी का रहस्य समझ पाता |
बसंत का खुशगवार मौसम | हल्की ठंडक | गुनगुनी धूप | त्योहारों की दरवाजे पर दस्तक | प्रेमी जोड़ों की सड़कों या पुल के दोनों तरफ लगे मोटे-मोटे पाइपों के सहारे गुफ्तगू |
देश की राजधानी दिल्ली की तरह यहाँ चौड़ी छाती वाले नहीं है | ना ही बड़े-बड़े बाग़ और उसमें जमा लोग | जिसका जो मन करे वह करे या बोले | कल यहां पतझड़ था आज वहां और अभी न जाने कहां-कहां बेमौसम पतझड़ आ जाए | तेज़ आंधी आ जाये | नन्हे-नन्हे फूल, कोंपलें मय पेड़ अपनी जड़ों से कभी भी बिलग हो सकते हैं | जब पेड़ पौधे ही नहीं होंगें | शुद्ध हवा-पानी नहीं होगा | बदलते मौसम में प्रदूषण और कोरोना वायरस का प्रकोप बढ़ने के अंदेशे से मन व्यथित है | किसे कहूं मन की बात |
@2020 विजय मधुर
इन दो पेड़ों के अतिरिक्त एक तीसरी प्रजाति का पेड़ है जो पूर्व दिशा में खुलने वाली खिड़की से कुछ दूर नारियल के पेड़ों से कुछ हट कर है | उसका स्वभाव दोनों से भिन्न है | मोर की टांगों की तरह जमीन में टिके दो तने और पत्तियों में चमक | दूर से देखने पर दोनों अलग-अलग लगते हैं लेकिन हैं एक ही | लगता है वो अलग-थलग पड़ गया है | भले ही नजदीक से नहीं | कास वो अपने मन की बात कह पाता | पिछले कई महीनों से बारी-बारी दोनों खिडकियों से इन पेड़ों को देखता आ रहा हूँ | सुपारी के बालियों की तरह फूल और पीले छोटे - छोटे गुच्छे में फल देखे, नारियल के पेड़ पर फूल फल देखे | फूलों से कीट-पतंगों को दूर भगाते उसके बड़े पत्तों को देखा | उनका सुकून और संघर्ष देखा | गिलहरियों को दोनों पेड़ों पर सरपट दौड़ते चहल कदमी करते देखा | कागों को काँव-काँव करते देखा | लेकिन काले-सफेद तनों वाले तीसरे पेड़ पर इन दोंनो की तरह कुछ भी नहीं देखा | लगता है कुछ तो गूढ़ रहस्य छुपा है इसमें | वरना घनी आवादी के मध्य इतने ऊँचे भला उसे कौन उठने देता |
बसंत ने अपनी दस्तक दे दी | जिस पेड़ को नारियल सुपारी से अलग देख रहा था उसकी घनी चमकदार पतियों के बीच छुपकर कोयल कूह ... कूह ... के मधुर स्वर में जगाने लगी है | लेकिन जैसे ही खिडकियां खोलता हूँ वह न जाने कहां गायब हो जाती है | नहीं चाहती कि मैं करीब से उसे कूह ... कूह... करते देखूं | कई बार दो कोयलों को बात करते भी मैं सुनता हूँ | दोनों के दरमियान फासला होता है लगभग एक मील का | एक दूर पेड़ से कुछ बोलती है तो दूसरी पास वाले पेड़ से कुछ और | कास उनकी भाषा या दूरी का रहस्य समझ पाता |
बसंत का खुशगवार मौसम | हल्की ठंडक | गुनगुनी धूप | त्योहारों की दरवाजे पर दस्तक | प्रेमी जोड़ों की सड़कों या पुल के दोनों तरफ लगे मोटे-मोटे पाइपों के सहारे गुफ्तगू |
देश की राजधानी दिल्ली की तरह यहाँ चौड़ी छाती वाले नहीं है | ना ही बड़े-बड़े बाग़ और उसमें जमा लोग | जिसका जो मन करे वह करे या बोले | कल यहां पतझड़ था आज वहां और अभी न जाने कहां-कहां बेमौसम पतझड़ आ जाए | तेज़ आंधी आ जाये | नन्हे-नन्हे फूल, कोंपलें मय पेड़ अपनी जड़ों से कभी भी बिलग हो सकते हैं | जब पेड़ पौधे ही नहीं होंगें | शुद्ध हवा-पानी नहीं होगा | बदलते मौसम में प्रदूषण और कोरोना वायरस का प्रकोप बढ़ने के अंदेशे से मन व्यथित है | किसे कहूं मन की बात |
@2020 विजय मधुर
शनिवार, 19 अक्तूबर 2019
कविता: प्यारा शहर
स्वच्छ होगा चमन तो
खिलेंगे फूल बहारों में
इठलायेंगी तितलियां
आँगन बाग़ बगीचों में
घटाएं बिखेरेंगी खुशबू
वातावरण कर देगा
स्वतः ही धराशायी
बीमारी फ़ैलाने वाले
तमाम जंतुओं को
चाहे हों थलचर
जलचर या नभचर
ऐसे में भला
कैसे न रहेगा
मस्त एवं स्वस्थ
हमारा अजीज़
प्यारा शहर।
@10/2019 विजय मधुर
खिलेंगे फूल बहारों में
इठलायेंगी तितलियां
आँगन बाग़ बगीचों में
घटाएं बिखेरेंगी खुशबू
वातावरण कर देगा
स्वतः ही धराशायी
बीमारी फ़ैलाने वाले
तमाम जंतुओं को
चाहे हों थलचर
जलचर या नभचर
ऐसे में भला
कैसे न रहेगा
मस्त एवं स्वस्थ
हमारा अजीज़
प्यारा शहर।
@10/2019 विजय मधुर
मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019
शनिवार, 28 सितंबर 2019
शुभ महालया
आज का दिन बंगाल और आसाम क्षेत्रों में महालय के नाम से मनाया जाता है | महा-महान, आलय-घर | मान्यता है
कि आज दिवस माँ दुर्गा का अपने मायके में आगमन होता है | नौ दिन कैलाश से आकर माँ मानव लोक रहती हैं और
दसवें दिन पुनः लौटती है जिसे नव-रात्रों के बाद विजय दसमी कहा जाता है | माँ
दुर्गा को नौ दिन देवी के बिभिन्न स्वरूपों में पूजा जाता है | कहते हैं जब महिषासुर ने
अपने आसुरी शक्तियों से देवों का जीना दूभर कर दिया था तो माँ को दुर्गा को अवतरण लेना
पड़ा और देवों को असुरों के राज से भय
मुक्त करना पड़ा |
जय
जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यक्पर्दिनी शैलसुते
यह भी मान्यता है कि देव और असुरों के बीच लम्बे
समय युद्ध चलने के कारण कई देवों और
असुरों को जान गवानी पड़ी | उनकी मुक्ति के लिए इस दिन तर्पण भी किया जाता है | कहते
हैं कि इस समय फसल भी पकनी आरम्भ हो जाती है और मान्यतानुसार फसल के प्रथम पकवान पितृ देवों को अर्पित किये
जाते हैं | शिल्पकार वर्ग जो लम्बे समय
से माँ की प्रतिमा को पूर्ण आकर देने अभ्यस्त रहते हैं आज
के दिन वह माँ की आँखों को अपने हुनर के रंगों से मानों साकार रूप देते हैं और माँ
की प्रतिमा को पूर्ण रूप से स्थापित करने में दैवीय योगदान देते हैं |
इस प्रकार आज के दिन पितृ पक्ष का समापन और देवी के आगमन से
उत्सवों का आरम्भ नवरात्रों से लेकर दीपावली तक चलता है |
भारत वर्ष को यूं ही बिभितताओं का देश नहीं कहा जाता |
प्रत्येक क्षेत्र की अपनी एक बोली-भाषा और संस्कृति है | जो कि भारत माँ के आभूषणों
का कार्य करती है | माँ के सजे संवरे रूप को देख बच्चों का प्रफुल्लित होना
स्वाभाविक है | बच्चों के खुश रहने से माँ की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं होता |
@ ९/२०१९ विजय मधुर
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