इन्ही दुकानों में से एक दूकान का योगदान नगर के अधिकाँश बुद्धिजीवी वर्ग के लिए महत्वपूर्ण रहा है !
शहर में होने वाली समस्त साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिबिधियों का अस्सी और नब्बे के दशक में मुख्य केंद्र हुआ करता था ! शहर के ज्यादातर पत्रकार , रंगकर्मी , शाहित्य्कर्मी , राजनीतिग्य दिन में एक बार वंहा हाजिरी दिए बिना नहीं रह पाते थे ! यूं कहा जाय की नगर की प्रमुख गतिबिधियों का सूत्र पात एक समय वंही से होता था तो उसमे अति श्योक्ति नहीं ! एक - दो चाय में ही कई सज्जन तो पूरा ही दिन निकाल कर एक दो रचनाएँ भी लिख देते थे ! पांच लोग इकट्ठे होते तो चाय बनती थी तीन बट्टे पांच अर्थात तीन चाय पांच कप में ! उसी छोटे सी चाय की दूकान में बढे - बढे नाटकों की परिकल्पना की गयी ! नाटक में कौन अभिनय करेगा , कितने कलाकारों की जरूरत हैं .... कितने हो जायेंगे ..... कितने कम पड़ रहे हैं .... ... मेक अप ...... लाइट ........साउंड ....रिहल्शल ....... ..नाटक मंचन के लिये धन जुटाना आदि सभी चर्चाएँ वंही बैठ कर की जाती थी ! यूं समझो सिवाय प्रस्तुति के सम्पूर्ण तैयारी उसी जगह तय की जाती थी ! नाटक के मंचन के पश्चात प्रेस बिज्ञप्ति से लेकर नाटक की समीक्षा तक वंही होती थी ! वो भी कुछ ही चाय की प्यालियों में ! नाटक ही नहीं बिभिन्न पत्र- पत्रिकाओं का रजिस्ट्रेशन से लेकर संचालन तक की रूप रेखा वंही निर्धारित होती थी ! एक दुसरे को आमंत्रण के लिए वंहा बकायदा नोटिस बोर्ड हुआ करता था ! आज नगर के प्रमुख प्रेक्षा गृह में कौन सा नाटक हो रहा है ..... कन्हा कवि सम्मलेन हो रहा है .....नगर में कन्हा क्या राजनीति चल रही .... सम्बन्धित सारी सूचनाएं वंहा जाते ही उपलब्ध हो जाती थी !
दूकान के मालिक प्रदीप जी यह सब जानते हुए भी की उस मार्केट में उनकी आर्थिक कुछ ख़ास अच्छी नहीं ! फिर भी अपनी साहित्यिक सोच की वजह से उन्होंने कभी किसी को नाराज नहीं किया ! आम तौर पर प्रायः बुद्धिजीवियों की आर्थिक स्तिथि ख़ास अच्छी नहीं होती ! अच्छी होती भी है तो सिर्फ उन्ही बुद्धिजीवियों की जो अच्छी नौकरी या अपने किसी ब्यवस्थित ब्यवसाय के साथ - साथ साहित्यिक अभिरुचि रखते थे ! जिन्होंने सिर्फ पत्रकारिता .... रंगमंच ....लेखन ....या किसी ख़ास बिचार धारा को ही मात्र अपना धेय्य बना लिया उनकी स्तिथि कुछ ख़ास अच्छी नहीं होती थी ! वे अच्छा लिखते थे लेकिन उनकी कृतियों के एवज में उन्हें वाह - वाह से ही संतुष्टि करनी पढ़ती थी और वाह से कभी पेट नहीं भरता ! इसलिए उस रेस्टोरंट में चाय का उधार खाता कम न था ! जिस दिन उधार खाते वालों को लगता कि आज प्रदीप जी का मिजाज कुछ ठीक नहीं जरूर पैसे मांगेंगे तो आते ही ...
दूकान के मालिक प्रदीप जी यह सब जानते हुए भी की उस मार्केट में उनकी आर्थिक कुछ ख़ास अच्छी नहीं ! फिर भी अपनी साहित्यिक सोच की वजह से उन्होंने कभी किसी को नाराज नहीं किया ! आम तौर पर प्रायः बुद्धिजीवियों की आर्थिक स्तिथि ख़ास अच्छी नहीं होती ! अच्छी होती भी है तो सिर्फ उन्ही बुद्धिजीवियों की जो अच्छी नौकरी या अपने किसी ब्यवस्थित ब्यवसाय के साथ - साथ साहित्यिक अभिरुचि रखते थे ! जिन्होंने सिर्फ पत्रकारिता .... रंगमंच ....लेखन ....या किसी ख़ास बिचार धारा को ही मात्र अपना धेय्य बना लिया उनकी स्तिथि कुछ ख़ास अच्छी नहीं होती थी ! वे अच्छा लिखते थे लेकिन उनकी कृतियों के एवज में उन्हें वाह - वाह से ही संतुष्टि करनी पढ़ती थी और वाह से कभी पेट नहीं भरता ! इसलिए उस रेस्टोरंट में चाय का उधार खाता कम न था ! जिस दिन उधार खाते वालों को लगता कि आज प्रदीप जी का मिजाज कुछ ठीक नहीं जरूर पैसे मांगेंगे तो आते ही ...
-प्रदीप जी नमस्कार ....
- नमस्कार (बेरुखी के साथ )
- प्रदीप जी आज तुमने भला कौन सी कविता लिखी
प्रदीप जी खुश होकर एक छोटे से कागज़ पर लिखी अपनी कविता सुनाने लगते !
-क्या बात है प्रदीप जी ......आपकी कविता ने तो जीवन की हकीकत को ही बंया कर दिया ....
-चाय तो पियोगे
-आपके ... पहले ही .....
- कोई बात नहीं
और फिर दो बट्टे चार चाय का आर्डर हो जाता !
शहर के बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोगों के अलावा उस दूकान में उन दिनों अन्य बहुत ही कम लोग आते थे जिसकी मुख्य वजह थी सुबह नौ बजे से शाम नौ बजे के दौरान कभी एसा समय नहीं होता था जब दो चार एक बट्टे दो .... दो बट्टे चार .....या तीन बट्टे पांच वाले ग्राहक वंहा मौजूद नहीं होते !
उत्तरांचल अलग राज्य बनने के बाद इस शहर का तेज़ी से ब्य्व्सायी करण हुआ है ! ब्य्व्सायी करण की इसी राह में आदर्शों का बाजारीकरण भी कम नहीं हुआ ! एक ओर जन्हा वरिस्ता..... पिज्जा हट ..... डोमिनो ..... यो चाइना ....आदि की तरफ युवायों का आकर्षण बढ़ा वंही साहित्य एवं सांस्कृतिक चर्चाएँ भी छोटे - मोटे रेस्टोरेंट.....गांधी पार्क से उठकर होटलों एवं क्लबों तक पंहुच गयी ! रंगमंच के लिए समय देने की बजाय लोग छोटी - छोटी फिल्मों या एल्बमों में काम करना ज्यादा पसंद करने लगे ! अखबारों की बजाय इलेक्ट्रोनिक मीडिया की ओर ज्यादा रूझान बढ़ने लगा ! ऐसे में चकराता रोड की प्रमुख दुकानों के साथ - साथ टिप टॉप रेस्टोरेंट फिलहाल विकास की भेंट चढ़ गया ! कब खुलेगा कंहा खुलेगा यह पता नहीं लेकिन शहर के एक ज़माने के समस्त साहित्यकर्मी ... रंगकर्मी ...बुद्धिजीवी उसे सदा याद करते रहेंगे !
@विजय मधुर
शहर के बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोगों के अलावा उस दूकान में उन दिनों अन्य बहुत ही कम लोग आते थे जिसकी मुख्य वजह थी सुबह नौ बजे से शाम नौ बजे के दौरान कभी एसा समय नहीं होता था जब दो चार एक बट्टे दो .... दो बट्टे चार .....या तीन बट्टे पांच वाले ग्राहक वंहा मौजूद नहीं होते !
उत्तरांचल अलग राज्य बनने के बाद इस शहर का तेज़ी से ब्य्व्सायी करण हुआ है ! ब्य्व्सायी करण की इसी राह में आदर्शों का बाजारीकरण भी कम नहीं हुआ ! एक ओर जन्हा वरिस्ता..... पिज्जा हट ..... डोमिनो ..... यो चाइना ....आदि की तरफ युवायों का आकर्षण बढ़ा वंही साहित्य एवं सांस्कृतिक चर्चाएँ भी छोटे - मोटे रेस्टोरेंट.....गांधी पार्क से उठकर होटलों एवं क्लबों तक पंहुच गयी ! रंगमंच के लिए समय देने की बजाय लोग छोटी - छोटी फिल्मों या एल्बमों में काम करना ज्यादा पसंद करने लगे ! अखबारों की बजाय इलेक्ट्रोनिक मीडिया की ओर ज्यादा रूझान बढ़ने लगा ! ऐसे में चकराता रोड की प्रमुख दुकानों के साथ - साथ टिप टॉप रेस्टोरेंट फिलहाल विकास की भेंट चढ़ गया ! कब खुलेगा कंहा खुलेगा यह पता नहीं लेकिन शहर के एक ज़माने के समस्त साहित्यकर्मी ... रंगकर्मी ...बुद्धिजीवी उसे सदा याद करते रहेंगे !
@विजय मधुर
बहूत सुन्दर आप ने बढ़ी बारीकी से टिप टॉप के योगदान को याद किया है।
जवाब देंहटाएंजी पन्त जी दरअसल देहरादून में टिपटॉप रेस्टोरेंट मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग रहा है |यूं कहूँ रंगमंच,लेखन से लेकर सामाजिक गतिविधियों जैसे अखिल गढ़वाल सभा, पर्यावरण आदि गतिविधियों का अधिकतर संचार यंही से होता था इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं | उत्तरखंड स्वतंत्र राज्य बनने के पश्चात् सामाजिक गतिविधियों का बाजारीकरण ज्यदा हो गया है | स्व.अवधेश जी , हरजीत जी , राजेश गोयल जी आदि जैसे लोग भी अब नहीं रहे |
हटाएंधन्यवाद भाई
जवाब देंहटाएंअड्डे की याद दिला दी
--रतीनाथ योगेश्वर
रतिनाथ जी आप भी इस अड्डे के अभिन्न अंग रहे हैं | आपके कुछ नाटक और रचनाओं में टिप टॉप का अहम् योगदान रहा है |
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