शनिवार, 6 सितंबर 2014

कविता : बड़ा शहर

यंहा
नहीं है
हवा में ठंडक
उमस ... पसीने से
तर व तर कपड़े
दौड़ते भागते लोग
कदम कदम पर
लफड़े ही लफड़े |

दिन भर की जंग से लौट
अपने घर में भी    
लड़नी पड़ती है लड़ाई
मामूली जरूरत  
पल भर सुकून की  |

हालातों से मजबूर
भीतर से चूर – चूर
बाहरी गुरूर
नाक इतनी चिकनी
चाह कर भी मक्खी
इर्द गिर्द मंडराने की
जुर्रत नहीं करती |

मक्खी ... मच्छर
गाड़ी ... मोटर ...
इंसान ... इंसानियत
सभी भिनभिनाते  
खुद का रास्ता
मालूम नहीं
दूसरों को बताते |

डर है ......
विरासत की पोटली
रिश्ते – नाते – संस्कारों की
कंही यंहा गुम न जाये
और मधुर को भी  
यह भीड़ अपना हिस्सा
न बना ले |


@2014 विजय मधुर