शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

दो कविताएँ : रास्ता और कविता

    
रास्ता 

मैंने  ……
उस  रास्ते को चुना 
जिस पर 
जाने से लोग 
कतराते थे । 
जूझता रहा 
मुश्किलों से 
बनाता रहा रास्ता 
और लोग 
आगे निकल गये ।  
उनको मिली 
वाह … वाह …
और मैं 
काँटों से 
छलनी हुए 
बदन को 
तसल्ली के 
मरहम से 
सहलाकर 
फिर से बढ़ गया 
नया रास्ता बनाने ।  

कविता 

मैं  कविता में नहीं 
कविता आकर 
बसती है मुझमे 
रचती है स्वांग 
गीतों में भरती है 
उन्मुक्त उल्लास 
उद्वेलित मन को 
बार - बार कराती है 
यह आभाष 
कि मैं  …
तुम में बसती हूँ 
तुम्हारे मन के 
भावों को 
पढ़ती हूँ ।  

खामोशी  …
कोई हल नहीं 
कंही  … 
नियति ने 
ढाया है जुर्म 
तो कंही 
उन्माद ने 
इंसान  …
हो रहे हैं दफन 
और  … मुर्दे  …
चुरा रहे हैं कफ़न ।  

@२०१३ विजय मधुर 

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