गुरुवार, 27 सितंबर 2012

कहानी : सपने

              पंतुरु गाँव में एक सीधा - साधा  साधारण ब्यक्ति मंत्रु रहता था । ध्याड़ी मजदूरी कर वह अपने परिवार का भरण  - पोषण बड़ी इमानदारी से करता था । कभी न तो किसी के आगे हाथ फैलाता  न ही परिवार को फैलाने देता था । कई बार तो उसके परिवार को रात को भूखा सोना पड़ा  लेकिन मंत्रु ने कभी भी अपने आदर्शों के साथ समझोता नहीं किया । आर्थिक स्तिथि दयनीय होने के बाबजूद वह किसी के सामने जाहिर नहीं होने देता कि वह बड़ी मुश्किल से अपना परिवार पाल रहा है । दोनों बच्चों को नियमित स्कूल भेजता । स्कूल में अध्यापकों को बच्चों की ड्रेस , किताब, कापी . कलम , फीस सम्न्धी किसी  प्रकार की  भी शिकायत का वह मौका नहीं देता था । एक दिन भगवान् ने उसकी सुन ली बड़े  बेटे ने किसी तरह इंटर पास कर लिया । उस समय इंटर पास बहुत बड़ी परीक्षा पास मानी जाती थी । गाँव वालों के  आग्रह और प्रयासों से उसे गाँव के ही स्कूल में पढ़ाने का मौका मिल गया । गाँव में इधर उधर का फालतू खर्चा तो  था  नहीं इसलिए स्कूल से जो भी महीने के पैसे मिलते वह उसे माँ को दे देता ।जिसमे से उसकी माँ एक पाई भी खर्च न करती । कहती इस पैसे से मैं अपनी  बहू के लिए गहने बनाउंगी । कपड़े  - लत्तों की कमी तो कभी भी मंत्रु ने उन्हें वेसे भी न  होने  दी । बाज़ार में यदि कपडे वाले की दूकान या मकान में ध्याड़ी करता तो कुछ ध्याड़ीयों के बदले कपडे ले लेता । दर्जी के यंहा मजदूरी की तो शिलाई हो जाती । इमानदारी , खुद्दारी और बुरी आदतों से कोसों दूर मंत्रु को लोग सामान्य ध्याड़ी से दो पैसे ज्यादा देने में कभी नहीं हिचकिचाते थे । देखते  - देखते छोटे बेटे ने भी एक दिन बारहवीं पास कर ली । उसे आस - पास के स्कूलों में पढ़ाने के लिए बुलाया गया लेकिन वह नहीं माना उसके सपने परिवार के अन्य लोगों से अलग थे । बढ़ा आदमी बनने की उसमे ललक थी । उसी दौरान लोकसभा  चुनाव की गहमा - गहमी शुरू हो गयी । वह भी  बढ़ चढ़ कर एक पार्टी के झंडे - डंडे उठाने में जुट गया । जन्हा सभा में प्रत्याशी को आने में ज्यादा ही बिलम्ब हो जाता माइक पर  बोलने का मौका भी मिल जाता । इस  दौरान उसकी वाक पटुता इतनी अच्छी हो गयी थी कि आस पास सभी गांवो के लोग उसे भली भांति जानने लग गए। बोलते - बोलते वह बीच - बीच में कुछ ऐसे चुटकुले सुना देता कि लोग लोट - पोट हो जाते । एक दिन तो बीरबल बादशाह के किस्से  में उसने प्रत्याशी का नाम जोड़कर उसे भी एक किरदार बना दिया । गनीमत समझो उस समय प्रत्याशी महराज वंहा पंहुचे  न थे । लेकिन उसे भी जनता  ने खूब  सराहा और ठहाका लगाते - लगाते यह भी भूल गए कि  लोक सभा प्रत्याशी पूर्व मंत्री जी मंच पर आ पंहुचे हैं  । ज्यों ही संत्रू  माइक छोड़ दुसरे को देने लगा तो पूर्व मंत्री भावी प्रत्याशी ने उसे ही जारी रखने  को कह दिया । वह भी संत्रू की भाषा शैली पर मुग्ध हुए बिना न रह सके । अपने मुख्य सलाहकार को आदेश दिया गया कि यह लड़का अब पूरे चुनाव के दौरान उनके साथ ही रहेगा । संत्रू को क्या चाहिए था बिना माँ - बाप से पूछे ही हाँ कर दी । दुसरे दिन गाड़ियों के लाव लस्कर में से एक गाडी में कंधे में  झोला लटका कर  वह भी लद  गया । पूरे दस दिन वह कंहा है क्या है घरवालों को कोई खबर नहीं । चिंता के मारे सबकी जान सूखी जा रही थी कि मतदान के ठीक दो दिन पहले ही संत्रू गाँव पंहुच गया । वो भी बाजार तक लाव - लस्कर की एक गाडी में । एक थैले में दो जोड़ी कपडे लेकर गाँव से गया था और लौटा दो बड़े  - बड़े  सूटकेसों और सूट बूट के साथ । मतदान के ठीक एक दिन पहले गाँव में खूब दावतें हुई जिसने जिन्दगी में कभी सुरा को हाथ तक  न लगाया हो वो भी झूमता हुआ संत्रू के गुण गान कर रहा था । संत्रू के  माता - पिता और बढे भाई को उसका  यह आचरण बिलकुल अच्छा न लगा । लाख समझाने की कोशिश की लेकिन उसके मद के आगे किसी की न चली । आखिर चुनाव खत्म हो गया । चुनाव परिणाम भी आ गया । पूर्व मंत्री पुनह भावी हो गए ।  क्षेत्र से  शोर - शराबा,  लाव - लस्कर सब ऐसे गायब हो गए जैसे गधे के सर से सींग । घाटियों में फिर से पहले जैसा सन्नाटा पसर गया । संत्रू के सपने  जो घाटियों के उस पार  मखमली घास वाले बंगले के इर्द - गिर्द  बिचरण कर रहे थे जन्हा से उसे सूटकेस मिले थे समय के साथ साथ वापस घाटी में लौटने लगे ।
 
@2012 विजय मधुर 

सोमवार, 24 सितंबर 2012

कविता : वो निशान

                       मै बावला 
                       समुद्र तट पर
                       अब भी
                       ढूँढ रहा हूँ
                       वो निशान
                       जो गुम हो गए
                       न जाने कब
                       रात के घने अँधेरे में ।
 
अब तो वह 
लहरे भी
भागने लगी हैं
दूर ........
जो छू कर
जाती थी
कभी 
गीली रेत  पर 
मेरा नाम 
लिखती 
उन उंगलियों
के साथ - साथ
मेरे .....
तन - मन को  ।
 
 
                             लहरों तुम क्या 
                             समझती हो .....? 
                             वादों की झड़ी के बाद
                             मुंह मोड़ना
                             आता है मुझको भी ।
                             जाओ .......!
                             नहीं देखनी
                             तुम्हारी अटखेलियाँ
                             नहीं सुननी 
                             मीठी - मीठी बातें 
                             शीतल पवन बिन 
                             हर लम्हे को गिन  
                            जी लूँगा 
                             हर हाल में 
                            चांदनी रातें .....।
 
                        @2012 विजय मधुर 
 
 
 

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

कहानी : जिद्द

              आज ट्रेन ज्यादा नहीं सिर्फ एक घंटे बिलम्ब हुई । रात भी काफी हो चुकी है ।  सोचने लगा ज्यादा तो हम छोटे शहर वालों के लिए है जो जल्दी खाना खाकर इस समय तक सो भी जाते हैं । बड़े - बड़े शहरों में तो दस बजे का मतलब कुछ खास नहीं ।  उतरते ही ऑटो वालों के बड़े से झुण्ड ने जगन को घेर लिया ।
"बाबू जी होटल जाना है .... बढ़िया एकदम आपकी रेंज का .....।"
" कंहा जाना है आपको कुछ बताओ तो सही .....सही - सही पैसे लगा दूंगा ।"
" मुझे भी घर जाना है .... बाबू जी बढ़िया होटल दिलाऊंगा  .....सारी सुबिधायें ....।"
 वे सारे इस तरह टूट पड़े मानों आज उस स्टेशन पर केवल वही उतरा हो । जबकि एसा नहीं था । कितनी धक्का मुक्की कर उतर पाया था ट्रेन से । उस स्टेशन पर ट्रेन रुकने का समय मात्र दस मिनट । उस दस मिनट में भी दस कुल्ली पहले ही डिब्बे में घुस गए । लोग भी न जाने कंहा से इतने बड़े - बड़े सूट केस ले आते हैं जो सवारियों से पहले ही दोनों तरफ किवाड़  बनकर  खड़े हो जाते हैं । किसी तरह वो किवाड़  खुलते भी हैं तो बाहर से अन्दर आने वाले आड़े - तिरछे किवाड़  खड़े हो जाते हैं । एक ऑटो वाला उसे बाकियों से कुछ अलग लगा ।
 "लाइए बाबू जी ....सामान मुझे पकड़ा दीजिये ... इसके पैसे नहीं लूँगा ... देख रहा हूँ आपने उतनी देर से इसे जमीन पर तक नहीं रखा ... लाइये संकोच मत कीजियेगा ..... ।"
उसने जगन के हाथ से अटैची हाथ में और बैग कंधे पर टांग लिया ।
"आइये मेरे साथ वह सामने ही खड़ा है मेरा ऑटो ।"
 जगन उसके पीछे - पीछे ऑटो तक पंहुच गया और उसमे बैठ गया । उसे उस ऑटो वाले में अपने छोटे भाई की शक्ल नजर आने लगी । एसा ही तो है एकदम बच्चा सा । पैंट कमर पर अटकी हुई । बाल आगे से मुर्गे की कल्की की तरह खड़े । वही चलने का स्टाइल ... कितनी बार टोका इंसानों की तरह रहा कर । अपनी भाभी से कहता  'भय्या को बोल दो जब मै उनकी उम्र में का हो जाऊँगा तब उनकी तरह बन जाऊँगा अभी बख्स दो मुझे ' कहता हुआ कानों को हेड फ़ोन से ढक गायब हो जाता । और ... अब ...न जाने कंहा धक्के खा रहा होगा ।काश आज पिताजी जिन्दा होते तो यह नौबत क्यों आती । दुनिया तो यही कहेगी न कि निकाल दिया अपने  छोटे भाई को घर से । वह एकटक उसी ऑटो वाले को देखे जा रहा था जो मोबाइल  पर बात करने में मशगूल  था । मोबाइल को एक तरफ रखते हुए
"भय्या कंहा जाना है आपको ।"
उसके मुख से  भय्या शब्द का  उद्बोधन सुन  उसका मन भर आया । चुपचाप दोस्त के द्वारा बताए गए होटल का नाम और पता लिखी पर्ची उसके हाथ में पकड़ा दी ।
 "भय्या यह तो दूर है ..... सत्तर रूपये लगेंगे  ।"
 " चलो ......।" हाथ से इशारा करते हुए वह बोला ।
जगन की डबडबाती आँखों को उसने देख लिया । वह समझ गया कि सवारी किसी बात को लेकर जरूर  परेशान है । मन ही मन सोचने लगा कंही मैंने इनसे ज्यादा पैसे तो नहीं मांगे .... नहीं ....नहीं ..... दिन के बक्त भी सवारियों से पचास - साठ रूपये तो ले ही लेता हूँ । यह तो वेसे भी रात का समय है । स शर्दी में कानो को भी जितना मर्जी ढक लो । तब भी  सुन्न पड़ जाते हैं ... यह तक नहीं सुनाई देता कि सवारी क्या कह रही है । हां सामने से आती गाडी की रोशनी से भले ही सामने वाले शीशे में उसकी गति बिधियाँ पता चलती रहती हैं । आजकल गाड़ियाँ भी तो बाज़ार में एक से बढ़कर एक आ गयीं हैं । एक तो शर्दी से उस पर किसी  किसी गाडी का होरन एसा कि कान में पड़ते ही कुछ देर के लिए जैसे कान बहरे हो गए हों  । जरा कान खुलते भी हैं तो तब तक उसका बाप पीछे से प्यां -प्यां करने लगता है । और उन गाड़ियों की रोशनी बाप रे बाप । शैतान को याद करो और वो हाज़िर । भैंसा बुग्गी से टकराते टकराते वह बाल - बाल बचा । कुछ देर के लिए तो लगा  अंधा ही हो गया । वही क्या जगन को भी तो कुछ नहीं दिखाई दिया । लेकिन उस झटके ने उसकी तन्द्रा जरूर भंग कर दी जो अपने छोटे भाई मगन के ध्यान में मग्न थी । जगन तो कुछ नहीं बोला झटके से भले ही दोनों के सर टकरा गए लेकिन किसी ने भी दर्द का एहसास नहीं होने दिया । ऑटो वाला ही बोल पढ़ा
 "कैसी - कैसी लाइटें लगा देते हैं मादर .....।"
 बोलते - बोलते ठिठक गया ।
" देखा भय्या आपने ... इन बड़ी - बड़ी गाडी वालों के लिए तो कोई कुछ बोलता नहीं .... और हम जरा कंही डिप्पर भी मार दें तो .......चलो यह आ गया आपका होटल ... । "
कहते - कहते उसने ब्रेक लगा दी । लेकिन उस ऑटो वाले के मुंह से भय्या शब्द सुनने से अभी मन नहीं भरा था । सोचने लगा यह होटल जल्दी क्यों आ गया मैं तो इसका नाम भी न पूछ पाया । छोडो नाम जानकार करूंगा भी क्या ...... कौन सा यह मेरा भाई है । वह भी इसकी तरह होगा कंही ......जब अक्ल ठिकाने आ जायेगी अपने आप आ जायेगा । अब गुस्से और पीढ़ा के मिश्रित भाव से उसके माथे की लकीरें मोटी - मोटी हो गयी ।
"लो भाई अपने पैसे काटो  ।"
कहते - कहते उसने सौ का नोट ऑटो वाले के हाथ में थमा दिया । ऑटो वाले ने भी आधे घंटे पहले और आधे घंटे बाद वाले भाव सवारी के चेहरे पर पढ़ तीस रूपये लौटा कर घर्रर्र ........घर्रर्र ........घर्रर्र ......करता हुआ दूर चला गया । अब मगन दोस्त द्वारा बताए गए होटल में आ पंहुचा । उसके पंहुचने से पहले ही दोस्त ने वंहा फ़ोन कर दिया था । इसलिए रिसेप्सन पर भी ज्यादा देर न लगी और वह सीधे तीसरे माले के रूम नंबर दस में जा पंहुचा । रूम ब्वाय सामान एक तरफ रखते हुए बोला
"यह रहा साहब आपका कमरा .... यह टीवी का रिमोट .... मै पानी लेकर आता हूँ ..... और कुछ चाहिए तो .... बता दीजिये ....... सब हाज़िर हो जायेगा  ।"
आजीब सा मुंह बनाकर उसने कहा । जिसे जगन पढ़ नहीं पाया ।
 "एक कप चाय मिल सकती है  ।"
रूम ब्वाय समझ गया यह तो एम्मी कस्टमर है ... । झटपट गर्दन हिलाता बोला
" इस बक्त तो चाय सिर्फ आपको यंहा से आधे किलोमीटर दूर सीमत की ठेली पर ही मिल पायेगी ।"
कहते - कहते वह जाने लगा
"किधर पड़ेगी वो ठेली ....।"
"होटल से बाहर निकलते ही बांये हाथ पर चले जाना सीधे .........।"
 कहता - कहता वह फटाफट गया ... पानी का जग और गिलास वंहा रख जाते - जाते मुड़ा .
" साहब वेसे इतनी रात को उधर जाना ठीक नहीं ..... यह इलाका वेसे भी ठीक नहीं ..... आप कहो तो बिना दूध वाली चाय .......।
" नहीं ...नहीं तुम जाओ ....... ।"
न जाने क्यों उसे वह रूम ब्वाय अच्छा नहीं लगा । एक दम उस ऑटो वाले के बिपरीत ..और अपने भाई के  उस .....दोस्त जैसा जिसके साथ वह अपने जीवन से खिलवाड़ कर घर से भाग गया । बाथरूम भी कमरे से लगा हुआ था । हाथ मुंह धोकर पलंग पर निढाल वह  कमरे की छत को निहारने लगा जिसके दोनों कोनो में मंद रोशनी से दो छोटी - छोटी लाइटें जल रही थी और एक खामोश पंखा झूल रहा था । परन्तु बार - बार उसकी आँखों के सामने मगन की भोली सी सूरत और वह पत्र घूमने लगता जो वह अपने तकिये के नीचे छोड़ कर गया 'भय्या ! पहली बार मैने एक जिद्द की थी । क्या हो जाता अगर आप मुझे मोटर साईकल दिला देते ?  मेरे सारे दोस्त अपनी - अपनी बाइकों से स्कूल आते हैं और मै उस सरकारी खचड़ा बस या दोस्तों से लिफ्ट मांग - मांग कर  । आज पिताजी जिन्दा होते तो वह एसा नहीं करते । मैंने कहा था न मोटर साइकिल नहीं दिलाओगे तो मै घर छोड़कर भाग जाऊंगा । मै जा रहा हूँ .... अपना भविष्य खुद बना लूँगा । आप मेरे भविष्य के लिए वेसे भी ज्यादा चितिंत रहते थे  ।  मुझे क्या करना है । मैं जानता हूँ । आप फिकर न करना भाभी को भी समझा देना और कहना मुझे माफ कर दे । जिस दिन कुछ बन जाऊँगा तब ही आपके सामने आऊंगा ।'
" काश ! ऐसे ही ही हो मेरे भाई .......। "
अनायास ही उसके मुंह से निकला । लेकिन जगन भी आखिर क्या करता कैसे दिला देता एक नाबालिग को मोटर साइकिल ....। दूसरों की देखा देखी उसे वेसे भी पसंद नहीं थी । अभी - अभी तो भाई ने  दशवीं पास किया और ...।  कह तो दिया था ...बारहवीं एक्जाम के बाद ही दिला दूंगा .... नहीं माना तो मेरा  क्या ...? लेकिन उसने कभी सपने में भी एसा नहीं सोचा कि मगन जैसा लड़का एसा करेगा  । दूसरों के सामने कितनी  प्रशंसा करता था वो उसकी  । खीजता  हुआ बुदबुदाया
 " हो सकता है वह  ..... कोई  बहाना ढूँढ रहा हो ..।"
 जगन गुस्से में  उठ बैठा । कमरे में ताला लगाया और चला गया होटल के बाहर सड़क पर बांयीं तरफ । पहले की अपेक्षा अब  सड़क पर कम ही लोग नजर आ रहे थे । सड़क के दोनों तरफ बने फुटपाथों पर कुछ लोग अलग - अलग गुट बनाकर अपने - अपने बिछोने बिछाने में  जुटे थे । उस शर्दी में भी जो स्वेटर उसने पहन रखी थी अब उसे वह  बोझ महसूस हो रही थी । कुछ ही क्षण में सीमत की ठेली आ गयी । सर से पैर तक ठेली वाला  एसा ढका था कि उसका असली चेहरा नज़र ही  नहीं आ रहा था । उसे क्या कह कर संबोधित करे जगन को कुछ भी नहीं सूझ रहा था । उसके कानों में अब भी ऑटो वाले द्वारा कहे शब्द भय्या - भय्या गूँज रहे थे । इसलिए भय्या बोलना ही उचित लगा ।
"भय्या एक चाय बना दो  ।" बोलते हुए नाले के ऊपर बनी पुलिया पर बैठने की सोचने लगा "
"बैठो बैठो  बाबू  जी ..... सभी लोग यंही बैठते हैं "  अच्छी  जगह भला कौन लगाने देगा मुझ गरीब को अपनी ठेली  .... पिछले बीस सालों से इसी के बदोलत पाल पोश रहा हूँ अपने परिवार को ...."।
वह था की चुप होने का नाम ही नहीं ले रहा था ।
"जरा अच्छी सी बनाना कल से चाय नहीं पी ढंग की "।
"अच्छी  ही बनाऊंगा ... इतनी ठण्ड में जो आये हो ..... लगते भी चाय के शौकीन हो .....वरना आजकल तो लोग दूसरी चाय ज्यादा ढूँढ़ते हैं ।"
 कहता हुआ वह पतीली दुबारा से साफ कर स्टोव तेज करने लगा । सचमुच स्टेशन से आते हुए एक जगह पूरी सड़क जाम देख ऑटो वाले से पूछा भी था क्या हो गया यंहा पर ........? उसने मुस्कुराते हुए कहा भय्या दरशल यंहा पर देशी  ठेका है । कितना बचते बचाते ले गया था वह ऑटो को वंहा पर  । एसा लग रहा था जैसे चुनाव से पहले उम्मीदवार अपने बोटरों को फ्री में कुछ बाँट रहा हो । यदि वो रात भर के लिए खुला रहें  तो कई शौकीन तो  अपना घर - बार भूल जाएँ । इस चाय वाले के पास देखो .......।
" आप कब तक यंहा पर रहते हो .... ।" अभी कितना बजा है  ।"
 "पौने ग्यारह  ।" स्वेटर की बांह ऊपर खिसकाते हुए जगन ने  घड़ी पर नज़र दौडाई । उस जगह पर सरकारी लैम्प पोस्ट की रोशनी अच्छी खासी   थी  बजाय और ।
"आजकल जब शर्दी ज्यादा है .... ग्राहक भी खास नहीं  .....  फिर जल्दी क्यों नहीं जाते ..?" कुछ संकुचाते जगन ने पूछा ।
"जल्दी चला जाता तो आपको भला चाय कंहा मिलती ....."।  हंसी  के साथ ही उसके पूरे चेहरे के साथ साथ   बिना दांतों वाला खुला हुआ मुंह नजर आया ।
" बात तो बिलकुल सोलह आना सच है "
"बाबू जी इंसान को हमेशा कोशिश करनी चाहिए नियम पूर्वक जिन्दगी बिताए । मैंने इन बीस सालों में चाहे शर्दी हो , बर्षात हो या गर्मी उस ऊपर वाले की कृपा से कभी भी अपनी रोजी - रोटी का नियम नहीं तोड़ा "।
"मान गए भय्या आपको "। वेसे चेहरे से तो वह ताऊ लगता था लेकिन पहले भय्या कहा था इसलिए भय्या कहना ही उचित समझा ।
 "मुसाफिर लगते हो " बढी हई दाड़ी खुजलाते वह बोला ।
" हाँ" ।
"टाइम से पंहुच जाना ...जंहा भी जाना हो ......" ।
चाय की प्याली पकडाते - पकडाते  वह बोला ।
"कुछ दूं चाय के साथ ...... बंद मक्खन ...." ।
" हाँ दे दो लेकिन बाद में चाय .... एक प्याली और बना देना बिलकुल ऐसे ही .... "।  चाय बंद मक्खन पुनह चाय पीने और पैसे देने के बाद भी जगन वंही पुलिया पर बैठ कुछ सोच ही रहा था कि  उसने देखा  ठेली वाला अपना सामान समेटने लगा है  । वह समझ गया उसका घर जाने का समय हो गया । वह भी उठ गया रात भी काफी हो चुकी थी । सड़क पर वाहनों की आवा जाही कम हो गयी थी । अब सड़क के दोनों तरफ फुटपाथों पर जगह - जगह पुरानी - पुरानी गुदड़ियों , फटी पुराने टाट- बोरिंयों , कम्बलों में इंसानों को लपेटी गठरियाँ बिखरी थी । कुछ गठरियाँ खामोश तो कुछ के भीतर कुछ हलचल चल रही थी । जगन दबे कदमों से होटल की ओर बढ़ ही रहा था कि सड़क के दूसरी छोर पर कुछ गठरियों के पास एक मोटर वैन आकर रुकी .... आसपास की कुछ  गठरियों में हरकत पैदा हुई  .... और उनमे से एक गठरी को गाड़ी वाले मोटर वैन में डालकर ले गए अपने साथ  । थोड़ी देर के लिए खुसर - फुसर हुई और पुनह शांत हो गयी । जो गठरी गाड़ी में गयी किसकी थी ........क्या थी ......कैसी थी .... ठीक से दिखाई नहीं दिया  । देखने के चक्कर में शुक्र है किसी ने देखा नहीं । सोचकर वह अब भी एक एक गठरी को यह देखता हुआ आगे बढ़ रहा था कि क्या पता इन गठरियों में ही वह चेहरा नज़र आ जाय  जिसके लिए वह पिछले पांच दिन से दर - दर भटक रहा है । लेकिन एसा कुछ नहीं ।  देखते ही देखते होटल आ गया । रूम बॉय गेट में घुसते ही बोला
"कंहा चले गए थे साहब ..... इतनी रात को हमें तो ..... खैर ....आपके किसी दोस्त का फ़ोन आया था ।" थके हारे से उसने पूछा
"क्या कह रहा था  "।
" आपके पंहुचने के बारे में "।
" वह तो तुमने बता ही दिया होगा "।
" हाँ ...लेकिन साहब ....वो किसी .......म ..... ग ......हां मगन ....के बारे में कुछ ..... "।
मगन का नाम सुनते ही वह सीढ़ियों से एकदम वापस लौटता हुआ .......
"क्या कहा उसने मगन के बारे में .........जल्दी बताओ ......"।
"वह जी कुछ याद नहीं ......अभी दुबारा फ़ोन आएगा उनका ..."। झुंझलाते हुए उसने कहा । जगन समझ गया कि रूम बॉय उससे खुश नहीं रिसेप्सन के पास ही गणेश जी की आकृति में ढली घड़ी की तरफ देखा जो साढ़े ग्यारह बजा रही थी । अपने सर पर हाथ मारते हुए मन ही मन खुद को कोसता हुआ ... कमबख्त मोबाइल को भी आज ही खोना था .... लगता है ट्रेन से उतरते बक्त किसी ने हाथ साफ कर दिया .... या कंही गिर गया ..... । उस ऑटो ने वाले ने  कितनी बार उस नंबर पर फ़ोन भी किया लेकिन स्विच आफ ....... । इधर - उधर फ़ोन करके भी उसने देखा ....। चलो अच्छा ही हुआ .... वेसे भी उस दिन से हर कोई अफसोस कम  सलाह ज्यादा दिए जा रहा था । पुलिस को कम्प्लेंट क्यों नहीं की ...... ? अखबारों में क्यों नहीं छपवाया  .........?   टेलीविजन में दे देते तो  .....? बगैरह - बगैरह ......। वेसे भी आजकल कमुनिकेसन  भी इतना  सुपर फास्ट हो गया  कि छोटी सी घटना मिनटों में पूरी दुनिया में फैल जाती है । फिर भला यह मगन के घर से भाग जाने की खबर  कैसे अछूती रह सकती थी । लेकिन इस इलेक्ट्रोनिक युग में जन्हा सूचनाओं का भारी बिस्तार हुआ वंही जगन को लग रहा था कि वह  अब पहले से कितना निकम्मा और भुलक्कड़ हो गया है ।  अब बताओ उसे  अपनी पत्नी तक का भी मोबाइल नंबर याद नहीं । पहले घरों में लैंडलाइन फ़ोन होता था तब एसा न था । सारे के सारे फ़ोन नंबर फ़ोन बुक में ही तो सेव थे । जब भी किसी को फ़ोन करना होता तो नाम से सर्च कर देता था । अब देखो कितना बेबस महसूस कर रहा था वह अपने आप को  ।  इतने में ही आधुनिक लैंड लाइन  फ़ोन की रिंग टोन बजी "चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया ...... " जगन भागा - भागा  गया फ़ोन उठाने लेकिन उससे पहले ही रूम बॉय बाजी मार चुका था ।
" यह लो आपकी ही कॉल है " चिडचिडा मुंह बनाते हुए  उसने स्पीकर आन कर  रिसीवर जगन के हाथों थमा दिया ।
" हाँ दोस्त ....."
"दोस्त गया भाड़ में .....  है कंहा तू ..... एक तो सब पहले से ही परेशान हैं ......  ऊपर से तेरा मोबाइल भी स्विच आफ ......... जानता भी है कुछ ......घर से भाभी का कितनी बार फ़ोन .......।" 
"भाई!  मेरा फ़ोन कंही खो गया .इसीलिये ...।"
"कंही से भी तो एक कॉल कर सकता था ।"
" तुझे क्या बताऊँ दरशल मुझे सिवाय उस बेबकूफ मगन के अलावा किसी का नंबर याद ही नहीं आज तक । वो भी उसे तब से ही स्विच आफ करके बैठा है ।"
"अरे ! उसी की तो बात बताने वाला था तुझे  ...... ।"
"हाँ ....हाँ .....ठीक तो है वो .......घर पंहुच गया ......।"
"घर तो नहीं पंहुचा पर फ़ोन आया था उसका भाभी के लिए । मुंबई के किसी एस .टी . डी . से किया ।"
क्या कह रहा था ..... लेने चला जाता हूँ  यंही से ...।"
अरे ! नहीं नहीं ..... उसने कहा वो अपने दोस्त के  साथ ठीक है ...फिकर न करना ... कोई परेशानी होगी तो फ़ोन कर  देगा ।"
"लेकिन उसके पास तो .....पैसे भी नहीं .......।"
"फ़ोन रख  ....बैलेंस ख़त्म होने वाला है ....... अभी भाभी को भी तो बता दूं  तुम ठीक हो .....।"
"अरे ! सुनो तो स ....... कमबख्त ने फ़ोन काट दिया ...।"
 जगन ने गहरी सांस  लेते हुए बाहर आसमान की ओर  देखा  जैसे लम्बी अमावस    के बाद  पूर्णमासी  का चाँद  अठखेली कर रहा हो  । कई बार फ़ोन के रिसीवर को चूमने के बाद जगन ने  उसे गले लगा लिया ।
" साहब ! यह फ़ोन है आपका भाई नहीं .....।"  जगन ने धीरे से फ़ोन के रिसीवर को उसकी जगह रख दिया  और   इतने दिनों  से मन में घर कर चुके अनगिनत कुबिचारों को  तिलांजलि देते हुए पहले माले  की   सीढियां चढ़ने लगा ।

@2012 विजय मधुर 

 
 

बुधवार, 5 सितंबर 2012

कहानी : स्कूल का पहला दिन

              अरे ! उठो भी देर हो रही है । बीनू ने बीजू को जोर - जोर से झकझोरा  । करबट बदलते हुए बीजू ने कहा ।
क्या हो गया इतनी सुबह सुबह .........
क्या हो गया कुछ याद भी है ....आज से अपने गोलू ने स्कूल जाना है ....
अरे ! बाबा .... । कम्बल को एक तरफ फेंकता हुआ बीजू उठ बैठा ... । गोलू उठ गया .....  ।
हाँ ! पहले उसे ही जगाया । बड़ी मुश्किल से जगा । लेकिन स्कूल के लिए स्पस्ट मना कर रहा है ..... नहीं जाऊँगा स्कूल ।
टेस्ट वाले दिन तो .........
उस दिन तो उसे पता नहीं था कुछ भी .... मेरी सुनता कौन है .... आज इसे एक साल पहले ही स्कूल भेज देते तो यह नौबत नहीं आती । कहने लगे अभी छोटा है  .... तीन साल का हो तो गया था । अब चार से भी  ज्यादा  का  हो गया । बढ़ा हो गया ......इसीलिये  तो बात नहीं मान रहा है । अब तुम ही मनाओ उसे । बीनू गोलू का नया बैग और पानी की बोतल  तैयार करने लगी । आज बड़ी मुश्किल से बीजू  उसे स्कूल ले   गया  ।  लेकिन जब वह उसे लेकर  स्कूल के अन्दर ले जाने लगा  तो गोलू महाराज तो गेट पर ही अड़ पड़ कर बैठ गए । आपने झूट बोला ....बाहर से ही वापस ...... मुझे नहीं जाना स्कूल ...... घर में ही रहना है ......खेलना है ....अपने रौक्सी के साथ ....नहीं जाना।  हूँ ....हूँ.... करके रोने लगा । बीजू ने उसे गोदी में उठाने की कोशिश की लेकिन वह समझ गया कि यह मुझे उठाकर स्कूल छोड़ देंगे । वह काफी देर तक गेट पर  पैर फंसाए यूं ही सुबकता रहा । स्कूल स्टाफ के भी सारे प्रयास बिफल हो गए । अब स्कूल में प्रयेर हो चुकी थी सारे बच्चे अपनी - अपनी कक्षाओं में जा चुके थे । बच्चों को कक्षा में बिठाकर अब उस क्लास की टीचर आ गयी जिस क्लास में उसका एडमिशन  हुआ । वह नीचे ही गोलू के साथ जमीन पर पंजों के बल बैठ गयी । बीजू की  तरफ देखते बोली .... क्यों जबरदस्ती  ....परेशान .... कर रहे हो इतने प्यारे बच्चे को । नहीं जाना उसे स्कूल तो क्या हुआ । और बीजू को  यह इशारा कर वापस घर लौटने को कह दिया कि एक घंटे में वापस आ जाना । दबे पाँव से बीजू  घर लौट गया । थोड़ी देर में गोलू ने  देखा कि  पापा वंहा पर थे ही नहीं । अब वो और भी जोर से रोने लगा । पापा .... पापा ..... कहते हुए खड़ा हो गया ....
बेटा तेरे पापा अभी आ रहे हैं ..... चलो तुम्हे स्कूल नहीं जाना तो कोई बात नहीं ...तुम एक काम करो ... उसने स्कूल के उस छोटे से लॉन का गेट खुलवाया जिसमे बीचों बीच बने छोटे से तालाब में सुन्दर कमल के फूल खिले थे ...किनारे - किनारे खरगोश और  बिदेशी मुर्गियों  के पिंजरे । गोलू को देख लगा कि उसे मुर्गियां अच्छी लगी । टीचर उसे उनके पास ले गयी  जो गोलू को अपनी भाषा में गर्दन उठा -उठा कर न जाने क्या कह कह रही थी  ।गोलू अब भी सुबक ही रहा था परन्तु रो नहीं रहा था । गोलू क्या कह रही हैं यह हेन  ... गोलू ने कोई जबाब नहीं दिया । टीचर समझ गयी अभी इसका मूड सही नहीं । अच्छा तुम एसा करो जब तक तुम्हारे पापा आते हैं इनको  देखना ...कोई किसी किसी के साथ सैतानी करे तो मुझे बताना  । यह लो बिस्कुट साथ - साथ खा लेना । मै सामने बैठी हूँ  ।  हाँ ...यह जो ह्वाईट कलर की है इसका नाम है ह्वाईटी ...ब्लैक कलर की ब्लैकी और यह जो बदमास है इसका नाम है ओरेन्जू .....। वह गोलू को वंहा छोड़ कुछ  दूर जा कर घोड़े के आकार वाली बेंच पर किताब पलटने लगी । उसकी क्लास के बच्चों को अब स्कूल की प्रिंसिपल देख रही थी । गोलू अब पहले की अपेक्षा सामान्य हो गया । टीचर की तरफ एक दो बार उसने देखा लेकिन उसने जानबूझकर अनदेखा सा कर दिया । गोलू ने  बिस्कुट का पैकेट खोला और  टुकड़े कर - कर उन मुर्गियों को  देने लगा । लेकिन उसे आश्चर्य हुआ तीनों में से केवल तो ही बिस्कुट खा रहे थे । हवाईटी को बिस्कुट मिल भी रहा था तो वह खुद नहीं खा रही थी । ब्लेकी या ओरेंजू को खिला देती  । गोलू को यह बात  अजीव सी लगी  । सीधे टीचर के पास आ गया । जब टीचर गेट के पास गोलू के साथ बैठ रही थी तभी उसके पापा ने कहा था गोलू यह तुम्हारी टीचर है । गुड मोर्निग करो ।
नहीं  ..... मुझे नहीं करना ...... । रोते -रोते कहा उसने और पुनह अपनी हठ पर बैठ गया । अब बात अलग थी पापा भी नहीं थे आस पास  .. न ही वह घर में था जो मम्मी से कुछ पूछता । अब उसके सामने सिर्फ एक ही बिकल्प था ... वह थी टीचर । धीरे - धीरे गोलू अब टीचर के पास आया और आहिस्ता से डरते - डरते कहने लगा - टीचर ह्वाईटी  बिस्कुट नहीं खा रही है ......
अच्छा ..... चलो दोनों मिलकर खलाते हैं उसे ..... । टीचर गोलू का हाथ पकड़ कर अपने साथ ले गयी । टीचर ने भी ह्वाईटी को अपने हाथों बिस्कुट दिए ... लेकिन वह फिर बिस्कुट लेती और दोनों को खिला देती ।
टीचर यह तो अब भी नहीं खा रही । इसे बिस्कुट अच्छे नहीं लगते । इसीलिये तो .....। उसने  मासूमियत से बोला ....
हाँ ..... तुम भौत इंटेलिजेंट बच्चे हो । कहते कहते उसने गोलू के गालों को चूम लिया । जिसे गोलू ने अपनी कमीज पर पिन के सहारे लगे हैंकी से पोंछ लिया ।
अच्छा बच्चू ..... ।  गोलू के मोटे - मोटे , छोटे छोटे गालों   पर पहली बार हल्की सी मुस्कराहट आयी ।
टीचर मेरे बैग में कुर्कुर्रे हैं । ह्वाईटी को कुर्कुर्रे देते हैं । उसने झट से अपने नन्हे - नन्हे हाथों से बैग की तनियाँ खोली । कुर्कुर्रे का पेकेट खोलकर उसमे से एक -एक कुर्कुर्रे उनको अपने हाथों देने लगा । लेकिन अब भी ह्वाईटी पहले जैसा ही करती । उसकी समझ में कुछ नहीं आया  । अब उसने चाकलेट के भी छोटे - छोटे टुकड़े कर उसे दिए  । ह्वाईटी अब भी वही कर रही थी । अब गुस्से में
जा मैं नहीं देता तुझे कुछ भी । पैर झटकते हुए टीचर का हाथ पकड़ लिया और दूसरी ओर मुड़ कर  बाकी बची चाकलेट अपने मुह में डाल दी ।
तुम्हारा नाम गोलू हैं न .... अब उसने सहमति से  शिर हिला दिया .....। जानते हो ह्वाईटी क्यों नहीं खा रही है ..
वह उत्सुकता से टीचर की तरफ देखने लगा .... क्योंकि अब उसे लगा कि उसके प्रश्न का जबाब मिलने वाला है ...।
देखो गोलू जब ब्लैकी और ओरेन्जू .....का पेट भर जायेगा ।   उसके बाद ही तो कुछ   खायेगी ह्वाईटी न .....
लेकिन क्यूं ..........
इसलिए कि यह जो ह्वाईटी है न ........... यह ब्लैकी और ओरेन्जू की माँ है .. समझे ...... ।
इससे पहले कि गोलू कोई पर्तिक्रिया कर पाता  उसके पापा वंहा आ पंहुचे ...... और वह दोनों हाथ फैलाकर दौड़ - दौड़ कर गया और पापा के गले से चिपक गया और तिरछी आँख से टीचर की ओर देख हल्का सा मुस्करा दिया ।

@2012 विजय मधुर 



रविवार, 2 सितंबर 2012

कहानी : बेरंग बादल

          गाडी से उतरने के बाद रमतू ने छोटे से बाज़ार में इधर उधर देखा आज उसे अपने गाँव का कोई भी नज़र नहीं आया । गाँव पंहुचने  की  जल्दी में वह  चाय पीने भी नहीं रुका   । आज पहली बार उसके साथ एसा हुआ । एक नौजवान  कंधे में झोला लटका कर उनके गाँव के रास्ते की ओर    जाता  दिखाई दिया । जान पर जान आई । लगा गाँव का ही लड़का होगा ...सालों बाद कभी कभी तो आना होता है कंहा से पहचानेगें एक दूसरे को ।
अरे ! भय्या सुनो ... रनू गाँव के लिए आज कोई गाडी नहीं होगी क्या ?
अंकल गाडी तो आज वंहा के लिए बंद है । कल ही जगह - जगह सड़क टूट गयी । लड़के ने बड़े आदर के साथ जबाब दिया ।
तुम्हे भी वंही जाना होगा ...।
नहीं नहीं .....।
आज हमारे गाँव का भी कोई नहीं दिखाई दे रहा है .....।
 कंहा से दिखाई देगा ।
 क्यों ....
अंकल आजकल पैदल कौन आता है । हमारी तो मजबूरी है  । मेरे साथ चलना है पुराने रास्ते  तो चलो मैं सीलू गाँव का हूँ ।
चलो इसी बहाने पुरानी यादें ताज़ा हो जायेंगी ...लगभग दस बर्ष हो गए होंगे इस रास्ते पर चले हुए ।
दोनों बातें करते करते उस  छोटी सी नदी के पास पंहुच गए जंहा से उनके रास्ते अलग अलग हो जाते हैं । नौजवान ने हाथ जोड़ते हुए
अच्छा अंकल .... नमस्ते ।  कहते हुए   अपने सीधे - सपाट रास्ते  पर चल दिया । 
अच्छा बेटा   .. थकी हारी आवाज में रमतू ने कहा और पुल के किनारे बनी पुलिया पर बैठ गया ।  साथी भी आँखों से ओझल हो गया जन्हा तक नज़र पंहुचती थी कोई भी तो नज़र न आ रहा था। अब उसके सामने अचानक खडी हो गयी करीब डेढ़ किलोमीटर की खडी चढ़ाई ।जिसे देख आज रमतू  को  दिन में  ही  चाँद तारे नज़र  आने लगे । मन ही मन अपने आप आप को कोसने लगा ।  न जाने किस घड़ी में गाँव आने की सूझी । मेरे से तो अच्छी सुमती ही रही । दो टूक में कह दिया था । बर्षात के मौसम में वो भी गाँव ...तुम्हे जाना है तो जाओ .. मुझे नहीं आना । क्या हुआ अगर चाचा जी  बीमार हैं । उनके बच्चे तो उनके पास पंहुच ही गए होंगे  न । मेरी सलाह मानो  तो रहने दो तुम भी । बाद में देखी जायेगी । तब तक मौसम भी ठीक हो जायेगा ।  कास उसकी ही बात मान ली होती ...नहीं .. नहीं ... पहले भी उसकी बात मानकर .. मै .....पछता रहा हूँ   उन चाचा जी को मै कैसे भूल सकता हूँ जिनकी बदौलत अपने भले पूरे परिवार   के  साथ दिल्ली  जैसे शहर में    ठीक     ठाक झोपड़े में चैन की दो रोटी खा रहा हूँ।   दो दिन पहले  जब से जीनू 
ने बताया कि  चाचा सख्त बीमार  हैं  बचने  की कोई  उम्मीद  नहीं तब से   मन में  बस यही इच्छा  हुई कम से कम   आखिरी क्षणों में उनके दर्शन कर पांऊ ।  अफसोस सब कुछ होते हुए भी उनके लिए कुछ नहीं कर पाया । एक बार ले जाता दिल्ली तो क्या हो जाता । जिसको बुरा लगता ... लगने  देता .....स्टेटस ... पड़ोसी ... गंवार ...छि ....छि ... ।  उस दिन कैसी  दबी जुबान और हिम्मत जुटाकर कर  कहा था चाचा ने  आज भी उनके कहे एक - एक शब्द याद हैं  
 बेटा । वो क्या है  ....तेरी चाची भी न  .... इन औरतों का भी .... जन्हा चार कट्ठी  हुई नहीं .. ले आती हैं नयी - नयी मुशीबतें । (लम्बी सी सांस लेते हुए ) ...  छब्बीस  जनबरी देखने के लिए .... कह रही है  ।
इतनी सी  बात के लिए आप इतना .....  क्यों नही मै जनबरी पहले - दूसरे सप्ताह  आऊँगा  और ले जाऊँगा आप दोनों को  अपने साथ ।  एक आध हफ्ते आराम से घूमना  दिल्ली  ......आप और ... चाची  ।   उस बक्त कितनी सहजता से बोल दिया था । पहली बार इतना खुश होकर चाची को  तेज़ी से  सीढियां चढ़ते देखा । उन्होंने शायद पूरी  बात सुन ली थी ।पूरे चार  सालों तक चाची  छब्बीस जनबरी का सपना देखती रही और   - एक दिन खबर आयी कि चाची चल बसी । अपने आप को धिक्कारते हुए उसने पुरानी आदत से मजबूर एक बढ़ा सा पत्थर उठाकर नदी में फ़ेंक दिया । जो नदी की तेज़ धारा में न जाने कंहा बिलीन हो गया ।  वेसे तो उस छोटी सी नदी में बहुत कम पानी होता । स्कूल आते  - जाते जब कभी पेट ख़राब होता तो पानी की तलाश में नदी में काफी ऊपर जाकर  कंही पानी मिलता  ।  आज वही  नदी अपने  पूरे उफान पर थी । उसके शोर के आगे उस पत्थर की छप्प तक न सुनाई दी  । अब हिम्मत का सामना करने के लिए खडी थी चढ़ाई ।  यह वही चढ़ाई थी जिसे वह पच्चीस साल पहले स्कूल से आते हुए रोज़ घर जाता  । कभी ध्यान से देखा ही नहीं । यह छोटी सी नदी ...... यह रास्ता .....और ..... यह चढ़ाई आज इतनी डरावनी कैसे हो गयी । सड़क को भी कल ही टूटना था । हे! भगवान् । मन में कोफ़्त ..... एसा लगता है इस रास्ते   पर कोई बर्षों से चला  ही  नहीं । फिर दिमाग में वही पुराना आइडिया आया । उस समय जब कभी टाइम  पास करना होता  या  घर जल्दी नहीं जाना होता  तब रास्ते में हर तीसरे कदम पर घोड़े का बाल ढूँढ़ते थे .... और वह मिल भी जाता था । ऊपर धार में पंहुच कर उन्हें गिनते थे किसने कितने बाल इकट्ठे किये । जिसमे वह हमेशा फर्स्ट आता था । लेकिन आज तो उस बंजर सड़क पर खच्चरों को चले हुए भी बर्षों बीत गए । जबसे गाँव तक सड़क पंहुची । खच्चर वालों ने अपने अपने खच्चर बेच दिए । फिर भी दस - पंद्रह  कदम पर आज भी कोई बाल मिल ही रहा था । इस प्रकार धार में पंहुचते पंहुचते काफी बाल इकठ्ठा हो गए जिन्हें उसने गिना नहीं  । अब रमतू ने राहत की लम्बी सांस ली ... चलो एक जंग तो जीत गया । अब तो सीधा रास्ता है । धार में अपने पुराने दिनों की तरह उस बड़े से पत्थर के ऊपर लेटा वह आसमान को निहार रहा था । आज कम से कम मौसम ने उस पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखी ।  सूरज दिन भर बादलों के पीछे छुपता छुपाता आखरी पहाड़ी पर जा पंहुचा था । बादल रंग बिरंगे रंगों से अलग - अलग आकृतियाँ बनाने में ब्यस्त थे । लगता है आज उन्हें भी कोई मस्ती सूझी है । बढ़ा बादल छोटे बादल को दबाकर अपने में समाहित कर रहा था । छोटे बादल बेचारे कितना अपने आप को बचाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन सारे प्रयास पल भर में भी बौने साबित हो जाते ।रमतू कुछ क्षणों के लिए भूल ही गया कि वह कंहा है तभी कुछ जानी पहचानी घंटियों की आवाज कानों में आयी । वह एकदम हडबडा कर उठ बैठा । सामने देखा तो सीढी नुमा दो खेतों के बीच बनी पगडंडी पर घास चरते चरते ... टन ..टन घंटी बजाते छोटी नस्ल के बैलों की जोड़ी उसके तरफ बढी जा रही थी । खुशी का कोई ठिकाना न रहा इस नज़ारे को देखने के न जाने कब से आँखे लालायित थी । बैल एक दम करीब आ पंहुचे थे लेकिन अभी तक उनके साथ कोई नहीं दिखाई दिया । एसा हो ही नहीं सकता कि अचानक हाथ में लम्बी सी   स्व्ट्गी लिए उनका मालिक भी आ पंहुचा ।
भाई साहब नमस्कार ! कहते - कहते सबरू रमतू के गले लग गया ।
परिवार में सब कुशल मंगल .......
हाँ ...
काका को देखने आये होंगे ........
हाँ !  कैसी है उनकी तबियत ......?
तबियत अब कंहा ......
मतलब क्या हुआ उन्हें .....?
हुआ तो अभी कुछ नहीं ....लेकिन कह नहीं सकते .....कितनी देर के मालिक हैं ।
भाई ! आप तो जानते ही मेरे लिए तो पिताजी से बढ़कर हैं वो ... बस एक बार आखिरी दर्शन ...
यह सब बस उस ऊपर वाले का खेल है ...जो तुम्हारी किश्मत में होगा .....
अब दोनों के बीच बर्तालाप में पसरे सन्नाटे को तोड़ रही थी तो सिर्फ स्वरबद्द   तरीके से बजती बैलों की घंटिया । कुछ दूर तक दोनों यूंही चलते रहे । फिर सबरू ने रास्ते के ऊपर  से कुछ पत्तियां तोड़ी  । उनसे  चिलम बनाई ।  कंधे में टंगे झोले से तम्बाकू उसमे भरी । दो  सफेद पत्थरों के बीच सफेद रूई जैसे कुछ खास पत्तों की निचली सतह रखी ।   लोहे के खास टुकड़े से उन्हें जोर से रगडा । हो गयी आग तैयार । उसे चिलम में भरी तम्बाकू के ऊपर रख जोर - जोर से  कस  मारने लगा । धुंवे का एक बड़ा सा गोला मुंह से छोड़ते हुए खूं .......खूं .......खूं ....... खांसते खांसते ...
क्या करें भाई साहब बेकार है यंहा की जिन्दगी .... मैंने तो अपने पैरों खुद ही कुल्हाड़ी मारी .....बाप ने अच्छा भला धक्का दे दिया  था .... वो भी दो दो बार ...... मै ही उलटे पैर यंहा लौटा । देहरादून जिस बिभाग में मै लगा था आज साथ वाले  सारे पक्के हो गए ... ऐस कर रहे हैं ...आपकी तरह .....। कहते -कहते अब उसने दूसरा कस पहले से ज्यादा जोर से खींच लिया । जो स्पस्ट दिखाई दे रहा था उसके भिंचे गालों एवं गले की खिंची मोटी मोटी नसों से । उम्र में रमतू से तीन साल छोटा था परन्तु लगता तेरह साल बढ़ा । इस  बार धुंवे का गुब्बार पहले से कंही ज्यादा होने के साथ - साथ खांसी भी देर तक रही । खांसते - खांसते अब उसकी आँखे लाल सुरक हो गयी थी । अब वंहा से गाँव स्पष्ट दिखने लगा । गाँव में पहले की अपेक्षा मकान बढ़ गए थे । मकानों के बीच की दूरियां कम हो गयी थी ।
लो भाई साहब गाँव भी आने वाला है । जब से सड़क बनी तब से इधर कोई झांकता भी नहीं । नहीं तो अब तक पूरे गाँव में खबर पंहुच गयी होती कि आज फलां परदेशी पंहुच गया । मै भी सीलू गाँव गया था इस जोड़ी को लाने । इसके मालिक भी समझो यंहा से पैक करके गए ......।
रमतू को अब सबरू की  बातों में कुछ भी दिलचस्पी नहीं रही । उसका मन तो बस इस बात से ज्यादा भयभीत था कि हमेशा जो  गाँव कभी बच्चों किलकारियों ....कभी जोर से बजते रेडियो - टेपरिकार्ड .....कभी किसी के आपसी झगड़े ...या कभी किसी के नुक्सान होने पर गालियों से गूंजता ही रहता था आज खामोश क्यों है । गाँव के नजदीक पंहुचते अब रमतू को अपना घर भी दिखने लगा जिसमे लोगों की हलचल भी उसे दिखने  लगी । वह  यह सब ध्यान से देख ही रहा था कि उसी घर से जोर - जोर से रोने की आवाजें आने लगी । रमतू ठोकर खा कर नीचे खेत में गिरने ही वाला था की सबरू ने उसे थाम लिया । अब बैलों  की घंटिया उनसे दूर जा चुकी थी । सूरज भी पहाड़ी के पार से देखने की कोशिश कर रहा था परन्तु उसकी दृष्टि अब आसमान तक ही सीमित रह गयी थी । जो अब अपनी लालिमा से सिर्फ आसमान मे पसरे बेरंग बादलों में रंग भरने की कोशिश कर रही थी ।
 
@2012 विजय मधुर