सोमवार, 21 मार्च 2011

हमने खेली होली

हमने खेली
खूब होली |
रंग बिरंगे
रंगों से
भीगे
और ......
भिगोया |
झूमते
नाचते गाते
राह में
सबको खूब
नचाया  |
गले मिले सब
कोई अपनी मस्ती में
तो कुछ 
उसकी ...... |
दूसरे दिन भी
उतरी नहीं
जो चढी है
खुसकी ...|
देखो कुदरत
का अजब तमाशा
कंही पिचकारियाँ |
कंही बरसते बम
तो कंही ...
भूख ...प्यास ....
बिछोह की
किलकारियां |
हमने खेली
खूब होली |
रंग बिरंगे
रंगों से
भीगे
और ......
भिगोया |
Copyright © 2011 विजय मधुर

बुधवार, 2 मार्च 2011

भड्डू

     कहानी   
     उन दिनों घर में एक भड्डू हुआ करता था | जिसे माँ रोज सुबह नाश्ता बनाने के बाद चूल्हे पर दाल गलाने रख देती थी | जिससे उसकी मोटाई और बढ़ गयी थी | जितनी मोटी कांसे की परत उससे ज्यादा मोटी हो गयी थी उसकी निचली सतह कालिख से | कितनी स्वादिस्ट होती थी उसकी दाल | माँ जैसे ही खेतों से या जंगल से घास लकड़ी लेकर घर लौटती दाल एकदम गली हुई | हाँ कई बार वह जरूर कम हो जाती थी | हम एक आध कटोरी दाल कभी कभी एसे ही खा जाते थे | माँ हमारी तरफ देखकर बोलती बेटा " आज दाल कम क्यों हो गयी होगी "| हमारा मासूम चेहरा देखकर वह सब समझ जाती थी | " बस क्या करूँ ! सुबह सुबह काम भी तो इतने सारे होते हैं | सुबह सुबह पहले डंगरों को घास _ पींडू(चारा)  ..... गोबर  ...... दूध  ..... चाय नाश्ता .... फिर तुम्हारे पिताजी को दूकान में भी तो जाना होता है ....| कम रख दी होगी हबड़ तबड़ में| अब तुम जल्दी से बढे हो जावो ........तुम्हारी बहुएं आ जायेंगी ....तब तो मेरे लिए आराम ही आराम |   जेसे ही माँ घास लकड़ी लेकर घर पंहुचती  | हम एक दम जो काफी देर से उनकी बाट जोहते रहते थे | उनकी गोद में बैठने को आतुर होते  | लेकिन हमारे से पहले नंबर आता था गाय और बच्छी का | क्योंकि वह हमारे से ऊंचा बोल लेती थी | यंहा तक की खूंटा उखाड़ने के लिए भी तैयार रहती | कई बार एसा हुआ भी | इसलिए हमारे से पहले उन्हें थोड़ा थोड़ा घास दिया जाता | हम अभी भी माँ के पास नहीं जा सकते थे | " रुको-रुको अभी देखते नहीं मेरी धोती पर कितने बढे-बढे कुम्मर (घास में पाए जाने वाले कांटे) लगे है |" माँ के साथ साथ हम भी कुम्मरों को बिराने लग जाते | तब तक वह अपनी धोती की गांठ से हमें कभी हिन्सोले ...कभी किन्गोड़े ...कभी काफल ... कभी कंद मूल ...कुछ न कुछ  खाने दे देती थी |  जो थोडा - थोडा घास गाय बच्छी को दिया जाता  ...वह बड़ी जल्दी चट कर जाते थे | अब उन्हें पानी  पिलाया जाता | फिर ज्यादा घास | माँ अब हमें लेकर चूल्हे के पास आ जाती | हमारे से बात करते करते "आज किसी से कोई झगडा वगडा तो नहीं किया"| नहीं माँ ....   भात पकाने रख ...दाल के लिए सिलवटे पर मसाला पीसने लगती | कुछ ही देर में खाना तैयार | उस समय कुछ भूख भी ज्यादा ही लगती थी | हम दोनों भाई फटा फट खाना खाने लगते | "आराम से खाओ ....कन्हा की जल्दी हो रही है ...." हमें खाना खाते देख माँ बड़ी खुश होती थी | " खा लिया थोडा और ...." नहीं- नहीं ..." अब कंही मत जाना दोनों भाई थोड़ी देर सो जावो मै अभी आती हूँ " अब वह  खाना खाती ..सफाई करती ..सारे  बर्तन मांजकर पानी का बंठा सर पर रख पानी के लिए चली जाती पंदेरा |  उस दिन भी वही हुआ | बड़ा भाई माँ के जाते ही रफूचक्कर हो गया अपने साथियों के साथ | हमेशा की तरह सख्त हिदायत दे कर ...माँ को कुछ मत बताना ...वरना .| मै भी क्या करता | माँ ने चोके में जो बर्तन रखे थे मै उन्हें एक एक कर रसोई में रखने लगा | भड्डू के लिए मनाही थी इसलिए उसको नहीं उठाया  | अब चोके में अकेला भड्डू बचा था | जो ऊपर से तो बड़ा चमक रहा था लेकिन उसकी निचली सतह ....कुछ जम नहीं रही थी | ढून्ढकर वह पत्थर ले आया जिससे माँ हमारी एडियाँ रगड़कर मैल निकालती थी | मैंने भी भड्डू का मैल निकालना शुरू कर दिया | सोचा तो था इसे चमका जब माँ देखेगी तो बड़ा खुश हो जायेगी | लेकिन मैल निकालते निकालते उसकी तल्ली में छेद हो गया | डर तो बहुत लगा ...अब जरूर पिटाई होगी | लकिन बचपन से ही एक आदत थी सच्चाई को कभी नहीं छुपाता था | सच बोलने के चक्कर में कई बार पिटाई भी हो चुकी थी | लेकिन क्या करता आदत से मजबूर जो था | आते ही माँ को सारी कहानी बता डाली | माँ ने बिना डांटे ही मेरे सर पर हाथ रखा और बोली ...बेटा कोई बात नहीं  ....अरे ... यदि यह  चमक सकता ....तो भला.... मै नहीं चमका सकती थी क्या ..? कह कर माँ सगोड़े से रात के लिए सब्जी ढूँढने लगी | मै कभी भड्डू की तरफ देख रहा था तो कभी माँ के ओर |
Copyright © 2011 विजय मधुर