सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

मोबाइल टावर

     एक बार शहर  के सबसे ऊंचे मोबाइल टावर में कौओं  का सेमीनार हुआ। मुद्दा था दिन व दिन विकट होती जा रही परिस्थितियों का कैसे सामना किया जाय । पहले काग देवता के नाम से हमें पूजा जाता था । रोज सुबह लोग अपनी छतों पर आदर के साथ खाने-पीने  को रख देते थे । जैसे हम काँव - कांव कर वंहा पंहुचते, चाव से खाते , हमें खाता देख वे अपने आप को धन्य मानते थे | काग देवता के दर्शन हो गए | अब तो लोंगों के पेट खुद ही इतने बड़े हो गए हैं कि उनका खुद का पेट ही नहीं भरता । जितना मिल जाय उतना ही कम । बचा खुचा कूड़ेदान में फेंकते भी हैं तो पोलीथीन के भीतर  । पोटली  खोलो तो पोलीथीन के अन्दर पोलीथीन ... रबर....प्लास्टिक ... और भी न जाने  क्या-क्या । अब तो उन पोटलियों को  छूने का भी मन नही करता । 

व्रत - त्यौहार तो लोग जैसे भूल ही गए । अच्छा खाना खीर..... घी...... पकोड़ी........ पूड़ी......... सब्जी.....। साफ सुथरे पत्तों में सजाकर .... हा ... हा ... मुंह  में पानी आ जाता है...। जाने कंहा  गए वे दिन | दिन प्रतिदिन हमारी भूख के मारे ...|  जिनकी जनसंख्या घटनी चाहिए उनकी तो दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है और हम बद्किस्मत्तों की घटती ही जा रही है | कंही एसा न हो एक दिन हम दुर्लभ प्राणियों में शामिल हो जायं | 

कई दिनों तक पानी भी नसीब नहीं होता । नहरों के ऊपर गाड़ियाँ दौड़ रही हैं । नालियाँ कबाड़ से पटी हैं । सरकारी नलों के सामने लम्बी कतारें ... एक बूँद पानी के लिए धरती  भी तरसती है । 

भूखे प्यासे पेड़ों के झुरमुट में दिल खोलकर कांव – कांव.. ...... भी नहीं कर सकते । रोज कट रहें हैं । मकान तोड़कर मंजिलें बन रही हैं । न अन्न न पानी न आबो हवा न आदर सत्कार..........जरा किसी के घर के आगे कांव – कांव..... करो तो  कुता कम वह ज्यादा खाने को दौड़ता है | 

सेमीनार का पहला चरण तो रोने धोने में ही बीत गया । बूढ़ी आँखों में निराशा ... आंसू ... उनसे थोड़ा कम उम्र वालों में उदासी ...चिंता ... नौजवानों में आक्रोश | चिंतामय वातावरण | असली मुद्दा ज्यों का त्यों | कैसे बिषम परिस्थितियों का सामना किया जाय |

मौके  के नजाकत को भांपते हुए चतुर कोवे ने प्रयोगात्मक विषय सबके सम्मुख प्रस्तुत किया | अपनी चतुराई से वह देश बिदेश के कई सेमिनारों में भागीदारी निभाकर वाहवाही लूट चुका था । बिषय पर आधारित एक साफ सुथरा घड़ा  सामने रखा गया, जिसके तले में कुछ पानी था । घड़े और पानी को देखकर सभी समझ गए | इंसानों तो अपने बच्चों को यह कहानी सुना सुनाकर हमें बेवकूफ तो बनाया ही है ... अब ये अपना भाई भी बनाने लगा है |  सभी से कहा गया पानी पीना है ...कैसे ........?

सबने कहा कौन नहीं जनता ... । विदेशी कोवों को बनाओ .. हमें नहीं | ठीक एक बार मेरा मन तो रख लो  | सभी एक साथ उड़ने को तैयार हो गए । देखो वह तो एक ही कौआ था इसलिए एक-एक कर पूरा करो । एक सयाना कौआ झटपट आगे आया... ये तो बड़ा आसान है....., मैं अभी पूरा करता हूँ इसे । ठीक है। उसने उड़ान भर ली । लेकिन काफी देर बाद वापस लौटा वह भी चोंच पर एक छोटा सा पत्थर लेकर । क्यों भई इतनी देर बाद क्यों लौटे। एसे तो तुम दस दिन में भी नहीं भर पावोगे इस घड़े को | दस दिन तक प्यासे ही रहोगे क्या ?  मैं क्या करता दूर-दूर तक कंही पत्थरों का नामो निशान ही नहीं | सूखी नदी में भी बजरी पत्थर कम ट्रेक्टर ... ट्राली .... बुलडोजर .... मजदूर ज्यादा | जहाँ देखो ईंटे  ही ईंटे .. बजरी भी छनी हुई । पसीना पोंछते वह जमीन पर बैठ गया |

 जमीन पर हताश बैठे कोवे को देख नौजवान कौआ  बाल खड़े ... दोनों पर ढीले अजीव सी चाल में आगे बढ़ा।  सभी उसको देख एक साथ हंस पड़े। क्या हुलिया है ? आजकल के बच्चे ! इन्हें क्या लेना देना हमारी परेशानियों से | घरों के आस - पास तो ये नजर भी नहीं आते | क्या कहते हैं उन्हें डोमिनो .... पिज़्ज़ा ... चाइनीज फ़ास्ट फूड ... मोमो ... और भी न जाने क्या - क्या .. के आस - पास ही मंडराते हैं | और वो भी रात के समय | कितना समझाओ इन्हें | लेकिन इनके आगे किसकी चली |  ठीक से तो चलाना आता नहीं ! ये भरेगा घड़ा | और पानी पिएगा | दूसरी छोर से एक बोला खुद ही नहीं हम सबको पिलाएगा | ऊंचे टावर में पहली बार जोर का ठह्हाका गूंजा | 

नौजवान ने इधर उधर नजर दौडाई  | कुछ ही दूरी पर उसे एक कागज़ नजर आया और वह उसे उठा लाया |  इससे पानी पिएगा.... हा....हा.......... । जरा दिखा तो दो.... क्या नुस्खा लिखा है इसमें । उसने सबको कागज़ दिखाया। जिस पर लिखा था एक  दिन में कंप्यूटर सीखें । हा... हा....हम और कंप्यूटर। आजा बेटा ! इधर आजा ! तेरे बस का कुछ नहीं । 

नौजवान ने गर्दन झटकी पानी का जायजा लिया और नीचे झुककर पानी के पास जोर से चोंच मारनी शुरू कर दी । चंद मिनटों में ही पानी हाशिल । खूब पानी पिया वह भी सबको दिखा दिखाकर । और फिर कागज की गोली बनाकर छोटे से छेद में ठूंस शान से खडा हो गया। सबकी आँखें फटी की फटी रह गयी । 

अचानक सभी को टावर में दबे क़दमों की आहट सुनाई दी | भागो.....भागो..... बिल्ली .... । सेमिनार अधूरा छोड़ कोवे अलग अलग दिशाओं में उड़ गए । दरअसल जिस टावर पर सेमीनार चल रहा था उस पर मालिक की  ज्यादतियों से तंग आकर अपने हक़ के लिए एक बिल्ली चढ़ गयी।


Copyright © 2010 विजय मधुर

6 टिप्‍पणियां:

  1. waah !

    achha laga ...........

    badhaai !

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर ओर सटीक आलेख

    जवाब देंहटाएं
  3. goodand beautiful blog,badhiya shuruaat hai /hardik swagataapka
    dr.bhoopendra
    jeevansandarbh.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  4. आपका,लेख की दुनिया में हार्दिक स्वागत

    जवाब देंहटाएं
  5. मै सह्रदय सभी पाठकों व शुभचिंतको का आभार प्रकट करता हूँ साथ ही आपके सुझाव मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं|

    विजय मधुर

    जवाब देंहटाएं
  6. इस नए और सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

    जवाब देंहटाएं

आभार